व्यस्त..!
सुनो!,ठहर जाओ अभी जरुरी काम कर रहा हूं..!
कुछ देर बाद,सुनो न !
बोला न ठहरो ,कुछ काम कर रहा हूं..!
कब से मै कुछ बोलना चाह रही हूं पर तुम सुन ही नही रहे हो..!
मै जानता हूं तुम्हारी क्या कहानी होगी..!
क्या जानते हो,मै कोई फालतू की बातें नही कर रही ..!
बहुत जरुरी है तभी सुबह से कई बार कह चुकी हूं लेकिन तुम अपने काम में इतने व्यस्त हो कि मेरी बातें गैर जरुरी लग रही है..!
क्या जरुरी होगी ,कोई आफिस का काम और बात तो है नहीं..?
क्या घर की बातें जरुरी नही..!
इतनी व्यस्तता तुम्हारी किस काम की जब घर को घर ही न समझों ..!
घर को भी आफिस बना कर रखे हो..!
तुम्हारी जरुरत घरवालों को भी है,थोड़ी हमारी और बच्चों की भी सुन लिया करो..!
कभी मुझे भी पत्नी समझ लिया करो..!
मुझे भी थोड़ा अपने जिंदा होने का अनुभव करा दो..!
सारा दिन घर में ही उलझी रहती हूं..!
नही सुननी है मत सुनों मै बता देती हूं..!
हमारा बेटा स्कूल में टाॅप किया है और कल हमें आंमत्रित किया गया है..!
मै बच्चों के साथ जा रही हूं..!
तुम भी हमारे साथ चलते तो अच्छा होता..!
***************
लघुकथा :- कदम..!
"मोना तुम हमेशा नन्हें को गोद में ही क्यों रखती हो?"
थोड़ी देर उसे अपने आप से अलग करो ,कुछ देर जमीन पर भी खेलने दो..!
"नही मां...गंदा कर लेगा कपड़े और देखो कुछ भी मुंह में डाल लेता है..!
"अरे! इसी तरह बच्चे बड़े होते है..!
"वो जमीन पर रहेगा तो कपडे़ गंदे हो जाएंगे और वो खुद भी गंदा हो जाएगा.!"
"ये क्या जिद लगा रखी है और ये कैसी सोच है..!
"क्या हमनें बच्चे नही पाले या और सब बच्चे गंदे नही होते?"
"इस तरह तो वह कभी जमीन से जुड़ ही नही पाएगा,अभी तक तो ठीक है बच्चा है पर बड़े होने पर हमेशा गोद नही मिलेगी..!"
"ला मुझे दे नन्हें को!"
"मै इसे देखती रहूंगी,हमेशा हाथ पकड़ना सही नही है उसे सहारे की आदत हो जाएगी..!"
"उसे अपने आप खड़े होने की कोशिश करनी होगी ..!"
"एक कदम चलेगा तो एक बार गिरेगा भी,फिर वो अपने कदम को पहचान लेगा।"
*********
दूसरा हाथ..!
पापा!पापा!, आप आ गए, आप आ गए..!
मेरे लिए आप क्या लाए है..?
मै अभी मम्मा को बुलाती हूं
मम्मा!,पापा आ गए..!
मेरे लिए टाॅफी लाए है न पापा हमेशा की तरह..!
अपनी टाॅफी वाली हाथ अपने पीछे छुपा रखा है मै जानती हूं..!
मेरे लिए बहुत सारी टाॅफी आप लाए है,दिजिए..!
अच्छा मै अपनी आंखे बंद करती हूं और हाथ आगे ...!
क्या हुआ पापा ?
आप इतनी देर तो नही करते फिर इस बार क्यों?
आपकी टाॅफी बैग में है बेटा..!
क्या..........!!!!!!
आपका दूसरा हाथ पापा..!
अब मै टाॅफी नही मागुंगी पापा.....
****************
लघुकथा :- बंटवारा..!
"आओ बच्चों तुम सब से कुछ बात करनी है..!"
"अब हम लोग उम्र के इस पड़ाव पर है जहां हमे शारीरिक और मानसिक दोनों ही परिस्तिथियों में दुसरों पर र्निभर रहना होगा..!"
"आर्थिक रुप से हम सक्षम है पर अब हमें धन की क्या आवश्यकता,अगर हम अस्वस्थ न हों तो..!"
"अब बच्चों तुम लोग पर ही हम र्निभर है ,मैने अपनी जायदाद का बराबर बंटवारा कर दिया है ..दोनों बेटों और दोनो बेटियों के नाम..!"
"सब ये सुनकर खुश हो गए.. कुछ दिनों के पश्चात सबने अपने अपने कारण बता कर जाने को तैयार थे,उससे पहले अपने माता पिता से मिलने के बहाने अपने हिस्से की कागजात मांग बैठे.!"
"इसपर पिता ने कहा हिस्से तो चार है, मैने अपने पिता होने का फर्ज पुरी तरह निभाया,परंतु हिस्से तभी मिलेगें, जो हमारी देखभाल और सेवा सुश्रूषा करेगा..पर ....
आपकी सेवा करने के लिए रामदीन तो है पिताजी...!हम सब अपने अपने दुनिया मे व्यस्त है,ऐसे मे कोई कैसे रह सकता है..?"
"ठीक है बच्चों ,जैसी सुविधा हो वैसा ही करना..!"
"वैसे हमने तुमलोगों की देखभाल और जो अपने पैरों पर खड़े हो पाए हो ,हमेशा साथ दिया..!"
"खैर.!जो नही कर पाएगा उसके हिस्से की उसे दे दी जाएगी जो अपना धर्म निभाएगा..!"
"मेरे मरणोपरान्त वकील साहब इसका फैसला करेंगें..!"
"किसने अपना धर्म कितना निभाया..?"
महत्व..!
मां, ये सोने की चेन रजनी की है, हमारी शादी में उसके मायके से मिला है ..!
रजनी को ये चेन चाहिए..!
अरे बेटा.!पर ये तुम भाईयों के लिए छोटी छोटी बुटे बने है उसको कैसे पहनूं?
इसको धागे मे पिरोकर पहन लो न मां,और वैसे भी तुम क्या पहनोगी अब इस उम्र में सोने की चेन..!
एक पल को मां स्तब्ध रह गयी..बेटा आज ही जान पायी कि इसके लिए भी उम्र होती है..!
तुम्हारे बाबुजी और मै बड़े हिसाब से अपनी गृहस्थी चलाते थे ताकि तुम भाई बहनों की पढ़ाई लिखाई में कोई दिक्कत न हो...!
बात तो तुमने सही कही बेटा अब मेरी उम्र नही,पर जब उम्र थी तो तुम्हारी जरुरतें थी ...अपनी इच्छा देखती या तुम्हारा भविष्य..?
तुम तो अब इतने बड़े पद पर हो,इस जैसे कितने सोने की चेन बन जाएगी..!
छोड़ो बेकार की बात मां,लाओ ये चेन मुझे दे दो..!
बेटे के हाथ पर चेन रखती हुई मां का कलेजा भर आया,किसी तरह बुटे बनवाए थे पर बहुत शौक था उनको सोने की चेन मे पिरो कर पहने..!
ये बुटे एक मां अपने औलाद के लिए ही पहनती है..!
आज वो मां किस बात पर दुख जताए समझ नही पा रही थी,बस यही सोच कर आंखे भर आई कि एक मां का महत्व और पत्नी का महत्व में कौन आगे हो गया..!
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रोटी की कीमत वो ही जाने
जो रोटी तक पहुँचाता है
जिसने अपनी उम्र लगा दी
वो कहां आसानी से पाता है
ठंड ठिठुरन ओला बारिश
धुप ताप सब सहता है
वो हमारा अन्नदाता ही अपनी
किस्मत को रोता है
बहुत कठिन है डग पग उसका
कोई कहां समझता है
सिसकियों मे दिन गुजारे अपना
पेट ही नही भर पाता है
सब वादे सब बातें झुठी बहुत
कष्ट मे वो जीता है
वो कैसे खुद को इंसानो में
अपने आप को पाता है
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अपमानित गणतंत्र..!!
आज लाल किले की प्राचीर पर तिरंगे का अपमान करते हुए अन्य झंडे को लहराते देखा....ये कहां तक जायज है अपनी मांग को आंदोलन तक ले जाकर ऐसी कृत्य को अंजाम देना...?
अराजकता फैला कर अपने ही किसान भाईयों को एक बदनुमा दाग देकर कौन सा अधिकार और मांग मनवाने का तरीका है यह..!
जिस देश में किसान देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है उनके इस रुप से देश सकते में है...!
देश की छवि को इतना बदरंग बना देना और जो किसान भाई इतने मेहनत से अपना तन मन झोंक कर अन्न उपजाते है , उनकी ऐसी तस्वीर ,कितना सच और कितना धोखा...!
जिस मिट्टी का गौरवमयी इतिहास रहा,जहां से र्सिफ किसान ही नही फौलादी जवान भी देश की सेवा में अपनी जान न्योछावर करने को हमेशा तत्पर रहे...हर घर से एक न एक जवान देश की सीमा पर प्रहरी बन कर तटस्थ हैं...बातें मन में कई सवाल पैदा करती है..?
दिल्ली दिल वालों की कहलाती है ,कुछ समय ही बीता है आंदोलन और रैलीयों के एवज मे क्या क्या नही खोया..!
राजनीति क्या क्या रंग दिखा सकती है ये अब देश के हर जनमानष के मन में कौंधती रहेगी..!
ये कौन सी राजनीति का हिस्सा और तस्वीर है जिससे देश की गरिमा को लहुलुहान करके जश्न मनाया गया..!
आज 26जनवरी के दिन देश को संविधानिक रुप से चलाने के लिए एक रुपरेखा मिली...सबको अपना अधिकार मिला..।
उसी संविधान की व्यवस्था पर उसी की धज्जियाँ उड़ा दी,गणतंत्र कहां और किस रुप में...!मौन ही मौन..!
वो देश विश्व गूरू कैसे बन सकता है जिसने विश्व को आज की तस्वीर दिखाई..! अपना ही माखौल उड़ाने का एक और मौका ..!
आखिर कौन जिम्मेवार..?????????
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"कमली !तुम इतना देर से आओगी तो तुम्हारी छुट्टी करनी पड़ेगी।"
"अरे नही भाभाजी"!आप तो जानती है मेरी बेटी का बच्चा अभी एक सप्ताह पहले हुआ है...उसकी थोड़ी देखभाल करनी होती है।" ठंड का मौसम है इसलिए बेटी को काम नही करने देती ,बच्चे को ठंड पकड़ लेगा।"
"बहुत बहाने करती हो और देर से आने की सफाई भी देती हो!"
"जल्दी से काम पूरा करो कुछ मेहमान आने वाले है।
"हां भाभी !अभी कर देती हूं।"
"कमली! हां !" आओ थोड़ी रसोई में मेरी मदद कर दो ,बहुत सा व्यंजन बनाना है।"
"काम पूरा हो गया भाभी !अब मै जाऊं?"
"अरे नही!मेहमान आएंगे तो काम बढ़ जाएगा, तुम अभी नही जा सकती।"
'पर भाभी घर में बच्चे को देखना है!"
"एक दिन मे क्या बिगड़ जाएगा कमला?"
"तुम्हारे काम के पूरे पैसे देती हूं,जब बोलूंगी तभी जाओगी।"
"भाभी, आज तो सारा दिन काम ही काम ,कमला ये करो ,कमला वो करो ...थोडा सा भी बैठने की मोहलत नही मिली।"
"तुम यहां काम करने ही आती हो आराम करने नही!"
"भाभी,आप इतना तंग दिल की कैसे हो सकती हैं?" आप इंसान हैं तो हम भी इंसान है!
"अपनी मेहनत का ही खाते है आप कोई दया तो करती नही हैं!"
"मैं जा रही हूं ,आगे आपकी इच्छा!"
"थोड़ा दिल बड़ा किजिए,सब अंगुलियाँ भी बराबर नही होती,फिर हम आप तो इंसान हैं।"
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विधा :- लघुकथा..!
बिषय :- पत्थर की लकीर..!
मां ,मै और सोना एक साथ ही सेलेक्ट हुए है उसने इस दिन के लिए कितनी कड़ी मेहनत की है ,मैने उससे वादा किया था हर हाल मे उसका साथ दुंगा।
उसने एक अच्छी बहु का फर्ज निभाते हुए अपनी पढाई पूरी की है।और फिर ये तो उसका सपना था ,उसके पास स्टार वाली वर्दी हो।इस मुकाम पर आकर उसे नौकरी न करने देने का आपलोग का फैसला कितना गलत है।
पढ़ाई हो गई क्योंकि शादी करनी है बस,लड़कियों को नौकरी मे जाना अच्छा नही है ,ये रुड़ीवादी सोच आखिर कब तक?
आपलोगों ने रीमा को भी अपनी इच्छा पुरी नही करने दी..वो कितना बोलती रही भैया रोक लो इस शादी को मुझे भी आगे पढाई करके अपने पैरो पर खड़ा होना है पर मैं मजबुर था,अपनी बहन का साथ न दे सका।"आपका फैसला पत्थर की लकीर बन गया उसके लिए जो वह पार नही कर पाई।
सोना के साथ मै ऐसा नही होने दुंगा,किसी के सपनों से खेलने का आपलोगो को कोई हक नही।
हम आपकी इच्छा का सम्मान करते है तो आपलोगों को भी बच्चों की इच्छा और सपनों का सम्मान करना ही होगा।
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विधा :- कविता..!
बिषय :- ख्वाब..!
आधी रात की अलसाई सी
वो लम्हों की तरुणाई सी
नींद भरी मदमाती नैनों में
अधुरी सी उलझाई सी
ख्वाबों मे ही चाहत जागी
उजाले से वह दूर ही भागी
कोई पुकारे बांह को पसारा
बंध ही जाऊ कोमल लता सी
खुशी से झिलमिलाती आंखें
तमन्नाओं को भिगोंती सांसे
परिंदों की कोलाहल ने तोड़ी
आधी अधुरी ख्वाब मुकम्मल
अंधेरा भी कितना प्यारा था
उजाले ने तोड़ डाली निद्रा
ख्वाब न मुमकिन भ्रम बना
हकीकत से कुछ राह अलग
दोनो ही अलग किनारे जैसा
मिले वही जो क्षितिज के जैसा।
आत्मा की तृप्ति..!
"कोई है"? कब से आवाज दे रही हूं,कोई सुनता ही नही
क्या बात है,आपको कहीं जाना तो नही है,क्यूं सारा घर सर पे उठा रही हैं।
प्यास लगी थी इसलिए बुला रही थी बहु
अब तो भुख भी लगी है ,कुछ खाने को दे दो।
तुम्हारें भैया आए है न मिठाई लाए होंगे एक मुझे भी दो न।
कोई मिठाई नही है बच्चे सब खत्म कर दिए वैसे आप मिठाई खाकर क्या करेंगीं
आपको र्सिफ सादा भोजन करना है ।
डाक्टर ने क्या कहा है आपको समझ नही आता।
ठीक है बहु, जो है वही दे दो।
बेचारी ! खाने को कितना तड़पा करती थी,
इसी तरह तड़प-तड़प कर गुजर गयी, एक पड़ोसन ने दुसरे से कहा!
मृत्यु भोज में पांच तरह की मिठाई मृत आत्मा की तृप्ति के लिए लोगों को परोसे गए।
पता नही तृप्ति जीवित रहते होती है या मरणोपरांत!
जिसे जीते जी नही मिली वो मृत्यु के पश्चात मिल जाती है?
ये कैसी बिडंबना है मानवीय सोच की..!
**************
घर का आंगन घर के चारों कोनों को जोड़ कर रखता था,पर अब वो बात कहाॅं?
भैया,इतने सारे लोगों को बैठने के लिए हम कैसे इंतजाम कर पाऐगें
अब तो अपना आंगन छोटा पड़ गया है जब से बड़ी चाची ने अपना हिस्सा कहकर अस्थायी रुप से आधे आंगन को बांट लिया है।
चिन्ता मत कर छोटे कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।
बहन की शादी है वो भी सबसे छोटी,
ज्यादा लोग तो हो ही जाऐगें।
बाहर के लोगों के साथ साथ हमारे जान पहचान के भी होंगें।
कई जगह बात करने पर भी कहीं बात नही बनी,अब क्या होगा भैया?
अब तो एक ही उपाय है बड़ी चाची आज्ञा दे तो, घर मे कोई दिक्कत ही नही होगी।
पर उनसे कौन बात करे,वो तो किसी की नही सुनती,चाचाजी रहते तो ये नौबत ही नही आती।
हम दोनो भाई कितना परेशान हो रहे है समस्या का समाधान घर मे ही है,परंतु ये हो नही सकता।
कुछ समझ नही आ रहा है किसे बुलाए किसे नही।
हमारे घर की समारोह मे कई लोग आते रहे है,बड़ी दुविधा आन पड़ी है।
एक बार लड़के वाले से ही बात कर लिजिए भैया,सीमित लोगों के साथ ही आएं।
अरे नहीं छोटे,ये हमारे परिवार की प्रतिष्ठा की बात है ।
दोनों भाई की आपस में हो रही बातों को उनकी बड़ी चाची बहुत ही ध्यान से सुन रही थी।
दोनों को परेशान देखकर वो भी अपने को रोक नही पाई।
उनके पास आकर बोली ,क्या मेरी बेटी की शादी नही है,जो तुम लोग मेरे से बात नही कर रहे हो,आखिर मै मालकिन हूं उस आंगन की।
चलो मेरे पांव छुओ और मेरी बेटी की शादी की तैयारी करो कोई कमी न रहने पाए।
जाओ उस टाट को हटा दो वैसे भी पुरानी चीजें आंगन में अच्छी नही लगती। इतना सुनकर दोनों भाई उस टाट को हटाने दौड़ पड़े,जो घर के आंगन के साथ साथ दिलों मे भी दिवार बन कर खड़ी थी।
**************
कौन हूं मै..??
नारी हूं मै सिर्फ नारी
जहां घर के हर कोनो में
मेरा किरदार बदलता है
फिर भी कोई दर ऐसा
न मेरा कहलाता है
जिस खुटें बांधी गई
उसी की होकर रह गई
सबके साथ चहकती हूं
मचलती हूं बहकती हूं
अपने आप निखरती हूं
न कोई हीरा न ही रत्न
कंकड़ सी बिखरती हूं
तेरा मेरा न कोई तोल
समझ न पाए मेरा मोल
पैरों तले भी रौंदी जाऊं
बच्चों संग मचलती जाऊं
चटकीले रंगों में घुलती जाऊं
**************
साधना, देखो कोई गेट पर है।
जी देखती हूं...
क्या बात है भाई,क्या काम है।
थोड़ी मदद की जरुरत थी बहनजी,वैसे मै कोई भिखारी नही हूं,पर हमारे गांव के ही बगल के एक गरीब परिवार की लड़की की शादी है।
हम जैसे कुछ लोग मदद के लिए आगे आए है ,और कई हमारे साथी अलग अलग जगहों पर मदद मांग रहे है।
आपके पास एक बेटी की शादी के लायक जो भी हो दे सकती है।
"जरा ठहरो भाई,आती हूं..
कौन है साधना? जी वो एक आदमी है किसी गरीब लड़की की शादी के लिए मदद स्वरुप कुछ मांग रहा है।
क्यों न हम वो सारी चीजें दे दें जो हमने संजु के लिए सहेज रखे थे..!
ईश्वर ने हमसे वो हक तो छीन लिया ,पर एक बेटी को अच्छे से बिदा किया जा सके एक अच्छा सौभाग्य मिला है हमें,इससे हमारा अरमान पूरा हो जाएगा।
ठीक कहती हो,जाओ उसको अंदर बुला लाओ।
हमसब मिलकर उस बिटिया की शादी करेंगें।
बेटियां पराई होकर भी सभी की जिम्मेदारी होती है।
एहसास..!
मां..! हां बेटा बोलो
हमलोग को इतनी ठंड क्यों लगती है..?
ये क्या बेटा, ठंड है तो ठंड लगेगी न..।
"हां पर, वो रिक्शे वाले अंकल को...
"क्या हुआ..?
कुछ नही मम्मा,वो कल स्कूल से आते समय अंकल अपने घर के तरफ से ही लेकर आ रहे थे।
कुछ सामान देना था घर पर...
हां तो ?
"मैने देखा, उनका बेटा फटी हुई पैंट और आंटी भी पूरी जाली वाली चादर ओड़ रखी थी।"
ठंड नही लगती होगी उनको....
उनलोगों को आदत हो गई है बेटा।
"चलो ,अपना लेशन कंप्लीट करो,फालतु बात में ध्यान नही देनी है ।
"फालतु बात कैसे "
मुझे इतने कपड़े क्यो पहनाती हो?
मै भी कम कपड़े पहनुंगा ,मुझे भी आदत हो जाएगी।
मौसम तो सबके लिए एक जैसा होता है न मम्मा ,फिर ये आदत कैसे हो जाती है।
"मेरे पास आपके पास इतने सारे गर्म कपड़े है ,थोड़ी उनको दे दो न।"
"बच्चे के बालपन और उसके ज्वलंत सवाल से निरुतर होना पड़ा ।"
ठीक है बेटा,कल रिक्शे वाले से बात कर लुंगी और जरुरत के हिसाब से मदद भी कर दुंगी।
"अब तो खुश है न मेरा बच्चा"
"यस मम्मा ,आप कितनी अच्छी हो"
बच्चे के कोमल भावना ने एक एहसास को जन्म दिया और किसी की मदद हो पाई।
****************************
संतान..!
कब से उसे गोद मे बहला रही है बिस्तर पे छोड़ दो सो जाएगी अपनेआप...!
अपनी जेठानी की बात सुन कर रमा का मन खिन्न सा हो गया..!
खुद के बच्चे को जो रमा की बेटी से तीन बर्ष बड़ा था,हमेशा उसी का बहाना लेकर घर का काम काज से हमेशा दूर रहती..! वहीं उसकी पांच माह की बच्ची अपनी मां की गोद को तरस जाती ..!
बचपन से सी रमा को सुंदर गुड़िया भाती थी,जो अब उसके गोद में सांसे ले रही थी..!
अपनी बेटी को जब पहली बार गोद में लिया तो ममता फुट ही पड़ी ,उसकी आंखे छलक आई थी..!
अपनी सारी ममता और प्यार उड़ेल देना चाहती थी..!ये बात उसकी जेठानी को अच्छी नही लगती,इर्ष्या से जली रहती..!
"बेटी को इतना प्यार..!"
घर के और लोग भी उसे बहुत प्यार करते वो इतनी प्यारी थी ही ..!
वो अपनी बेटी के लिए व्रत भी रखती,मौका मिलते ही उसकी जेठानी उसे ताना मारना नही छोड़ती..इस बात से वह बहुत दुखी हो जाती..!
एक दिन उसे भी बहुत गुस्सा आया अपनी जेठानी को उसने कह दिया ..!
एक मां र्सिफ संतान पैदा करती है बेटा हो या बेटी ...पर कुछ आप जैसै मानसिक रोगी ही ऐसी ओछी बात करते है..!
ऐसी मानसिकता..!
"बेटी और बेटे का फर्क क्यों"
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न जाने कौन सा बूंद कहां गिरा
किसके मन को भिगो गई वह
किसी ने उसको सुखा ही डाला
डरती है मिट्टी मे मिल जाने से
खो ही जाए अस्तित्व कहीं न
बुदों की चाहत का क्या मोल
बादल ने भीं पनाह कहाॅं दी
संग लेकर चलने का था वादा
बिखर गई बुंद गिर गई धरा पे
सफेद रंग सा प्यार था उसका
खुद गिर कर फिर गौण हुई
नदी की धार मे बहती गई
कभी समंदर संग ठहर गई
ठगी गई अपनी किस्मत से
कभी न समझा कोई लाचारी
बन कर क्यूं रह गई बेचारी..!
***********
-: लघु कथा :-
( बीता बसंंत )
बहु,जा मोहन इतना कह रहा है तो थोड़ी घुम फिर कर आ जा..! चली जा साथ में...मुन्ने की चिंता मत करियो हम और मुनिया मिल कर संभाल लेंंगें। वैसे भी यह इत्ता तंग नही करता..!
"सीमा अनमने मन से जाने को तैयार हो गई,उसे अब आदत सी हो गई थी..! वैसे भी शादी के चंंद दिनों को छोड़कर अब कहां पति का साथ रहता है..?? ससुराल मे सारी सुख सुविधा उसे मुंह चिढ़ाती, पति का घर से दूर रहना.. बीच-बीच गिनती के दिन के साथ आना..। आते ही लोगों से मिलना-जुलना , जरुरी काम निबटाना, मां-पिता बच्चों संग ही दिन कैसे उड़ जाता पता ही नही चलता..!
वह कई दिन की संजोयी हुई शिकायत भी नही कर पाती ,पति संग बात करने को तरस जाती..! मोहन भी इन सब बातों से बेखबर रहता..स्त्री मन की पीड़ा वो समझ नही पाता ।
परंतु इस बार उसका आना उसके अंदर के परिवर्तन को बता रहा था..! वह सीमा को बाहर घुमाना चाहता था, ये बातें उसकी सास महसुस कर रही थी। इकलौता बेटा फिर भी घर से दूर, बेचारी बहु वो भी इकलौती बेटी थी, लाड़ प्यार से बढ़ी पली..! मां-वाप ने भी इकलौता बेटा है, बेटी राज करेगी ये सोच कर ब्याह दिया।
परंतु सीमा के नसीब में वो वसंत कभी नही रहा ,पति की गैरमौजुदगी मे अपना और पति दोनों का फर्ज निभाती रही।
इस बार सास ने जोर देकर उसे मोहन संग भेज दिया, शायद मुरझाए चेहरे पर बसंत का आगमन हो जाए..!
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सकारात्मकता..!
रवि..! यार अब हमलोग क्या करेंगें..?? इतने दिनों से हम लोग इस कंपनी के मुलाजिम है ,हमारी बदौलत ही कंपनी आज इतने अच्छे मुकाम पर है..!हमलोग इसे अपना मानकर ही आज तक जुड़े रहे कभी ओवर टाईम भी नही मांगा।परंतु आज कितनी आसानी से वो छंटनी के नाम पर कई लोग को निकाल रहे है।हमलोग तो बेकार ही हो जाएगें,कैसे घरवालों का सामना करेंगें..!
बहुत देर से रवि की बातों को सुन रहा रितेश उसके कांधे पर हाथ रखते हुए बोला चल पहले हमलोग चाय पीते है फिर कोई बात।रितेश की बात से रवि थोड़ा झुझंला गया ..हमारी जान पर बनी है तुम्हें चाय की पड़ी है।रवि की मनोदशा से वह अच्छी तरह परिचित था पर रितेश अपने आप पर काबु रखकर रवि को भी संभाल रहा था।वह जानता था इस दूर परदेश में वही एक दुसरे का सहारा है।
चाय की दुकान पर चाय की सिप लेते हुए रितेश को जैसे एक किरण सी दिख गई।वह रवि को बोला चिंता मत कर हमलोग इतने भी बेकार नही हुए..देख वो सामने होडिंग लगी है क्या लिखा है!
पेन्टर की आवश्यकता है, ये सरकार की तरफ से शहर के सौन्दर्यीकरण के लिए दिवारों पर तस्वीर बनानी है। हम तुम विज्ञान के विधार्थी है, तु तो कितनी अच्छी पोटर्रेट बनाता है । तो चल क्या बोलते हो, आज अपनी शौक को अपनी आजिवीका का साधन बनाते है। रवि बिल्कुल बिदक सा गया, हमने इतनी पढ़ाई यही करने के लिए की है। तुमको पता नही है ये पेंसिल से बनाने वाली तस्वीर नही है। पेंट और पेंटब्रश लेकर सड़क किनारे दिवारों पर तस्वीर बनानी है..! तो क्या हुआ ये कहकर तुम कला का अपमान मत करो जो तुम्हारे और मेरे अंदर है ..! ये तुम क्यों भूल रहे हो अभी इस बड़े से शहर मे हमे अपने और अपने परिवार के लिए पैसों की कितनी आवश्यकता है । ये तो हमारे लिए वरदान है । रितेश की बातों से रवि को अपनी सोच बड़ी छोटी लगने लगी। वह मन ही मन सोचने लगा रितेश कितना धिरज वाला है। वो भी तो पढ़ा लिखा है पर किसी काम को छोटा नही समझता। सही तो कह रहा है कुछ न करने से बेहतर है कुछ किया जाए। वह रितेश का हाथ पकड़ उठ खड़ा हुआ और "कल से काम पर लग जाना है " ये बोलते हुए दोनों दोस्त गले मिल गए..!
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बिषय :- दुनिया/संसार..!
विधा :- कविता..!
इस-सुख दुख से जुड़ी है
जीवन आधार कहेगी
कौन कितना है सफल
गति परिणाम कहेगी
अपने-अपने भाग्य के हिस्से
बाँचे तकदीर कहेगी
जब राख बनकर मिट्टी से
मुट्ठी भर खाक उड़ेगी
इस जीवन की सच्चाई की
असली बात कहेगी
तन सजाया कितना तुने
अंतिम राह कहेगी
क्यों रहे भरमाए अबतक
टुटी सांस कहेगी
कौन यहां का होकर आया
बीती बात रहेगी
गिनती की सांसो को साधो
बस यही साथ रहेगी।
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किसान..!
आंदोलन की आखिर,
नौबत क्यूं आई..??
कौन है जो कर रहा,
जग में हमारी हसाई..??
मिट्टी से प्यार जिन्हे,
सड़कों पे क्यूं बैठे है..??
कुछ तो बात है,
जो यूं रुठ बैठै है..!!
उनका कमाया हुआ,
कोई क्यो लुटे है..??
सियासत की चक्की में,
पीस ही गये वो
कितने बेजुबान
बेसहारा हुए वो
उम्मीद की झोली
खाली रही सब
अपना उसका क्या है..??
सोच रहा अब..!!
सबका वो पेट भरे
आज चौराहों पर
हमेशा ही मार पड़ी बही आंसु धार
कैसी है लाचारी कितनी है पीड़ा
सत्ता हमेशा से बीच मझधार छोड़ा
जो भी जैसे हो कुछ करो सरकार
हमारे अन्नदाता को छोड़ो न लाचार
मिल बैठ बीच का बात करो विचार
यूं अकड़ के उनके हाल न छोड़ो तुम
कौन आखिर सुनेगा सबके हो सरकार।
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"सुनों", अब हम दोनों ही उम्र के उस पड़ाव पर है जहां जीने की वजह और चाहत तो बहुत है, पर हमारे लिए समय किसी के पास नही..! बच्चों को भी क्या दोष दें इस अंधाधुंध दौड़ के वो भी एक ईकाई है..!
चलो आज हम तय कर लेते है हम मे से पहले कौन जाएगा..!
"कैसी बहकी बहकी बात कर रहे हो जी"..! बहकी बात है ...अब ये सुनापन और खालीपन काट खाने को दौड़ता है..! तुम और हम कही अकेले न आ सकते न ही जा सकते है..! सोचो ..कैसी मेरी रौबदारी थी जब मै सरकारी अफसर था,लेकिन कभी किसी का अपमान नही किया सब लोग मेरे आत्मीय भाव और पद की वजह से इज्जत करते थे..! आज भी उनमें से जुड़े लोग यदा-कदा याद कर लेते है जिससे अपने जिंदा होने का वहम हो जाता है..! अपने पति की इन बेबस और लाचारी भरे अल्फ़ाज़ से आंखे भर जाती थी..! उसे याद है जब वो दफ्तर से लौटने वाले होते थे तो उनकी जरुरत की हर चीजें सामने रख दिया करती थी..!
कितनी अनुशासित जिंदगी थी..! अब कई आवाज लगाने पर या जरूरत पड़ने पर भी उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती ..! "मानों अपने आप को ढाल लिया हो" "तुम से कुछ पुछ रहा हूं" जबाव क्यों नहींं देती,अपने पति के इस अधिकार भाव से पुछना ,बहुत हद तक सुकून सा लगा था इस उम्र मे भी मेरी इतनी चिंता ,जहाँ सब साथ छोड़ चुके बस हमसफर का साथ नही छुटा..!
कुछ देर चुप रहकर अपने पति को एकटक निहारती रही फिर उसने कहा आप ही जाओ मै बाद में जाऊंगी..!
आप नहींं रहोगे तो मै रोकर मन हल्का कर लुंगी ,पर आप तो ऐसा कर नहींं सकते ..!
पुरुष दिल में कई बात रख लेते है औरतों की तरह रोना आंसु बहाकर मन हल्का नहींं कर पाते..!पत्नी की बात सुनकर आंखें डबडबा गई थी, अंतिम बार कातर आंखो से देखे जा रहा था ,कहीं पत्नी देख न लें..!आज भी उसे मेरे मान सम्मान की कितनी चिंता है..!
एक लंबी सांसे लेते हुए अपनी अंतिम क्षण का इंतजार करने लगे..!
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इंतजार में तकते नैन हमारें...!
तपता सुरज लाल हुआ अब
कुछ लम्हें बिते साथ तुम्हारें..!
हिलोरे लेती जब ठहरा पानी
आने की तेरी आहट लगती...!
पत्तों की सरसराहट चुभती
छद्म आवाज भी सच्ची लगती..!
कैसे तुझे आभास नही होता
दूर ही सही पर दीदार तो होता..!
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सुबह से ही एक मैसेज का इंतजार...!
पता नही आज मोबाईल में वो (रवि) आनलाइन भी नही..क्या बात है..??
ये सोच सोच कर दीपा का मन परेशान हुआ जा रहा था..!
कौन सा बंधन था पता नही..??
यू ही एक रिश्ता था जिसका कोई नाम नहीं..! बस थी तो एक मन का डोर..!
जिसके लिए परेशान हो रही थी उसे इसका भान तक नही..!
शाम को मोबाईल ऑन करते ही तस्वीर किसी बिशेष स्थान के साथ दिखी..!
थोड़ी देर के लिए मन को सुकून सा लगा..!
थोडी दुखी भी हुई, क्या एक बार भी हमारा ख्याल नही आया..!
पर अगले ही पल अपने आप से सवाल क्यूं इतना परेशान हो तुम...क्या रिश्ता तुम्हारा ..??
इतनी जल्दबाजी ठीक नही किसी पर एकदम भरोसा करना..!
मन उचट सा गया था, क्या कोई अपना कहने भर से अपना हो जाता है..?
काफी देर तक अपने आप से बात चलती रही..!
अक्सर मैसेज का आना-जाना हो जाता था, शायद एक लगाव की वजह से ये उम्मीद हो आई थी..!
दोस्त और दोस्ती जैसी बात पे हद से ज्यादा हक लगने लगा था ..!
पर, दिल में न जाने क्यूं अजीब सा लग रहा था ऐसा भी एक रिश्ता बनता है जिसकी कोई पहचान नही..!
मन उस अनाम से रिश्ते के पीछे चलना शुरु कर देता है जिसकी कोई गारंटी नही..!
ये सोचते-सोचते आंखों मे आंसु भर आए कब आंख लग गयी पता ही नही चला..!
सुबह उठकर उसने अपने मोबाईल से वो यादें ही मिटा दी ..!
आज के रिश्ते वो भी बेनाम सा जिसका न कोई गवाह न कोई सुबूत ..!
"भावना का कोई मोल नही..??"
अगले ही पल दीपा ने निर्णय ले लिया अपने आप से.......!
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खुद को ढूँढू खुद मे आज
बीत गया अब तक साल
खुद से ही मिलना दुर हुआ
रखी थी कितनी उम्मीदे पाल
वैसे तो मिलते सब से मगर
अपने आप को रखती टाल
चाहत थी जो मयस्सर थी
फिर भी खंगालती रही खाक
रेत जैसा ही फिसल रहा था
वक्त जो हमारा बीत रहा था
देहरी अपनी लांघ न पाऊं
दायरा क्या जान न पाऊं
बीते वक्त को सहेजना चाहुं
अपनी खुशियां बांध न पाऊं
सबके बीच बटी हुई सी
अपने आप मे कटी हुई सी
नही कोई उम्मीद नया सा
समेट ही लूं अब इरादा
मिले नयाा जन्म पूरा सा।
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परवाह..!
"सुगंधा" तुम पता नही दिन भर क्या करती हो..?? "कोई सामान सामने नही रखती..! जानती हो मुझे आफिस जाना है, तुम्हे तो घर में रहना है, कितना काम रहता है पर तुम नही समझोगी..!
सुगंधा मन ही मन गुस्साई और उसे रोना आ गया..! वो यही सोचने लगी "ये वही पतिदेव है जो नयी-नयी शादी के बाद हर बात का ध्यान रखते थे, अचानक से एक आवाज से ध्यान टुट गया..!
कहा खोई रहती हो, तुम से तो बोलना ही बेकार लगता है " मोहित "की बातों ने अंदर तक हिला दिया..! वह एक स्वाभिमानी होने के साथ-साथ पढाई और अन्य कार्य में भी आगे रहती..! शहर के खुले माहौल मे पले-बढे होने के बाबजुद वो सुलझी हुई थी..! मोहित की बातों से उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती कभी-कभी रोकर वह अपना मन हल्का कर लेती..! सारा दिन वह अपने घर संसार और बच्चों के पीछे लगी रहती फिर भी वह खाली ही दिखती थी..! बच्चों को भी बोलती सामान करीने से रखा करो, लेकिन इस लाकडाउन मे मोबाइल की लत, क्लास के बहाने और तो और स्कुलों की छुटटी..! सारा घर उथल पुथल, सामानों को ठीक करते-करते परेशान हो जाती थी, समझ ही नही पा रही थी वह क्या करे..! और किस तरह सबका ख्याल रखे परवाह करते-करते कब वो उम्र से ज्यादा दिखने लगी पता ही नही चला..!
कुछ सोचकर वह आईने के सामने खड़ी हुई और मुस्कुराते हुए निहारने लगी ..! मन ही मन बोल उठी.....अब भी कुछ नही बिगड़ा अपनी परवाह खुद ही करनी होगी..! मोहित के आने से पहले ही "अच्छी तरह तैयार होकर इंतजार करने लगी..! आफिस से आते हुए उसकी नजर सुगंधा पर पड़ी, कितनी सुंदर लग रही थी..! वह मन ही मन सोचने लगा ,किस तरह जिम्मेवारी के बोझ तले वह बेपरवाह हो रहा था..! उसने सुगंधा से "माफ कर दो" इतना कह कर उसके बालो को सहला दिया और सुगंधा भी अपना सर मोहित के कांधे पर रख दिया ..! दोनों की आंखे भर आई थी..!
*************************
हर भाव का एक ठिकानाआंखों से ही सब कहना
आंखो में एक समंदर है
समंदर भी खारा पानी है...!
दुख में गर रोती है आंखे
सुख मे झिलमिलाती आंखें
ये रोना हंसना चलता रहता
मिलकर सदा साथ निभाते..!
रोने के कई मौके है आते
हंसने के भी बहाने होते
रो रोकर जहां हंसना है
कभी हंसकर भी रोना है...!
आंसु और हंसी मिलाकर
जीवन जीने के तराने है
हंसता रोता जैसा भी मन
जीवन के ही तो पहलु है..!
*******************
"मम्मा अपने गेट के बाहर कोई बैठा है", बेटे के कहने पर मै देखने के लिए गई..! जैसे ही गेट खोला, देखा एक दंपति पेड़ की छाया में बैठे हुए है, पत्नी बीमार थी इसलिए वो दिवार से टेक लगा कर थी। "पता नही क्यों" उत्सुकतावश मैने पुछ लिया आप लोग कहां से आ रहे है..?? वो वोले "हास्पिटल से" धुप बहुत तेज थी दूर जाना भी है, इसलिए थोड़ा सुस्ता ले यही सोचकर हम बैठ गए। "अच्छा किया आपने " उनके पास एक खाली पानी की बाटल थी शायद उन्हें पानी चाहिए थी ...!
कोरोना का दौर चरम पर था सो इंसानका इंसान से इस कदर दूरी बनी हूई थी जो कष्टप्रद थी। थोडा़ डर तो मन में हो रहा था परंतु उनकी पत्नी की हालत देखकर रहा नही गया। उन लोगों को अंदर बुलाया और ठंडा पानी दिया ,वो लोग भी अपने हाथ मुंह धोकर ठंडा पानी पीकर बहुत खुश हुए। थोड़ी बहुत औपचारिक बातें हुई, फिर वो जाने के लिए तैयार हुए...! जाते-जाते बहुत ही आशीर्वाद और दुआ दे कर गए। "आपने ऐसे समय हमें बैठाया जब लोग एक दुसरे सॆ दुर रहना चाहते है, ईश्वर आपको हर खुशी दे" आज भी वो बातें याद आती है तो मन को एक सुकून सा होता है।
*******************
इसकी ताबीर तो कर दो न..!
कभी साथ भी आकर बैठो
एक बराबर कर दो न..!
चलो अकेले जिन राहों पर
साथ हमें भी ले लो न..!
नजरों से दुर रहते हो जो
इसे मुकम्मल कर दो न..!
थोड़ी हकीकत थोडा़ फसाना
पुरा इसे तो कर दो न..!
उलझी उलझी सी जिंदगी
थोडी़ तो सुलझा दो न..!
एकाकी रात की तनहाई में
कुछ बाते तो कर लो न..!
कभी साथ भी आकर बैठो
एक बराबर कर दो न..!
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दिल में उपजे जज्बात लिखुं,...!
शब्द जोड़ कर साज बनाऊं
दिल की कोई बात बताऊं..!
कोई ऐसा ही तो खास लगे
जो दिल के आस पास रहे..!
बिखरी अब लफ्जों की डोर
बाक़ी न रही कुछ इस ओर..!
मन का कोई एक कोना था
जो सिर्फ मेरा अपना था..!
तनहाई से अब यारी कर ली
जीने की तैयारी कर ली...!
************************
इन आँखों से पीड़ा बहती है
दिल में उठते टीस का सागर
जख्मों को कुरेदती है
रेत पर जब लिखुं दर्द अपना
लहरें बहा ले जाती है
समझने से पहले ही लहरें
निशान मिटा जाती है
क्या कसमें और क्या वादें
र्सिफ बातें रह जाती है
आंखों की किस्मत में नदिया
निकल कर बह जाती है
उल्फत दिल में बसती,
यादों में जिंदा रहती है
***********************
पल-पल है बहता हुआ एक दरिया..!
रुकता कभी, कहीं नही है ये..!
जिंदगी का, बहता है ये दरिया..!
आंखे थी या ख्वाब का जजीरा..!
टुटी जब तो, बह चली ये दरिया..!
आवाज थी किसी की या रागिनी..!
कल-कल बहती, बता रही ये दरिया..!
खाक उड़ रही दिल की वादियों मे..!
हवा का रुख बता रही, बहती ये दरिया..!
किरणों के संग, गुजर रही थी लहरें..!
या लहरों संग ही, बह रही ये दरिया..!
दरिया की चांदनी है या चांदनी का दरिया..!
बढ़ रही थी दोनों, बह रही थी दरिया..!
************************
शाम होने चला है अब...!
दिन ढलने लगा है अब...!
लाल सुरज खोने को अब..!
समंदर मे गोते लगाने अब..!
परिंदें भी कतारें मे अब..!
चले उन्ही जंगलों मे अब..!
पेड़ो पे थे जिनके घोसलें..!
उन्ही शाखों को ढूढेगें अब..!
परिन्दे वहीं लौट कर आएंगें..!
थक हार फिर सोऐंगे अब...!
हैरान हम भी है इस कदर...!
मकानों के जंगल में अब...!
कोई अपना जो होता ठिकाना..!
सोचूं फिर कहां जाएंंगें अब...!
*******************
एक सागर मन के अंदर
उफनती लहरें आती जाती
शांत अगर पड़ जाए तो
आंखो से मेरे बह जाती
नदियां जैसी बहती धारा
कितने भावों से टकराकर
भीतर भीतर शोर मचाती
कभी मौन तो कभी मुखर
अपनी ही राह खुद बनाती
एक दीए सी ख्वाहिशें अपनी
कोई मुझको भी बाती दे दे
जलना बुझना किस्मत अपनी
साथ जले जो मेरे संग संग
हवा चले तो कह दे कोई
रुख बदल ले अपनी थोड़ी
जो जल रहा उसे जलने दे
वक्त ने कुछ ख्वाब दिखाए
हालात ने क्या सितम ढहाए
हर हाल मे सुलगी जिंदगी
करीबी मे उलझी जिंदगी
जिंदगी एक बड़ा सवाल
ढुढों तो कई कई जवाब
कौन सही कौन गलत..!
*******************
"जिंदगी से चंद मोहलत चाहती हूं
थक गई मै ,थोड़ा सुकून चाहती हूं!
"बिखर सी गई मै सिमटना चाहती हूं
जिदंगी से बस जिंदगी चाहती हूं!
"अब कहीं राख न हो जाऊं मै
कुछ नम हो जाना चाहती हूं!
"हर गम से बस कही दूर बहुत
कोई किनारा सा चाहती हूं!
"चेहरे पे हर एक दिन नया चेहरा
जैसी हुं वैसी ही रहना चाहती हूं!
"कितनी बंधनों मे कैद जिंदगी
जिंदगी की खुली हवा चाहती हूं!
"कुछ लम्हें फुरसत की जिए
अब जरा पल ठहरना चाहती हूं!
"कोई अपना सा हो मेरे जैसा
अपनापन सा भाव चाहती हूं!
"जिंदगी से चंद मोहलत चाहती हूं
जिंदगी से बस जिंदगी चाहती हूं!
**********************
अपनी ख्वाहिशों का एक दिया
आज जलाऊं अपनी देहरी
एक नयी उम्मीद की छोर थाम
बढुं उस अंधेरी राह दीप संग
जलना बुझना शाश्वत जग का
पर रौशनी पे न कोई पहरा है
रूप रंग की चकाचौंध में भटक
दौलत शोहरत के पीछे भागे
मन की घोर कालिमा से दूर
एक नन्हा सा दीप जला लूं
क्यूं भटकुं बनके मृग सी मै
उस कस्तूरी की चाहत में
अंदर ही मेरे छुप कर बैठी
भान हुआ जो देर ,तो क्या
काँपती ज्योत सी मैं इठलाऊं
खुद को अपने आप निहारूं
एक बाती बनकर मीत का
दीया जला कर प्रीत का
दूर करूं अंधेरा गम का
एक नयी उम्मीद,
आशाओं संग।
************
जिंदा दिलो में उल्फ़त
दुरियों का न हो गम
हौसला गर इंतजार का
कोशिश बेकार न कभी
जिंदा उम्मीद जो रहे
तुझ संग जुड़ कर ही
ये रंग जो पाया आज
अब बेरंग न हो रंग
जिंदादिली की कभी
उम्र न हो अब कम
यादों में बस्ती बातें
बातों में तेरी यादें
क्या कसमें और वादें
जिंदा जो न हो सारे
हर दर्द मे साथ वक्त
साथ रहे जो हर वक्त
*****************
क्योंकि ये फासले भी कम करने लगी
इसके भरोसे या यूं कहे पकड़ कौन
कहां पहुंच जाए
तंग गलियारे भी साँस लेने लगी....।
☕☕☕☕☕☕☕☕
चाय की चुस्कियों के बीच गुप्तगु
हर सिप पे जश्न का ठहाका
राजनीति की चालें बुन बुन
सत्ता का माखौल उड़ाते
मदहोसी में सारे घुल कर
चाय और सत्ता का सफर
लगती सस्ती पर कितनी ऊँची हस्ती
कहाँ से चले कहाँ पहुंच गए
इस चाय की धुँए में उड़ उड़
बनकर कितने चौकीदार
कर रहे सब बंटाधार
धीरे -धीरे सब बेच रहे
और क्या क्या बाकी शेष है
गरीबों की लहु से उड़ते
सड़क की धूल को सींच दिए
हर गरीब की आबरू सड़कों
पर दौड़ गई
बच्चों का क्रंदन भी कानों
तक न पहुंच सकी
भुख की भी क्या कहना
रोटी बोटी सब साथ मिल
चिथड़े बन बिखर गये
चाय इतनी कड़क होगी
कब किसने सोचा था
सिप सिप पर सोच तुम्हारी
भारी पड़ रही जनता पर
उपर वाले तो उपर है हीं
थोड़ी नीचे भी नजरें कर
आत्मनिर्भर को निर्भर होने की
बड़ी मीठी सी सीख सिखाई
अपनी जिम्मेदारी भूल कर
पैदल ही घर पहुंचवा दिए
और कितना सबक सिखाना बाकी
कुर्सी के हो तुम पहरेदार....✍️✍️
*******************
आप न समझना मै आम हूँ
आम नहीं मै कुछ खास हूँ
मुझे मापने की भुल न करना,
खास हूँ मै
आम समझने की जुर्रत न करना
मै मानक हूँ अपने परिवार की
मै एक कड़ी हूँ मर्यादा की
मालूम है मुझे अपना दायरा
आप और आप जैसों के लिए
न सही
पर जिससे जुड़ी हूँ पास हूँ मै
मेरे सोच से ज्यादा मत चल
मेरे कदमों को तौलने की सारी
कोशिश व्यर्थ है
मै सुनती सब की पर करती अपने मन की
मै जानती हूँ मै सही गलत नही
मस्ती और जिंदादिली है मुझमे
हर हाल मे खुश रहने की खुबी है मुझमे
हर चीज को गलत नजरिये से देखुं
ऐसी सोच नही है मुझमे
दिल मे कोई बात रखती नही मै
हर बात से बेअसर भी नही मै
चुभते हुए जख्म दफन है मुझमें
पर आँसु पीती हूँ अकेले में
दिखावे का शौक रखती नही मै
मैं, मैं हूँ,
आपकी सोच से कहीं ज्यादा ,
पर कम नही मै।
**************
पल भर मे बदलते है
यहां इंसान के ढंग
चंद मतलब से अपने
बदलते है संग
रिश्तों में तलाश
करता अपनापन यहाँ
नजदीकियों से ही
सब दूर-दूर यहाँ
इस मतलबी दुनिया के
कई बदलते रंग
आदमी तो है पर
आदमी सा न कोई रंग
दिखावे के रिश्ते
पल मे बनाते लोग
विश्वास की डोर
अपने हाथ ही तोड़ते लोग
अपने दिखावे की
ओहदे से लिपटे है सब
घर की दीवार ही
जब सूनी-सुनी अब
खुदा की कायनात का
मोहब्बत है नूर
तलाश इस सच की
अब बहुत है दूर..
***************
डोली अरमानों की सजती
बेटी बनती है जब दुल्हन
दुलारी सी सुकुमारी सी
जिसकी किलकारी से गुंजी
घर आँगन की खुशियाँ सारी
बडे अरमानों से पलती है वह
बड़ी होती जाती कोमल लता सी
शाखाओं पे लिपटी वेल सी
सुना छोड़ जाती है एकदिन
कट जाती वह अपनी शाख से
बाबुल की बगियाँ सुना छोड़
बदल जाते पलभर मे रिश्ते
खिलकर महकी जिस अँगने
छोड़ गई वह कर पराई
डोली बैठी अपनी हुई बिदाई
बेटियाँ अरमानों की डोली
कभी इस आँगन कभी उस आँगन
भाग्य अपने वह यही है लाई।
***************
कन्या पूजन..!
कन्या पूजन को ढोंग बनाया
घर-घर जैसे स्वांग रचाया
पुष्प की करो हिफाजत
देवी बनाकर क्यों बिठाया
मानो अब सब खत्म हुआ
अब गंदी नजरें न भेदेगी
महफूज है सब जुल्म से
कोई बेटी न लुटी जाएगी
कन्या भ्रुण भी जीएगी
अब बेटे की न हाय मचेगी
बेटी भी सिरमौर बनेगी
काश यहाँ भी कुछ सच होता
दिखावे की होती हकीकत
कौन सी नजरें होती है वह
र्सिफ गिद्धों जैसी हरकत होती
वे भी होते पिता किसी के
राखी बंधवाई जिन हाथों मे
उन हाथों से नोची अस्मत
माँ की कोख भी जार रोयी
जब इल्जाम औलाद पे आई
तुम्हारी हर करनी की सजा
हर वो औरत के हिस्से आई
माँ बहन बेटी पत्नी में
बंटकर कुछ तेरे पास आई
जुल्म की इंतहा पार किए
जब,तब नजर न देवी आई।
****************
बचपन..!!
बचपन..!!
जीवन रुपी नैया को
धीरे धीरे बहने दो
कश्ती ले चल उस ओर
जहाँ प्रेम की धारा हो
उठती गिरती लहरों से
जीवन पार लगाना अब
बचपन खो न जाए
थोडे बच्चे ही रह जाँए
बड़ा बनकर क्या मिला
थोडी नादानी रहने दो
प्यार विश्वास की धुरी पर
झीनी झीनी बारिश हो
खुशियाँ बरशे आँगन मे
धरती धानी धानी हो
खुशबू न कैद रहे
सोंधी सोंधी मिट्टी में
बचपन की बोली मीठी
तुतलाती सी वाणी मे
नन्हें नन्हें पग बढ़े
अपनी ही शक्ति से
नित्य बढ़ता जाए जीवन
अपनों की छाँव मे
रहे न अधुरा शेष अब
बचपन की पौध मे।
******************
सपनों की दुनिया सपने जैसी
बचपन वाली अपने जैसी
थपकी पड़ती जब प्यार से
निदिंया रानी झटपट आती
कभी सजीली कभी सुरीली
ख्वाबों मे खो जाते अक्सर
हकीकत बिल्कुल जुदा-जुदा
फिर भी सपने न्यारी-प्यारी
सपनों की दुनिया मीठी लगती
कितनी दुर की सैर कराती
चंद लम्हों मे मनोहारी लगतीं
कितनी खुशियों से भर देती
र्दद से राहत दिलाती सपने
चाँद तारो सी अनमोल सपने
रब की नेमत मिली है सबको
अपने सब दुख भुला कर देखो
नयनों में सपनों का सुंदर वर्णन..।
******************
संबंधों के दरख्त तले
छाँव-छाँव सब पले
सजाएँ कलियाँ ख्वाब की
अपने सब बढ़ चले
बगिया खिलखिलाती रहे
प्यार हमारा फले-फुले
सबकी खुशियां देख कर
हम भी मुस्कुराते चले
अपने तो अपने होते
वैर भला हम क्यूँ करें
इस जहाँ मे प्यार ही
प्यार से अमर रहे
दिल के घाव भी हो तो
मरहम भी हम करे
हर गम भुला के
दिल-दिल से सब जुड़े रहे
रुख मोड़ हालात की
जिंदगी भी चल पड़े
उलझनों की दीवार को
मिल कर हम गिरा सकें
छोड़ धुप की सितम
जिंदगी को छाँव मिले
तनहाई जो कभी मिले
रुबरू भी हम रहे
आँख मुंद जाए तो
फिर कहाँ कौन मिले
संबंध के दरख्त तले
छाँव-छाँव सब पले।
***************
पल-पल..!
पल में मिलना और बिछुड़ना
पल पल ये कहानी मन का
क्यों तु इतने भ्रम है पाले
उन यादों से दूर निकलना है
अब और नही तड़पना है
पल पल तुमने स्वप्न भरे
इंतजार जो रहता है
तस्वीर अलग सी थी तुम्हारी
सजाई थी कई हिस्सों में
कब तक तुम यूं भटकोगे
अपने मन को थाम लो तुम
उड़ना चाहे मन का पंछी
क्या करें कुछ मजबूरी थी
जख्मों की कुछ कहानी थी
दिल में किसी के रहना तो
यू न इसे बाजार करो
तुम्हारी नजरे कहती थी
हमने वो सब समझा था
अपनी जिद न अब बढाओ
दिल की लगी को थाम लो
ये तो खिलता वो मोती है
जो हर दिल मे रहती है।
***************
जीवन पथ पर चलते जाना
अनवरत नित्य बढ़ते जाना
चलना ही जिंदगी है
चलती ही जा रही है
बाधाएँ तो आएंगी पथ
हौसलो संग बढ़ते जाना
रुकना नहीं चलते जाना
होंगी सामना मुश्किलों से
डट कर आगे बढ़ते रहना
चलना ही जिंदगी है
चलती ही जा रही है
उबड़ खाबड़ पथरीले राह
कंटीले झाड़ी हो या पर्वत ऊँचा
उतार चढ़ाव की जिंदगी
चलना ही जिंदगी है
चलती ही जा रही है
थक हार न जाना बैठ
मंजिल को पाना लक्ष्य हमारा
इसे कभी न खोना पथ
आगे ही बढ़ना ध्येय जीवन का
गिर कर सम्भलना फिर उठना
धूप छाँव सी है जिंदगी
चलना ही है जिंदगी
चलती ही जा रही है
************
उम्र की चाहत..!
कुछ पाने की उम्र भी
कुछ खास होती है
तमन्नाओं ख्वाहिशों की
एक चाह होती है
कब न जाने कोई दुआ
कैसे कुबूल होती है
अगर वक्त ही बीत जाए
दुआ फिजुल होती है
मन की कोठरी में
गर छाया रहे अंधेरा
बाहर की धुप भी
तीर सा चुभ जाता है
गीली मिट्टी सा मन का होना
बोझिल सा लगता है
बारिश की बुंदे
जब गिरे धरा पर
सोंधी खुशबू भी
न भाती है
चाहत बहुत रहती अपनी
मै भी बिचरु समुद्र किनारे
धारा को बहते देख कर अपनी
सुध बुध अपनी खोऊँ मै
झरने की कलकल हो
या पर्वत की हरियाली
जिंदगी इतनी मशगूल हुई
बेमानी सब बात हुई
हर खुशियों की बसुली
किश्तों में नजारे तीखी शुल हुई
उस उम्र की चाहत थी
कुछ ऐसा पा जाने की
कोई दुहाई काम न आई
सितम वक्त का था कुछ ऐसा
किस्मत के मारों का
कब दुआ कबुल होता है
गर वेवक्त हो भी जाए
वो फिजुल ही हो जाता है।
आँखें..!
आँखें जब बोलती है
मन के भाव को खोलती है
दिल के राज को तौलती है
हँसती आँखें भी रोती है
रोती आँखें भी हँसती है
आँखों से आँखों का मिलना
दिल के बातों को समझाना
इन पलको में छुपे होते राज
तकती है राह खोए हुए सपने
दिलों के जज्बात को यूं तौला नही करते
दिल से दिल की बात कभी छुपा नही करते
भावों को यूं न अपनी रखो जकड़
कह दो अपनी बात न अब देर ठहर।
************************
क्रुरता..!
कितनी क्रुरता भरी है तुममें
नोचं नोंच कर खाए तन मन
कहते हो र्वचस्व है हमारा
फिर भी हरते नारी तन को
जब भी देखते नारी तन को
जगती है पशुता अंदर तेरे
क्रुर पिपासु मन तृप्त हुआ
तब उतरते नीचता की हद
झुठा तेरा अभिमान पुरुष
लश्कर लेकर हमला करते
तुझ जैसा है कायर कौन
शर्म करो तुम नर कहलाते
हड्डियां तोड़ी जीभा काटी
हर अंग से लाचार किया
जीवट तन जो नारी की
दर्द सहना ही ताकत उसकी
इसलिए इतना क्रुर बने तुम
वरना जिसने तुझको जन्म दिया
कर सकती है संहार तेरा
हर वो जननी शर्मशार है
जिसने तुझको इतना मान दिया
डर तुम्हारा दिखता है कितना
कर जाते तुम हर हद को पार
शर्म करो अपने पौरुषता पर
जब जुल्म दिखाते नारी पर
तेरी करनी का भार धरा भी
देखो अब न सह पाई वो
पास बुला ले गई अपनी बेटी
हर अंग की पीड़ा हरने को।
********************
चिरहरण..!
नारी तार -तार हुई हर बार
पुरुषत्व की बलिवेदी पर
तौलते रहे अपनी कसौटी पर
खरी खरी न हो पाई थी
तेरा हल बल चल न पाई थी
हर युग में परीक्षा नारी की
लेते रहे है बनके युगपुरूष
वो खुद ही क्यूं नही देते
ऐसी परीक्षा कोई कठिन
हर बार हाथ फैलाए रहते
नारी रुपा नारायणी के आगे
पर सुनो नारियों खुद जगो अब
कोई कान्हा न शेष बचा
भरे पड़े है दुस्शाशन यहाँ
करते रहेंगे क्षरण हरण वो
दरिंदगी का अब करो हिसाब
कर डालो खुद उनका संहार
मत बनो अब द्रौपदी तुम
न पुकारो मोहन को अब
अपनी रक्षा स्वयं करनी हमको
निर्भरता को त्याग चलो अब।
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परछाई..!
परछाई मेरी मुझसे ही खफा खफा मिली
कितनी तन्हा थी वो तन्हाई में मिली
कभी गैरों पे कर भरोसा किसी ख्वाब सा मिली
चंद बातों मुलाकातों की सिर्फ रुसवाई मिली
न कोई अंदाजा न कोई पैमाना जिन का
हम कहीं खोए हुए से कभी गुमनाम मिले
कितना फरेब में मशगुल जमाना बदलते रंग मिले
हमको हमेशा एक वेकसी सी वफा बेरंग मिली
जमाने ने बदले अपने रंग किश्तों किश्तों में
हमने भी कई अपने जख्म भरे पन्ने पन्ने में
सब के सब अपनी ही ख्याल पुरकश कर रहे
कौन कहाँ किसे परवाह जख्में मरहम कौन करे
अपनी ही भ्रम से जागे जल्द जो उसनें जगा दिया
अच्छा हुआ टुटा भ्रम समय रहते र्पदा जो हटा दिया।
********************************
दरकते संबंध..!
दिल के संबंधों को न तार तार करो
अपनेपन की आहट से
सदा इसे गुलजार करो
कड़वे लफ्जों से यूं न संबंध दरकाओ
प्यार के दो शब्द से इसे निभाओ
कौन कब तक यहाँ टिका स्वीकार करो
न रोक रखो अपने मन के भावों को
गुप्तगु की गुजांइश से बात आगे बढाओ
संबंधों की नींव में न कोई सेंध लगा पाए
ऐसी कोशिश करनी होगी जो इसे टिकाए
दरकते संबंधों से कहां किसका होता भला
हर घर परिवार को खिलाने मे संबंध साथ सदा
अपने ही अपनों को क्यों खटकने लगते भला
गैरों की हवा से क्यों सुलगा करते गिला
संबंध हमेशा यूं ही जन्म जन्मांतर चली
फिर क्यों अपने अपनों के काटे गला
खीचांतानी के इस मंजर मे किसे क्या मिला
प्यार की डोर से बंध कर प्यार ही मिला
हम और र्सिफ हम की कैसी ये ब्यार बही
सब कुछ बिखर गया संबंध बहा गयी।
*************************
वक्त..!
चले थे कभी जो हमकदम
रास्ता तो वही रहा होगा
कभी जो काटाँ मुझे चुभा
वो तुझे भी तो चुभा होगा
जख्मों में मिला था जो मरहम
गुजरते वक्त का ही रहा होगा
ऐसे ही नहीहोते चेहरे रौशन
कोई नुर तो शामिल रहाहोगा
जमाने की ठोकरें थी खाई
वो शख्श कितना मजबूर रहा होगा
मंजिल के लिए चले जाते थे
सफर वो कितना लंबा रहा होगा
साथ रहने की खाईं थी कसमें
बिछुड़ने पर तन्हा रहा होगा
मिलकर जो आँखें भर जाती
साथ छुटने पर कितना तड़पा होगा।
***********************
जिंदगी..!
जिंदगी की पहेली अलग-अलग सी
कभी बिखरती कभी है खिलती
खुशी भी इसमे दुख भी मिलती
चलती जाती है जिंदगी
दिन भी होता रात भी होती
जिंदगी की अपनी छाया
गुम हुआ जो इसका साया
न मालूम कहाँ खोया पड़ा
देखा तो अपने साथ खड़ा
हलचल कोई अनजाना सा
निहार रही थी जिंदगी
कोई दस्तक दे रहा था
होशो हवाश था गुम हमारा
अवाक खड़ी थी जिदगी
जिदंगी फुलों सा कोमल
बन जाती है बगियाँ सी
काटें जैसा राह कटीला
उलझ कर रह जाती यह
पतझड़ सावन और बसंत सा
नदियां जैसा बहता जाता
जिंदगी की अबुझ पहेली
संग-संग चलती यह पहेली।
*****************
नारी..!
नारी जीवन पग-पग ज्वाला
मन भी लहका तन भी सुलगा
सुनो संसार के भ्रमित मानव
नारी नही कोई तुच्छ सामान
क्यों समझे कोई नीरिह प्राण
जीवन रथ पर चलती पथ पथ
चलती है जैसे पाँव पाँव
कदम कदम पर रही जरूरत
फिर क्यों होती ऐसी फितरत
बिन नारी यह जग मशान
घर की नारी क्यूं कोई सामान
विनती करते क्यू मंदिर मे
दुर्गा काली को शक्ति मान
तुम क्यों टेके अपना मथ्था
नारी अपने घर की धुरी
हर वचन को करती पुरी
त्याग कर अपने सब सपने
करती है नारी बड़ा बलिदान
सबको खुश करने की कोशिश
करती रहती है सबका ध्यान
अपने बाबुल की बगिया छोड़
देती अपने कर्तव्य को मोल।
*************
हैसियत क्या है
पहचान है ये सबका
इंसान खिलौना है इसका
कितनी दौलत किस के पास
कभी उछलती कभी बदलती
अनोखी है इसकी तस्वीर
ये छलती है लोगो को
हैसियत आँखों मे पलती
सबके बस की बात नही
किसी की यह तकदीर बनी
किसी के लिए तकरीर
रंग दिखाती नई नई
हैसियत भावों मे पलता
रहते किसके कितने पास
हैसियत से ही मानव मन
तौलै अपनी पुरी जमात।
*********************
जुर्म ए उल्फत की सजा
दीवानों ने पाई है हरदम
बडे़ नादान लोग यहाँ पर
हवा जो देते है शोलों को
वफा उनकी राह ए मुहब्बत
हर युग में समाई सी
ये तख्तों ताज को नही मुहताज
चाहत को न नाप तराजू से
खरीद सका न कोई खरीददार
झुकी नही कभी किसी सितम से
इश्क करने वाले जानते है
इससे बढ़कर दुजा कोई नहीं खुदाई
दीवानों की अलग ही बस्ती
कहाँ इनको कोई भान है रहता
अपनी धुन में मगन दीवाने
संसार से कुछ चाह कहाँ।
********************
अपनी उलटी-पुलटी बातों से,
अपनापन सा रहने दो..!
एहसासों की तंग गली में,
कुछ नमी तो रहने दो..!!
गुजर जाँऊ कभी उस गली से,
अपनी नजरें तो उठने दो..!
कह दो अब जो कहना है,
क्यों बाकी सब रखना है..!
संग चले थे साथ तुम्हारे,
ये भ्रम तो रहने दो..!
एक विश्वास की डोर जुड़ी थी,
उसको जुड़ कर रहने दो..!
पल-पल बसते इन आँखों में,
ये स्वप्न तो रहने दो..!
नही भुलोगे तुम कभी,
ये गुमान तो रहने दो..!
हर किसी की तस्वीरों को,
सिर्फ तस्वीर ही रहने दो..!
अब न उठेगी पलकें मेरी,
ये मान तो रहने दो..!
" सपना " हकीकत हो न पाई,
ये ख्यालात तो रहने दो..!!
*****************
आवाज..!
आवाज वो आगाज है
झंकारे भरती है
निरिह प्राणी की आवाज
करुणा बन जाती है
मन के भीतर उठती आवाज
वेदना बन जाती है
हँसता हुआ कोई चेहरा
खिलखिला कर उठती है
कोयल गाए अपनी राग
मनमोह लेती है
भाव भरा कोई आवाज
अपनापन लाती है
सिसकियों की हो चीत्कार
हृदय भेदती है
बीना पर जब छेड़े तान
मधुर धुन बन जाती है
बच्चे की किलकारी सुन
मन खिल उठता है
आवाज जब विद्रोह बने
संग्राम लाती है
कुंठा,व्यथा की भी ध्वनि
झकझोर जाती है।
********************
दौलत से लोग आबाद कहाँ
जिंदगी की प्यार जरुरत
चंद लफ्जों से प्यार आबाद
सबके दिलो में रहना हसरत
यही है मेरी अंतिम चाहत
चार दिनों की जिंदगी है
कर लो प्यार से बातें चार
हद अमीरी से बेहतर है
मुफलिसी है हमारी
चंद सिक्को की खनखन में
खो जाते है सब यहाँ
मखमली नहीं है बिस्तर
पर सोने जैसी नीदं है
अपनी तो है चैन की रातें
पर कुछ क्यूं यहाँ बैचैन है
**********************
घर तभी घर होता है जब
रिश्ते उसमें पलते है
अब तो सिर्फ मकानों के
इंसान उसमें रहते है
अब वो परिवार कहाँ
जहाँ होती थी बातें चार
बड़ों का साया खत्म हुआ
सिर्फ छत की ही साया है
बड़े बुजुर्ग सामान बने
कोई कोना ही उनका है
जहाँ दुआओं की थी जरूरत
अब वो बेकार बातें लगती है
एहसासों के धागे बुनकर
परिवार पिरोया रहता था
भली थी जो मिट्टी गीली थी
परिवार पकड़ कर रहती थी
पक्के मकानों मे अब हमेशा
फिसलन ही चलती रहती है
संस्कार और मेल मिलाप
जैसे कोई सुंदर सपना अब
अपनापन और विश्वास
दोनों ही कबके गौण हुए
घर की चमक बढ़ाने को
आतुर रहते सब यहाँ
दिखावे की दौड़ में
अनदेखे कितने लोग हुए
चमकती दमकती दुनिया का
अब यही बड़ा दस्तूर है।
*******************
सोने की चेन..!
मां,तुम्हारे पास दो सोने की चेन है। एक चेन मंजरी को दे दो।
बेटे की बात सुन मां गुस्सा कर बोली, क्या बोला, एक चेन दे दूं मंजरी को, होश में हो न।
हां मां,बिल्कुल होश में हूं और सही बात बोल रहा हूं, सुधांशु ने कहा।
तुम्हारे पिताजी के गुजरे पंद्रह साल हो गए। अभी तक तुम नौकरी के लिए कोशिश में हो। । मंजरी की शादी हुए पांच साल हो गए हैं।
दामाद को अपने परिवार की चिंता नहीं है..?
मां, पिताजी की जब मृत्यु हुई थी, मंजरी दस साल की थी। मैं पंद्रह साल का। विपरीत परिस्थिति में तुमने घर परिवार संभाला। आज मंजरी को दो कट्ठा जमीन खरीदने के लिए चेन दे दोगी तो तुम्हारा ही नाम होगा।
और तुम्हारी शादी के लिए रखी चेन मंजरी को दे दूं।
मां पिछले पंद्रह साल में मैं बहुत सीख चुका हूं। कोई सहारा नहीं था, किसी ने मदद करने की बात तो दूर सलाह तक नहीं दिया, नहीं तो, मैं मंजरी की शादी के लिए और कुछ वर्ष इंतजार करता। जो हो गया, उस पर सोचने या पछतावा करने से अच्छा है वर्तमान को सुधारा जाए। अगर मंजरी को अपनी जमीन हो जाती है तो एक दो साल के अंदर अपना मकान भी बना लेगी, सुधांशु ने कहा।
अभी तक तुम अपने पैरों पर खड़े नहीं हो । उम्र तीस हो चली है। अपने भविष्य की चिंता नहीं है..?
मां अगर पिताजी जिंदा रहते तो मंजरी की चिंता मुझे नहीं करनी पड़ती। मेरे भविष्य को तुमने बना दिया है मां। मेरी पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाएगी।
ठीक है तुम्हारी बात से दे देती हूं, लेकिन मैं अब इंतजार नहीं करूंगी। बहुत अकेलापन लगता है। हमें बहू चाहिए। बड़ी नौकरी अगर नहीं मिल रही है तो सुप्रिय जैसा बैंक का क्लर्क की नौकरी का प्रयास करो..।
मैंने फॉर्म भरा है मां। जरूर सफल रहूंगा इस परीक्षा में।
भगवान करे, मेरी इच्छा पूरी हो। नहा कर मैं आलमीरा से चेन निकाल कर तुमको दे दूंगी।
**********************
एक बार तो कह दो न..!
चाहत मेरी खलती है अब
तेरे दिलो दिवार में
तुम ही राहत तुम ही चाहत
एक बार तो कह दो न
दिन न ढलता सुबह न होती
सब कुछ है सुना सुना सा
अलसाई सी बोझिल सी है
एक बार तो कह दो न
नैनों मे अश्क भरा है
मन की धारा अतृप्त है
राहत मिल जाए दिल को
एक बार तो कह दो न
अंर्तमन में उठती पीड़ा
द्वंद भरा ये शोर है
अधरो से चाहे कुछ न बोलो
नैनो से ही कह दो न
एक बार तो कह दो न
एक बार तो कह दो न।
*****************
!!..हिन्दी दिवस..!!
हिन्दी है सर्वोत्तम अपनी
जो हिन्द के माथे की बिंदी
हिन्दी से हिन्दुस्तान है शोभित
पहचाने है जग सारा
शिशु के कोमल अधरो पे
या पशु की करुण पुकार
पहला शब्द माँ होती हैं
राष्ट्रभाषा है हिंदी हमारी
गोरव है यह निजमान का
सभ्यता और संस्कृति भी
हिंदी से ही परिपूर्ण है
विविधताओं का देश हमारा
अलग अलग है भाषा इसकी
जनमानस की संचार है हिंदी
सब भाषाओं की सिनमौर है
इसने कितने हिरे को पाला
सरस सरल यह अपनी भाषा
माध्यम है अभिव्यक्ति का
अमृत जैसा रसपान है
पश्चिम की भाषा को अपना
हम सबने अपमान किया
भेंट चढ़ा दी अपनी हिंदी
अपनी सभ्यता को भुलकर
अनपढ हो या शिक्षित
सबपे इसका उपकार है
अपनी भाषा हिंदी को हम
प्राणों से ज्यादा प्यार करें
असतित्व बचाकर इसकी
अपनी माँ का सम्मान करें।
*********************
जिंदगी क्यों सताती हो मुझे
इतना करम तो तु कर दें
जब भी निकले आँखो से आँसु
थोडी सी हिसाब कर दे
सपने भी क्यूं जगाती आखिर
जब तोड़ना ही जानती है
कैसे हो ख्वाबों से नाता
तड़पना ही हमेशा है
क्यूँ तड़प कर जिए जिंदगी
तेरी दिल्लगी पुरानी है
किसी गरीब का न तु अपना
अजाब बनी रहती है
उसे ही खुश रख सदा जो
तुझे हमेशा खरीद सके
कहते सब है यहाँ
चार दिन की जिंदगी ये
फिर क्यूं है बदहाल
ये चार दिन की जिंदगी
जिंदगी का अर्थ र्सिफ यहाँ
अगर दर्द ही दर्द है
घुटन ही घुटन भरा
जो है चार दिन की जिंदगी।
पहेली..!
जीवन सदा अबुझ पहेली
बनकर आती है सदा
समझने की तमाम कोशिश
होती है नाकाम सदा
करती है मनमानियां वह
बन कर खुद पहेली
हर शब्द का शब्दार्थ नहीं
जो समझ आए हर पहेली
जिंदगी की अटुट सहेली
बन कर रहती है पहेली
सवालों का सवाल है यह
बनती अनबुझ पहेली
कभी खट्टा कभी मिठा
हर स्वाद से भरी पहेली
कभी हँसाती कभी रुलाती
अलबेली है ये पहेली
कब किसे किस रुप मिले
उलझी सी ये पहेली
पल पल अपना रुप बदल
मिलती है नई रुप पहेली
पहेली की होती अपनी पहेली
खेल दिखाती ये पहेली।
***************
चेहरा..!
हर चेहरे के पीछे चेहरा
कौन है असली कौन बताए
सबकी है अपनी उजली कुर्ती
पर कुछ की है कॉलर काली
कितने इतराए फिरते है वह
करतुत की परतें इतनी मोटी
शील हो जाती तन की चमड़ी
लोक लज्जा का न कोई भय
भावनाओं के है वे सौदागर
आपस में सबको तोड़ कर
अपनी रोटी वो सेंकते फिर
आँसुओं से खेलने वाले लोग
किया सियासत लोग बँटे
चलते अपनी गहरी चाल
सीधे साधे लोग ह़ै फँसते
फेंकते है ऐसे अपनी जाल
चक्रव्यूह सा रच देते वह
निकल न पाते छोटे लोग
उनकी ही लाशों पे अपनी
खड़ी करते है ऊँची मीनार।
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गरीबी..!
नंगे तन पर रोटी फेकें
तस्वीरों पे लाखो पैसे
भुख रोती है सड़कों पे
और हँसती है तस्वीरों में
मजाक उडा़ते भुख का
दीवारों में टांग कर
महँगे फ्रेमो मे जड़ती जब
हसीन दीवारे सजती है
कोई रोटी को तड़पे
कहीं ये फेंकी जाती है
कहीं दिखावे मे सजती
रोटी केवल थालों में
जहाँ इसकी खुब जरूरत
इंसानों को न मिलती है
गरीब तुझे क्या खरीदे
बड़ी कीमत तेरी होती है
अमीरों की शान बढ़ाए
कितनी सस्ती होती है
रोटी की कीमत वो ही
जाने जिनको न मिलती है।
*****************************
सच्चाई..!
सच बोलना गुनाह है तो गुनहगार हैं हम
र्जुम है ये अगर तो सजावार भी हैं हम
कल तक सच के साथ जीते थे लोग
आज सच जीता है चंद लोगों के संग
सुना था सच चलती है चंद पन्नों से
आज पन्ने वाले ही बिक जाया करते है
पहले लिखा जाता था तब बिकती थी
आज बिक जाती है लिखने से पहले
सच अना परस्त है तो खुद्दार भी है
बिकने वालो तुम इससे बेखबर हो
सबने झुकाने की कोशिशें बहुत की
मगर खुद टुट गए पर झुके नही हम
वो हम पे हँसे तो हँसने दो " निर्भय "
कम से कम औरों से अलग पहचान रखते है हम
सच परेशान होता तो है हारता नहीं कभी
अपनी पहचान से अलग नहीं हैं कुछ कम
इजहार अपने गमों का नहीं करते हम
दुनिया से छुपाकर कहकहे लगाते हम
इस दुनिया के सामने अदाकार है हम
मौका नहीं देते औरों को हँसने का हम
****************
जीवन..!
ये तन है माटी का
माटी में मिल जाना है
एक दिन इस संसार से
हर शै को मिटना है
जीवन का है ये फसाना
बस चलते जाना है
धुंध से जो निकली राह
फिर वापस जाना है
ये राज समझते हम
फिर क्यों रोना है
पल भर का चोला ये
हर क्षण बदलता है
खुली पलक में हस्ती
बंद,मे खो जाना है
ये रीत है दुनिया का
सबको निभाना है
इस राह पें चलके
हर राही को जाना है
कई मोड़ सुहाने आऐंगे
पर न कोई बहाना है
इस खेल में लोगों को
खिलौना बनना है
सदियों से खेले खेल
वो बड़ा खिलाड़ी है।
******************
शिक्षक..!
शिक्षक दिवस 5 सितंबर
राधाकृष्णन की जन्मतिथि
शिक्षाविद वो बड़े महान
करते रहे अध्यापन सदा
बडे़ सम्मान की यह तिथि
सब है मनाते शिक्षक दिवस
मानवता का पहली सीढ़ी
माता-पिता से शिक्षा मिलती
फिर छत्रछाया शिक्षक की
गीली मिट्टी सा होता बचपन
बन कुम्हार दिया आकार
बड़ी सुघड़ता से रचते मन
अनुशासन का पाठ पढाते
जौहरी बनकर हीरा तराशा
उचित अनुचित का भेद बता
करते उपकार जीवनभर का
व्यवहारिकता का पाठ पढा़या
बाँट शिक्षा करे राष्ट्र निर्माण
जगाकर अलख शिक्षा का
महत्व बताते बन पथप्रदर्शक
उच्च शिखर पर पहुंचाते वो
सदा सच्चाई का राह दिखाते
इस धरा पर फरिश्ते का रुप
थामे हाथ सदा जीवन का
ऋणी है सदा यह मानव
शिक्षक से पाते अक्षरज्ञान
अच्छे जीवन की लिए कामना
सदा करें शिक्षक का सम्मान।
********************
कलम..!
कलम की ताकत बहुत बड़ी
करती है जब अपना वार
अच्छे अच्छे को जब लपेटा
करके अपना प्रचंड प्रहार
कलम से निकली हर बात
जीवन में देती बडा़ प्रभाव
इसकी जद में जो भी आया
वो माँगे पानी, किया त्राहिमाम
मच जाता है बड़ा वबाल
करती है लेखनी जब कमाल
लेखनी ने हर युद्ध लडा़
पकड़ कलम वह आगे बढ़ा
वह हर कदम अपनी चाल
न आगे न पीछे चलता
एक कलम ने दिया सँवार
तो कहीं इसने किया प्रहार
मामुली नही है ताकत इसकी
इसकी छवि पे मत जाना
आगे फिर होगा पछताना
व्यंग,कविता ,आलेख,कहानी
हर शब्दमाला से जुड़कर
खुद कहती है अपनी कहानी।
**********************
चिरैया..!
घर आँगन की शान चिरैया
सुबह की आहट बतलाती वह
चूं चूं ची ची करती शोर मचाती
फुदक फुदककर इस उसडाली
चहकती जाती बडे़ मजे में
जब बिचरती वह अंबर में
लगती कितनी छटा निराली
घर की बेटी और चिरैया
दोनों ही बिछुड जाती एकदिन
घर आँगन को सूना छोड़ कर
चली जाती है वह रोता छोड़
वो भी कहाँ खुश रह पाती
तिनके चुन चुन नीड़ बनाती
चुजे आने तक बैठी रहती
चुजे आए कोलाहल हूई
भोजन लाने की पारी थी
बढ़ते उनको देख चिरैया
मंद मंद मुस्काती रहती
निकल गए पर उड़ गए चुजे
न ली उसकी कोई सुध
नीड़ में बैठी रोती चिरैया
अपने मन ही मन ये कहती
अच्छा था जो बच्चे थे
क्यों बच्चों के निकले पर
क्यों बच्चों के निकले पर।
**********************
जज्बात..!
दिलों के रिश्ते यूं ही चलती
रहनी चाहिए
जज्बात का कोई पौधा हरा-भरा
रहना चाहिए
हर रिश्ता खरा सोना तपकर
निखरना चाहिए
बाँध कर रिश्तों की डोर गांठ
नही लगाना चाहिए
प्रेम-सर्मपण से सींचा हुआ पौधा
सदा लहलहाना चाहिए
आपस में बनाकर विश्वास अटुट
प्रेम निभाना चाहिए
खुशियाँ सदा भरी रहे निरंतर
प्रयास रहना चाहिए
सुख दुख की अनुभूति में
साथ चलना चाहिए
मजबूती से हर लम्हा
पकड़ बनानी चाहिए
शिकवे शिकायत भीं जिंदगी
का हिस्सा होना चाहिये
यही तो वो जज्वात हैं जो
सबमें होनी चाहिये
गुजर गया जो बुरा वक्त
उसको तज देना चाहिए
आती जाती सासों को भी
महसुस करना चाहिए।
**********************
कर्मस्थली..!
कर्मस्थली से होती
मानव की पहचान
कर्म से नहीं बढ़कर
कोई और स्थल है
सरोकार, संबंध और
विनम्रता है जहाँ
कर्म धर्म से श्रेष्ठ जहाँ
बन जाता र्स्वग वहाँ
प्रेम भाव से कर्म बढ़े
परोपकार और सहभागिता
श्रेष्ठ बिचारों का संगम
कर्मस्थली का है बंदन
सब मिल कर बढ़ चले
मानवता की पराकाष्ठा
मंदिर, मस्जिद सब यहां
गूरूद्वारा और चर्च यहां
सब धर्म के लोग जहाँ
कर्म अपना करते है
तन का भी होता तरपन
मन भी संगम होता है
ऊंच नीच का भेद मिटा
अपने पथ पर चलता चल
कर्म ही है सबकी पूजा
कहलाता कर्मस्थली है।
*****************
हद..!
अपने आप में रहकर
औरों का जीवन जीना
मैं खुद के लिए हुं या
लोग के लिए ही बनी
मै और लोग के बीच
बंधी पाँव की बेडिय़ां
जकड़ लेतीं हैं सोच
"लोग क्या कहेंगें"
अनदेखा सा जीवन
और उलझी सी जिंदगी
मन कहता है लाँघ जाओ
तोड़ पाँव की बेडियां
क्यों जी रही हो तुम
वजुद से अलग जिंदगी
पर दिल कहता है
पल भर के लिए तो सोच
तुझ से जुडी़ है कई
अपनों की जिंदगानीयां।
*******************
आशियाना..!
देख उजाला परिंदों ने
शोर मचाया भरपूर
शायद कोई शहरी शिकारी
आया जंगल की ओर
जिस डाल पे था बसेरा
पेड़ को काट उजाड़ा
आशियाना उनका
जिस्म से जान अलग
छिन गया उनके सर से साया
जगह तलाशी बैठने को
उड़ आए शहर की ओर
बिजली के तारो का जाल
थकहार कर बैठै उस पर
याद सताई जंगल की
चल पड़े वो उस ओर
काँटे चुभ गए पैरों में
हो गए लहुलूहान
इंसानों के फितरत पे हँसते
घर किसी का समझ पराया
कर दिया उजाड़
कभी यहां जश्न मनाते
अब कौन किसका सहारा
इंसानियत बची नही
नोचं दिया आशियाना
अपनी जीत को उडेल
शराब भरा जाम लिए
बुझाने अपनी मृगतृष्णा को
सोच ,समंदर पी गया।
********************
साधना..!
अपने लक्ष्य को वह पाता
जिसका ध्येय है साधना
मेहनत करनेवाले कभी
भी नही कर्महीन कहलाते
साधना है छात्र जीवन
साध कर ही आगे बढ़ते
नये नये सुर का सृजन
जहाँ होती संगीत साधना
नित्य सुरों को छेड़कर
पुरी करते है साधना
कलमकार की लेखनी
अधुरी बिन साधना
भावहीन बनी लेखनी
करते नही अभ्यास
अंदाजे बयां कलम की होती
धड़कता है दिल जहाँ
छेड़े कोई नया तराना
बेकार होती बिन साधना
ईश्वर भी सुनते विनती
भाव विहल हो जाता
समर्पण भाव से भरा
सिद्ध होती साधना ।
*********************
आदमी..!
आलीशान इमारतों के बीच
यूं खडा़ था आदमी
ढूंढता फिर रहा छाँव
थक कर हारा आदमी
रास्ते पथरीले उबड़-खाबड़
छाले पाँव में लिए
अपनी ही तकदीर से
उम्रभर लड़ता आदमी
हादसों की लहर बही
धुआं-धुआं सा आदमी
खुद को बचाने के लिए
मार फिरता आदमी
मन सुलगा तन सुलगा
फिर भी चुप है आदमी
अपनों के घर जलाकर
भीड़ जुटाता आदमी
जब आया वक्त अंतिम
शिकवे क्या करें भला
मौत की गिरफ्त से
घबड़ा गया था आदमी
ताउम्र बीती रंगीनियों में
मार पड़ी किए गुनाहों की
पछताने को क्या बचा
सांसे अंतिम गिनता आदमी।
********************
जीवन..!
क्या भूलुं क्या याद करुं
अनोखी कहानी जीवन की
उठते मन मे कई नये सवाल
भावनाओं का बहता संसार
बचपन बीता हुआ शुरू जंग
क्या भूलुं क्या याद करुं
नये सपने थे जीवन आरंभ
गिरते संभलते उठते कदम
अपनो का था साथ मिला
गैरों ने भी हाथ बढाए
चलता रहा पथ अपने कदम
क्यूँ फिर भी दुखी हुआ मन
रहा कुछ मलाल जीवन का
क्या भूलुं क्या याद करू
चाह नहीं बढ़ता ही जाऊँ
ठहराव कही मिले जीवन का
मंजिल ही आधार परम का
अंत नहीं आरंभ है जीवन का
तन क्षिन्न होता जाता नित्यदिन
मन का वहाव कहाँ रुकता है
नित्य नये सवालो से सामना
मन ही मन घुमड़ता है
कभी बगिया सा जीवन है
कभी काँटों भरा उलझन
क्या भूलुं क्या याद करूं।
*************************
हमारा प्यार ए इजहार गुलाब न था
वरना हर माली से सबका याराना होता
वक्त के सितम से जो रूक गए हम
अपनो के बोझ से जो झुक गए हम
अदब प्यार की थी जो बगाबत नही की
सबकी खुशियों के लिए हुए र्कुबान हम
तुम अपनी डगर चले मै अपनी चली
रास्ते अलग हो गए तो क्या हुआ
हमारी तुम्हारी दिल्लगी आज भी जिंदा है
न वादों का न खिताबों का
हमे ऐसी कोई अरमान नही है
बस अगर कही मिल जाना तुम
देख नजरें अपनी हम झुका लें
यही हमारी प्यार की आबरू।
******************
वो जमाना याद आया..!
वो जमाना याद आया
जब बचपन खेला करती थी
किस्से कहानियों में जीते थे
कितने गोद हुआ करती थी
कब हुए बड़े न पता चली
पीछे छुटा हर वो लम्हा
वो जमाना याद आया
धमाचौकड़ी करते हम
करते थे कितने शोरगुल
कुछ नही था छल कपट
अपने मर्जी के मालिक हम
कभी रुठना कभी मनाना
सारे मिलकर रहते हम
भाई बहन से भरा संसार
छुट्टियों का करते इंतजार
आपस में होती कितनी बातें
न रहा अब वो जमाना
सिमट गये सब लोग यहाँ
अपनेपन से दूर हुए
न बच्चों का बचपन है
न बड़ों का मान सम्मान
जितनी दूरियां कम हुई
अपने सब सिमटते गए
रिश्तों का न अब कोई मोल
दिखावे को जीते अब हमसब
बनाबटी का दौर चला
वो वेफ्रिकी भी कहाँ रहा।
**************************
सियासत..!
जाने क्यूं इस जमीं पे
बेबसी का आलम है
गर खार मे मिलनी है हस्ती
चले नेकी के रास्ते हम
कदम कदम नक्शे कदम
काफिला जो बढ़ चला
चाँद सूरज भी साथ चले
हवा का रुख बदल गई
चंद हाकिम जो हमारे
मयकदा में नाच रहे
थाम प्याला जाम का
मदमस्त हो डूब रहे
आबरु को रख गिरबी
सियासत दानों के भी
तलवे सहलाते रहे
सत्ता पर बैठै लोग
अपनी रोटी सेंक रहे
सियासत की आड़ में
मजहब से खेल रहे
इतनी हूनर रखते हे ये
खुन को भी बाँट रहे
अपनी हुरमत बचाने को
चलते सियासी चाल हैं
भावनाओं की जमीं पे
लाशों की तह बिछाकर
करते कई दिबार खड़ी
दफ्न हो जाते है कई राज
सत्ता के मदहोश में।
*******************
गणेश/बिनायक/लंबोदर..!
हे गणपति, गौरीनंदन
देवों के भी देव तुम
माता के रक्षक तुम
द्वारपाल बन अडिग रहे
शिवशंकर को रोक दिया
ऐसी तुम्हारी अखंड प्रण
कोपभाजन तुम बन गए
शिव की प्रचंड कोप का
कटा शिश गिरा धरा पर
माता बिक्षिप्त हो उठी
माता ने भी किया प्रण
शिवशंभु भी हिल गए
गज का शीश लगाए
गजानन तुम कहलाए
मोदक है बहुत प्रिए
भोग लगाए सब तुम्हें
बुद्धिमता के सिद्धपुरुष
कार्तिकेय भए पराजित
त्रिचक्र से तोड़ दिया
घमंड पर विजयी हुए
र्सवप्रथम पुजित हो तुम
सवकार्य सिद्ध किए
रिद्धि सिद्धि के स्वामी तुम
विध्नहर्ता भी कहलाए
मूसक की करी सवारी
पीताम्बर सोहे बलिहारी
एकदन्त दयावंत गणपति
गणनायक चार भुजाधारी।
जय बोलो जय बोलो
गणपति बप्पा मोरया।
*****************
छायाकार..!
छायाकार का निज संसार
कल्पना का बहता ब्यार
रंगो से भरता सपनों को
तुली से उकेरा नया आकार
भावनाओं का रंग मिलाता
सपनो को भी गढ़ता जाता
बिन पंख भी भरे उडान
नित्य करे छवि का निर्माण
छायाकार की मन की चाहत
रचता जाता रंगीन संसार
छवि उकेर कहानियों की
पकड़ सपनों का संसार
कभी तस्वीरों में डाले जान
नदियां भी कलकल करती
पछियों की कलरव सुनाता
बह्मंड की अनुपम सैर कराई।
बसुंधरा की पावन छवि को
कवि मन पहुंच रचा आकार।
*************
भाद्र मास का आया पर्व
करना है पावन त्यौहार
साजन सबके दीघार्यु हो
कहते हरितालिका तीज,
चलो सखी मनाने पर्व
माँग भरो सिंदूरी रंग
खनखन चुडिय़ां हाथों की
पाँव दोनों पाजेब बजे
छमछम की आवाज गुंजे
ललाट सुशोभित बिदीं-टिका
मेंहदी लगी हाथों में
लाल जोड़ा में सजकर
ओढे हम लाल चुनर
अखंड सौभाग्य हमारा हो
आशीष मिले शिवशंकर से
पार्वती का साथ निभाया
हमको भी आशीष दें
दाम्पत्य जीवन हरा-भरा हो
सदा नेह बरसती रहे।
***********************
रमा आज बहुत ज्यादा खुश थी क्योंकि उसका बेटा राहुल इस बार की बोर्ड परीक्षा में अमन से पांच नंबर ज्यादा लाकर फस्ट डिवीजन से पास किया ।अमन और राहुल आमने सामने ही रहते थे ,बड़ी पक्की दोस्ती थी ।अमन अपने क्लास का मेहनती और होनहार बच्चा था।स्कूल की हर छोटी बड़ी कार्यक्रम में हिस्सा लेता था।इस कारण उसकी आलमारी ट्राफियों से भरी पडी़ थी।परंतु राहुल की माँ को तनिक नही भाता था। अक्सर राहुल से कहती देखो अमन के पास कितनी ट्राफीयाँ है सब उसकी बढाई करते है और एक तु है।राहुल भी कभी कभी अपनी माँ की बात सुनकर चिढ़ जाता था,वो भी अपनी पढाई में अच्छा था।बस रमा की तो जैसे कोई मुराद पूरी हो गई थी।अमन के पिता की अपनी छोटी सी दुकान थी जिससे वो अपने परिवार को चलाते थे।वही राहुल के पिता एक सरकारी नौकरी में थे।बेटे के फस्ट आने की खुशी तो थी ही साथ ही साथ अमन को भी नीचा दिखाने के लिए उन्होंने एक पाटी भी दी।बडे बडे लोग आए पर इन सब के बीच अपने दोस्त और उनके परिवार को न देखकर राहुल दुखी मन से अपनी माँ को सिर्फ नजरभर देखा और अपने दोस्त अमन को पकड़ कर लाया।अपने कमरे में ले जाकर उसे भी अच्छे कपडे पहनाकर साथ पाटी में लेकर आया।साथ मिलकर केक काटा और अपने यहां आए सभी मेहमानों से उज्जवल भविष्य के लिए आशिर्वाद माँगा।उसने ये भी बताया कि उसका दोस्त अमन किस तरह से पढाई में मदद किया करता था।उसने ये भी कहा कुछ नम्बरों के अंतर से वह अमन से आगे जरूर है पर ये भी तो उसी की देन है।राहुल की माँ ने अपनी कातर आँखों से अपने बेटे को देखा ,अपनी गलती का अहसास हो उठा था।आँखे डबडबा गई थी।उसने दोनों बच्चों को पास बुलाया और गले से लगा लिया।
*****************
तृष्णा..!
मानव मन भटक रहा
तृष्णाओं के जंगल मे
अनगिनत इच्छाओं और
भावनाओं की भूख है।
तृष्णा कभी न तृप्त होती
बढती जाती बढती जाती
कई रंग और रुप है इसके
भटके इसमे मानव मन।
कभी सत्ता कभी संपत्ति
भोग और विलासिता
कट्टरता की चरम को
पार कराती है तृष्णा।
मन का लालच बढे़
रास्ते भी बडे कठोर
इस तृष्णा मे पडकर
ढहे कितने दरो-दिवार।
फलता फुलता परिवार भी
इसके भेंट है चढ़ जाता
तृष्णा के मकड़जाल मे
रास्तों का न कोई अंत।
******************
मन..!
मन एक ऐसा संसार है जिसमें प्राणी भटकता रहता है।मन का न कोई ओर और न कोई छोर है।मन को अपने अधीन रखकर सही राह पर चलना संभव है परंतु मन के अधीन रहना हमें कई मुश्किलों को बुलावा देने जैसा है।मन ही वह ताकत और र्कमठता प्रदान करती है जो हमें एक सुयोग्य नागरिक बनाती है ।अगर हम मन में किसी बात को ठान लेते है तो उसे हम उसी उत्साह से पूरा कर पाते है। कहा भी गया है "मन के हारे हार है,मन के जीते जीत"...!
*****************************
कौन अपना कौन पराया नकाब ओढे चेहरे है
धोखे और दिखावे की बनाबट हर रिश्ता है
शहर की चकाचौंध में शीशे की दीवार भरी
सच झूठ के खेल मे सब आगे बढ़ रहे
आगे बढने की चाह लिए कत्ल करने को तैयार
फानुस बनाकर प्रेम का औजार भी रख रहे
मेरा तुम्हारा अपना पराया यही किस्से चल रही
कम और ज्यादा का रिश्ता खुन मे पल रहा
रिश्तों की आड़ में प्रेम का खंजर चला
शहद सी शब्दबाण भी गले मिलकर है चलाते
आग लगाकर रिश्तों में हाथ अपनी सेंकते
काठ की हांडी सा आज का रिश्ता
धुआं धुआं होकर फिर राख बन रहा
जीवन की कश्ती में यूं ही छेद नही होता
जबतक कोई अपना बहरुपिये का साथ नहीं देता
रिश्ते खुद अपनी मौत नही मरते कभी
कतरा कतरा तिल तिल कर मारी जाती है
*********************
गुनगुनाना है..!
किस राह चलूँ जो मित मिले,
मित के संग-संग प्रीति मिले,
कोई गीत नया फिर
गुनगुनाना है।
जीवन की डगर हो प्यार भरी,
प्यार से ही सब संसार चला,
कोई गीत नया
फिर गुनगुनाना है।
सफर हो लम्बा या डगर कठिन,
थाम कर हाथ तेरे मैं चलूँ,
कोई गीत नया
फिर गुनगुनाना है।
मिल कर बाँटे हर सुख-दुख को,
बन कर रहे सहारा एक-दुजे के,
कोई गीत नया फिर
गुनगुनाना है।
*************
देश प्रेम..!
देश हमारा बड़ा है न्यारा
शीर्ष शुषोभित पर्वत माला
कैलाश खडा, गंगा की धारा
गहरा सागर चरण पखारे
रेगिस्तान हो या चट्टान, मैदान
चारो ओर से धरा शुषोभित
अखंडता है इसकी पहचान
स्वतंत्रता का दिबस है आया
ओतप्रोत सारे देशप्रेम में
तिरंगा चारो ओर लहराया
अब न धरा को रोने देंगे
ध्वजा न अपनी झुकने देगें
अपनी धरा के रक्षक बनकर
वीर सपुत ललकार रहा
सुनो पडो़सी सीधी बात
किसी की शह मे आकर
यूं न तुम आँख दिखाओ
चलो न कोई गहरी चाल
आजादी को हमने पाई
संघर्ष और बलिदान से
देश हमारा बदल रहा
चलना न कोई चाल नई
मिट जाओगे नक्शे से
रहेगी कोई पहचान नहीं
आतंकवाद को बंद करो
मर रहे भुख ,गरीबी से
टुकडो़ पर खुद पलने वाले
रही क्या औकात तेरी
अब भी तुम संभल जाओ
राह सही तुम पकड़ चलो
माता हमारी बंदनीय है
रक्षा करेंगे हर हाल में
भारत माता के वीर सपुत
रहते तैयार न्योछावर को
आओ करे जयकार हम
भारत माता की जय हो।
************************
गुनाह..!
भावना में बह जाना गुनाह है,
भावना किसी से जताना गुनाह है।
आँखों में ख्वाबों का होना गुनाह है,
जहन में किसी को बसाना गुनाह है।
अपनों को अपनापन बताना गुनाह है,
किसी अपने को अपना कहना गुनाह है।
हँस कर गले मिलना गुनाह है,
इंसान का समझदार होना गुनाह है।
भीड़ में पहचान बनाना गुनाह है,
हसरतों से भरी दुनिया बनाना गुनाह है।
आँसुओं का नमकीन होना गुनाह है,
इंसान का बेहतरीन होना गुनाह है।
जख्मों पर मरहम लगाना गुनाह है,
इस्तेमाल नमक का रोकना गुनाह है।
******************
जन्माष्टमी..!
बासुकी नंदन,देवकीनंदन
गोकुल के नंदलाला तुम।
माता यशोदा रुप निहारे
गोपियों को मन भाए।
सबकी आँखों के तारे
कान्हा तेरे कितने नाम।
प्रेम रस मे गोकुल डूबा
इधर उधर इठलाए तुम।
माखन की चपत लगाए
गगरी मटकी फोडे तुम।
गोपियाँ जैसे सुधबुध खोए
बासुँरी के मीठे तान सुन।
प्रेम में सबको डुबो दिए
छेड़ कर अपनी रागधुन।
मीरा ने तुमको प्रेम किया
उसके तो अराध्य बने।
रूकमणि ने तुमको चाहा
पति परमेश्वर बने रहे।
राधा थी प्रेम दिवानी
कान्हा से कृष्ण बने
प्रीति से तुमको साजा
तभी तो राधे कहलाए।
*****************
कहाँ किनारा है..??
प्रभु तुमने जग बनाया
ये जग है मायाजाल
प्राणी इसमें भटक रहे
दलदल में फँस रहे
करते उल्टे-सीधे काम
मृग जैसा दौड़ लगाए
मन का किनारा कहाँ है..??
अपनों के साथ रहकर
ढुढे बाहर अपनापन
छल-कपट की नीति से
जीतना चाहे नीज मन
लालसा जीवन की चाहे
पुरी हो जाए सब आस
फिर भी किनारा कहाँ है..??
प्रभु उनकी भी तो सुनो
जो रहते तेरे सहारे है
जीवन डोले बीच मझधार
भंवर में भटक रहा मन
मोह-भरम के जाल से
अब दुर हटो पाखंड से
ढुढो कहाँ किनारा है..??
******************
हमसफर..!
नसीब से मिले हो तुम
किस्मत हमारी खिल गई।
दिल हमारा चाहे तुमको
लकीरों में चुराकर रख लूं।
बीरान पडी़ थी जिदंगी
आने से तुम्हारी, शाम सुहानी।
एक ही राह के हम मुसाफिर
क्यूँ न चलूं बनके हमराही।
कतरा-कतरा एहसास जगा
वफा रही गर हो पुरा सफर।
******************
चुल्हा,चौका और रसोई..!
नंगे तन पर रोटी फेकें
तस्वीरों पे लाखो पैसे
भुख रोती है सड़कों पे
और हँसती है तस्वीरों में
मजाक उडा़ते भुख का
दीवारों में टांग कर
महँगे फ्रेमो मे जड़ती जब
हसीन दीवारे सजती है
कोई रोटी को तड़पे
कहीं ये फेंकी जाती है
कहीं दिखावे मे सजती
रोटी केवल थालों में
जहाँ इसकी खुब जरूरत
इंसानों को न मिलती है
गरीब तुझे क्या खरीदे
बड़ी कीमत तेरी होती है
अमीरों की शान बढ़ाए
कितनी सस्ती होती है
रोटी की कीमत वो ही
जाने जिनको न मिलती है।
*****************************
सच्चाई..!
सच बोलना गुनाह है तो गुनहगार हैं हम
र्जुम है ये अगर तो सजावार भी हैं हम
कल तक सच के साथ जीते थे लोग
आज सच जीता है चंद लोगों के संग
सुना था सच चलती है चंद पन्नों से
आज पन्ने वाले ही बिक जाया करते है
पहले लिखा जाता था तब बिकती थी
आज बिक जाती है लिखने से पहले
सच अना परस्त है तो खुद्दार भी है
बिकने वालो तुम इससे बेखबर हो
सबने झुकाने की कोशिशें बहुत की
मगर खुद टुट गए पर झुके नही हम
वो हम पे हँसे तो हँसने दो " निर्भय "
कम से कम औरों से अलग पहचान रखते है हम
सच परेशान होता तो है हारता नहीं कभी
अपनी पहचान से अलग नहीं हैं कुछ कम
इजहार अपने गमों का नहीं करते हम
दुनिया से छुपाकर कहकहे लगाते हम
इस दुनिया के सामने अदाकार है हम
मौका नहीं देते औरों को हँसने का हम
****************
जीवन..!
ये तन है माटी का
माटी में मिल जाना है
एक दिन इस संसार से
हर शै को मिटना है
जीवन का है ये फसाना
बस चलते जाना है
धुंध से जो निकली राह
फिर वापस जाना है
ये राज समझते हम
फिर क्यों रोना है
पल भर का चोला ये
हर क्षण बदलता है
खुली पलक में हस्ती
बंद,मे खो जाना है
ये रीत है दुनिया का
सबको निभाना है
इस राह पें चलके
हर राही को जाना है
कई मोड़ सुहाने आऐंगे
पर न कोई बहाना है
इस खेल में लोगों को
खिलौना बनना है
सदियों से खेले खेल
वो बड़ा खिलाड़ी है।
******************
शिक्षक..!
शिक्षक दिवस 5 सितंबर
राधाकृष्णन की जन्मतिथि
शिक्षाविद वो बड़े महान
करते रहे अध्यापन सदा
बडे़ सम्मान की यह तिथि
सब है मनाते शिक्षक दिवस
मानवता का पहली सीढ़ी
माता-पिता से शिक्षा मिलती
फिर छत्रछाया शिक्षक की
गीली मिट्टी सा होता बचपन
बन कुम्हार दिया आकार
बड़ी सुघड़ता से रचते मन
अनुशासन का पाठ पढाते
जौहरी बनकर हीरा तराशा
उचित अनुचित का भेद बता
करते उपकार जीवनभर का
व्यवहारिकता का पाठ पढा़या
बाँट शिक्षा करे राष्ट्र निर्माण
जगाकर अलख शिक्षा का
महत्व बताते बन पथप्रदर्शक
उच्च शिखर पर पहुंचाते वो
सदा सच्चाई का राह दिखाते
इस धरा पर फरिश्ते का रुप
थामे हाथ सदा जीवन का
ऋणी है सदा यह मानव
शिक्षक से पाते अक्षरज्ञान
अच्छे जीवन की लिए कामना
सदा करें शिक्षक का सम्मान।
********************
कलम..!
कलम की ताकत बहुत बड़ी
करती है जब अपना वार
अच्छे अच्छे को जब लपेटा
करके अपना प्रचंड प्रहार
कलम से निकली हर बात
जीवन में देती बडा़ प्रभाव
इसकी जद में जो भी आया
वो माँगे पानी, किया त्राहिमाम
मच जाता है बड़ा वबाल
करती है लेखनी जब कमाल
लेखनी ने हर युद्ध लडा़
पकड़ कलम वह आगे बढ़ा
वह हर कदम अपनी चाल
न आगे न पीछे चलता
एक कलम ने दिया सँवार
तो कहीं इसने किया प्रहार
मामुली नही है ताकत इसकी
इसकी छवि पे मत जाना
आगे फिर होगा पछताना
व्यंग,कविता ,आलेख,कहानी
हर शब्दमाला से जुड़कर
खुद कहती है अपनी कहानी।
**********************
चिरैया..!
घर आँगन की शान चिरैया
सुबह की आहट बतलाती वह
चूं चूं ची ची करती शोर मचाती
फुदक फुदककर इस उसडाली
चहकती जाती बडे़ मजे में
जब बिचरती वह अंबर में
लगती कितनी छटा निराली
घर की बेटी और चिरैया
दोनों ही बिछुड जाती एकदिन
घर आँगन को सूना छोड़ कर
चली जाती है वह रोता छोड़
वो भी कहाँ खुश रह पाती
तिनके चुन चुन नीड़ बनाती
चुजे आने तक बैठी रहती
चुजे आए कोलाहल हूई
भोजन लाने की पारी थी
बढ़ते उनको देख चिरैया
मंद मंद मुस्काती रहती
निकल गए पर उड़ गए चुजे
न ली उसकी कोई सुध
नीड़ में बैठी रोती चिरैया
अपने मन ही मन ये कहती
अच्छा था जो बच्चे थे
क्यों बच्चों के निकले पर
क्यों बच्चों के निकले पर।
**********************
जज्बात..!
दिलों के रिश्ते यूं ही चलती
रहनी चाहिए
जज्बात का कोई पौधा हरा-भरा
रहना चाहिए
हर रिश्ता खरा सोना तपकर
निखरना चाहिए
बाँध कर रिश्तों की डोर गांठ
नही लगाना चाहिए
प्रेम-सर्मपण से सींचा हुआ पौधा
सदा लहलहाना चाहिए
आपस में बनाकर विश्वास अटुट
प्रेम निभाना चाहिए
खुशियाँ सदा भरी रहे निरंतर
प्रयास रहना चाहिए
सुख दुख की अनुभूति में
साथ चलना चाहिए
मजबूती से हर लम्हा
पकड़ बनानी चाहिए
शिकवे शिकायत भीं जिंदगी
का हिस्सा होना चाहिये
यही तो वो जज्वात हैं जो
सबमें होनी चाहिये
गुजर गया जो बुरा वक्त
उसको तज देना चाहिए
आती जाती सासों को भी
महसुस करना चाहिए।
**********************
कर्मस्थली..!
कर्मस्थली से होती
मानव की पहचान
कर्म से नहीं बढ़कर
कोई और स्थल है
सरोकार, संबंध और
विनम्रता है जहाँ
कर्म धर्म से श्रेष्ठ जहाँ
बन जाता र्स्वग वहाँ
प्रेम भाव से कर्म बढ़े
परोपकार और सहभागिता
श्रेष्ठ बिचारों का संगम
कर्मस्थली का है बंदन
सब मिल कर बढ़ चले
मानवता की पराकाष्ठा
मंदिर, मस्जिद सब यहां
गूरूद्वारा और चर्च यहां
सब धर्म के लोग जहाँ
कर्म अपना करते है
तन का भी होता तरपन
मन भी संगम होता है
ऊंच नीच का भेद मिटा
अपने पथ पर चलता चल
कर्म ही है सबकी पूजा
कहलाता कर्मस्थली है।
*****************
हद..!
अपने आप में रहकर
औरों का जीवन जीना
मैं खुद के लिए हुं या
लोग के लिए ही बनी
मै और लोग के बीच
बंधी पाँव की बेडिय़ां
जकड़ लेतीं हैं सोच
"लोग क्या कहेंगें"
अनदेखा सा जीवन
और उलझी सी जिंदगी
मन कहता है लाँघ जाओ
तोड़ पाँव की बेडियां
क्यों जी रही हो तुम
वजुद से अलग जिंदगी
पर दिल कहता है
पल भर के लिए तो सोच
तुझ से जुडी़ है कई
अपनों की जिंदगानीयां।
*******************
आशियाना..!
देख उजाला परिंदों ने
शोर मचाया भरपूर
शायद कोई शहरी शिकारी
आया जंगल की ओर
जिस डाल पे था बसेरा
पेड़ को काट उजाड़ा
आशियाना उनका
जिस्म से जान अलग
छिन गया उनके सर से साया
जगह तलाशी बैठने को
उड़ आए शहर की ओर
बिजली के तारो का जाल
थकहार कर बैठै उस पर
याद सताई जंगल की
चल पड़े वो उस ओर
काँटे चुभ गए पैरों में
हो गए लहुलूहान
इंसानों के फितरत पे हँसते
घर किसी का समझ पराया
कर दिया उजाड़
कभी यहां जश्न मनाते
अब कौन किसका सहारा
इंसानियत बची नही
नोचं दिया आशियाना
अपनी जीत को उडेल
शराब भरा जाम लिए
बुझाने अपनी मृगतृष्णा को
सोच ,समंदर पी गया।
********************
साधना..!
अपने लक्ष्य को वह पाता
जिसका ध्येय है साधना
मेहनत करनेवाले कभी
भी नही कर्महीन कहलाते
साधना है छात्र जीवन
साध कर ही आगे बढ़ते
नये नये सुर का सृजन
जहाँ होती संगीत साधना
नित्य सुरों को छेड़कर
पुरी करते है साधना
कलमकार की लेखनी
अधुरी बिन साधना
भावहीन बनी लेखनी
करते नही अभ्यास
अंदाजे बयां कलम की होती
धड़कता है दिल जहाँ
छेड़े कोई नया तराना
बेकार होती बिन साधना
ईश्वर भी सुनते विनती
भाव विहल हो जाता
समर्पण भाव से भरा
सिद्ध होती साधना ।
*********************
आदमी..!
आलीशान इमारतों के बीच
यूं खडा़ था आदमी
ढूंढता फिर रहा छाँव
थक कर हारा आदमी
रास्ते पथरीले उबड़-खाबड़
छाले पाँव में लिए
अपनी ही तकदीर से
उम्रभर लड़ता आदमी
हादसों की लहर बही
धुआं-धुआं सा आदमी
खुद को बचाने के लिए
मार फिरता आदमी
मन सुलगा तन सुलगा
फिर भी चुप है आदमी
अपनों के घर जलाकर
भीड़ जुटाता आदमी
जब आया वक्त अंतिम
शिकवे क्या करें भला
मौत की गिरफ्त से
घबड़ा गया था आदमी
ताउम्र बीती रंगीनियों में
मार पड़ी किए गुनाहों की
पछताने को क्या बचा
सांसे अंतिम गिनता आदमी।
********************
जीवन..!
क्या भूलुं क्या याद करुं
अनोखी कहानी जीवन की
उठते मन मे कई नये सवाल
भावनाओं का बहता संसार
बचपन बीता हुआ शुरू जंग
क्या भूलुं क्या याद करुं
नये सपने थे जीवन आरंभ
गिरते संभलते उठते कदम
अपनो का था साथ मिला
गैरों ने भी हाथ बढाए
चलता रहा पथ अपने कदम
क्यूँ फिर भी दुखी हुआ मन
रहा कुछ मलाल जीवन का
क्या भूलुं क्या याद करू
चाह नहीं बढ़ता ही जाऊँ
ठहराव कही मिले जीवन का
मंजिल ही आधार परम का
अंत नहीं आरंभ है जीवन का
तन क्षिन्न होता जाता नित्यदिन
मन का वहाव कहाँ रुकता है
नित्य नये सवालो से सामना
मन ही मन घुमड़ता है
कभी बगिया सा जीवन है
कभी काँटों भरा उलझन
क्या भूलुं क्या याद करूं।
*************************
हमारा प्यार ए इजहार गुलाब न था
वरना हर माली से सबका याराना होता
वक्त के सितम से जो रूक गए हम
अपनो के बोझ से जो झुक गए हम
अदब प्यार की थी जो बगाबत नही की
सबकी खुशियों के लिए हुए र्कुबान हम
तुम अपनी डगर चले मै अपनी चली
रास्ते अलग हो गए तो क्या हुआ
हमारी तुम्हारी दिल्लगी आज भी जिंदा है
न वादों का न खिताबों का
हमे ऐसी कोई अरमान नही है
बस अगर कही मिल जाना तुम
देख नजरें अपनी हम झुका लें
यही हमारी प्यार की आबरू।
******************
वो जमाना याद आया..!
वो जमाना याद आया
जब बचपन खेला करती थी
किस्से कहानियों में जीते थे
कितने गोद हुआ करती थी
कब हुए बड़े न पता चली
पीछे छुटा हर वो लम्हा
वो जमाना याद आया
धमाचौकड़ी करते हम
करते थे कितने शोरगुल
कुछ नही था छल कपट
अपने मर्जी के मालिक हम
कभी रुठना कभी मनाना
सारे मिलकर रहते हम
भाई बहन से भरा संसार
छुट्टियों का करते इंतजार
आपस में होती कितनी बातें
न रहा अब वो जमाना
सिमट गये सब लोग यहाँ
अपनेपन से दूर हुए
न बच्चों का बचपन है
न बड़ों का मान सम्मान
जितनी दूरियां कम हुई
अपने सब सिमटते गए
रिश्तों का न अब कोई मोल
दिखावे को जीते अब हमसब
बनाबटी का दौर चला
वो वेफ्रिकी भी कहाँ रहा।
**************************
सियासत..!
जाने क्यूं इस जमीं पे
बेबसी का आलम है
गर खार मे मिलनी है हस्ती
चले नेकी के रास्ते हम
कदम कदम नक्शे कदम
काफिला जो बढ़ चला
चाँद सूरज भी साथ चले
हवा का रुख बदल गई
चंद हाकिम जो हमारे
मयकदा में नाच रहे
थाम प्याला जाम का
मदमस्त हो डूब रहे
आबरु को रख गिरबी
सियासत दानों के भी
तलवे सहलाते रहे
सत्ता पर बैठै लोग
अपनी रोटी सेंक रहे
सियासत की आड़ में
मजहब से खेल रहे
इतनी हूनर रखते हे ये
खुन को भी बाँट रहे
अपनी हुरमत बचाने को
चलते सियासी चाल हैं
भावनाओं की जमीं पे
लाशों की तह बिछाकर
करते कई दिबार खड़ी
दफ्न हो जाते है कई राज
सत्ता के मदहोश में।
*******************
गणेश/बिनायक/लंबोदर..!
हे गणपति, गौरीनंदन
देवों के भी देव तुम
माता के रक्षक तुम
द्वारपाल बन अडिग रहे
शिवशंकर को रोक दिया
ऐसी तुम्हारी अखंड प्रण
कोपभाजन तुम बन गए
शिव की प्रचंड कोप का
कटा शिश गिरा धरा पर
माता बिक्षिप्त हो उठी
माता ने भी किया प्रण
शिवशंभु भी हिल गए
गज का शीश लगाए
गजानन तुम कहलाए
मोदक है बहुत प्रिए
भोग लगाए सब तुम्हें
बुद्धिमता के सिद्धपुरुष
कार्तिकेय भए पराजित
त्रिचक्र से तोड़ दिया
घमंड पर विजयी हुए
र्सवप्रथम पुजित हो तुम
सवकार्य सिद्ध किए
रिद्धि सिद्धि के स्वामी तुम
विध्नहर्ता भी कहलाए
मूसक की करी सवारी
पीताम्बर सोहे बलिहारी
एकदन्त दयावंत गणपति
गणनायक चार भुजाधारी।
जय बोलो जय बोलो
गणपति बप्पा मोरया।
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छायाकार..!
छायाकार का निज संसार
कल्पना का बहता ब्यार
रंगो से भरता सपनों को
तुली से उकेरा नया आकार
भावनाओं का रंग मिलाता
सपनो को भी गढ़ता जाता
बिन पंख भी भरे उडान
नित्य करे छवि का निर्माण
छायाकार की मन की चाहत
रचता जाता रंगीन संसार
छवि उकेर कहानियों की
पकड़ सपनों का संसार
कभी तस्वीरों में डाले जान
नदियां भी कलकल करती
पछियों की कलरव सुनाता
बह्मंड की अनुपम सैर कराई।
बसुंधरा की पावन छवि को
कवि मन पहुंच रचा आकार।
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भाद्र मास का आया पर्व
करना है पावन त्यौहार
साजन सबके दीघार्यु हो
कहते हरितालिका तीज,
चलो सखी मनाने पर्व
माँग भरो सिंदूरी रंग
खनखन चुडिय़ां हाथों की
पाँव दोनों पाजेब बजे
छमछम की आवाज गुंजे
ललाट सुशोभित बिदीं-टिका
मेंहदी लगी हाथों में
लाल जोड़ा में सजकर
ओढे हम लाल चुनर
अखंड सौभाग्य हमारा हो
आशीष मिले शिवशंकर से
पार्वती का साथ निभाया
हमको भी आशीष दें
दाम्पत्य जीवन हरा-भरा हो
सदा नेह बरसती रहे।
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रमा आज बहुत ज्यादा खुश थी क्योंकि उसका बेटा राहुल इस बार की बोर्ड परीक्षा में अमन से पांच नंबर ज्यादा लाकर फस्ट डिवीजन से पास किया ।अमन और राहुल आमने सामने ही रहते थे ,बड़ी पक्की दोस्ती थी ।अमन अपने क्लास का मेहनती और होनहार बच्चा था।स्कूल की हर छोटी बड़ी कार्यक्रम में हिस्सा लेता था।इस कारण उसकी आलमारी ट्राफियों से भरी पडी़ थी।परंतु राहुल की माँ को तनिक नही भाता था। अक्सर राहुल से कहती देखो अमन के पास कितनी ट्राफीयाँ है सब उसकी बढाई करते है और एक तु है।राहुल भी कभी कभी अपनी माँ की बात सुनकर चिढ़ जाता था,वो भी अपनी पढाई में अच्छा था।बस रमा की तो जैसे कोई मुराद पूरी हो गई थी।अमन के पिता की अपनी छोटी सी दुकान थी जिससे वो अपने परिवार को चलाते थे।वही राहुल के पिता एक सरकारी नौकरी में थे।बेटे के फस्ट आने की खुशी तो थी ही साथ ही साथ अमन को भी नीचा दिखाने के लिए उन्होंने एक पाटी भी दी।बडे बडे लोग आए पर इन सब के बीच अपने दोस्त और उनके परिवार को न देखकर राहुल दुखी मन से अपनी माँ को सिर्फ नजरभर देखा और अपने दोस्त अमन को पकड़ कर लाया।अपने कमरे में ले जाकर उसे भी अच्छे कपडे पहनाकर साथ पाटी में लेकर आया।साथ मिलकर केक काटा और अपने यहां आए सभी मेहमानों से उज्जवल भविष्य के लिए आशिर्वाद माँगा।उसने ये भी बताया कि उसका दोस्त अमन किस तरह से पढाई में मदद किया करता था।उसने ये भी कहा कुछ नम्बरों के अंतर से वह अमन से आगे जरूर है पर ये भी तो उसी की देन है।राहुल की माँ ने अपनी कातर आँखों से अपने बेटे को देखा ,अपनी गलती का अहसास हो उठा था।आँखे डबडबा गई थी।उसने दोनों बच्चों को पास बुलाया और गले से लगा लिया।
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तृष्णा..!
मानव मन भटक रहा
तृष्णाओं के जंगल मे
अनगिनत इच्छाओं और
भावनाओं की भूख है।
तृष्णा कभी न तृप्त होती
बढती जाती बढती जाती
कई रंग और रुप है इसके
भटके इसमे मानव मन।
कभी सत्ता कभी संपत्ति
भोग और विलासिता
कट्टरता की चरम को
पार कराती है तृष्णा।
मन का लालच बढे़
रास्ते भी बडे कठोर
इस तृष्णा मे पडकर
ढहे कितने दरो-दिवार।
फलता फुलता परिवार भी
इसके भेंट है चढ़ जाता
तृष्णा के मकड़जाल मे
रास्तों का न कोई अंत।
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मन..!
मन एक ऐसा संसार है जिसमें प्राणी भटकता रहता है।मन का न कोई ओर और न कोई छोर है।मन को अपने अधीन रखकर सही राह पर चलना संभव है परंतु मन के अधीन रहना हमें कई मुश्किलों को बुलावा देने जैसा है।मन ही वह ताकत और र्कमठता प्रदान करती है जो हमें एक सुयोग्य नागरिक बनाती है ।अगर हम मन में किसी बात को ठान लेते है तो उसे हम उसी उत्साह से पूरा कर पाते है। कहा भी गया है "मन के हारे हार है,मन के जीते जीत"...!
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कौन अपना कौन पराया नकाब ओढे चेहरे है
धोखे और दिखावे की बनाबट हर रिश्ता है
शहर की चकाचौंध में शीशे की दीवार भरी
सच झूठ के खेल मे सब आगे बढ़ रहे
आगे बढने की चाह लिए कत्ल करने को तैयार
फानुस बनाकर प्रेम का औजार भी रख रहे
मेरा तुम्हारा अपना पराया यही किस्से चल रही
कम और ज्यादा का रिश्ता खुन मे पल रहा
रिश्तों की आड़ में प्रेम का खंजर चला
शहद सी शब्दबाण भी गले मिलकर है चलाते
आग लगाकर रिश्तों में हाथ अपनी सेंकते
काठ की हांडी सा आज का रिश्ता
धुआं धुआं होकर फिर राख बन रहा
जीवन की कश्ती में यूं ही छेद नही होता
जबतक कोई अपना बहरुपिये का साथ नहीं देता
रिश्ते खुद अपनी मौत नही मरते कभी
कतरा कतरा तिल तिल कर मारी जाती है
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गुनगुनाना है..!
किस राह चलूँ जो मित मिले,
मित के संग-संग प्रीति मिले,
कोई गीत नया फिर
गुनगुनाना है।
जीवन की डगर हो प्यार भरी,
प्यार से ही सब संसार चला,
कोई गीत नया
फिर गुनगुनाना है।
सफर हो लम्बा या डगर कठिन,
थाम कर हाथ तेरे मैं चलूँ,
कोई गीत नया
फिर गुनगुनाना है।
मिल कर बाँटे हर सुख-दुख को,
बन कर रहे सहारा एक-दुजे के,
कोई गीत नया फिर
गुनगुनाना है।
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देश प्रेम..!
देश हमारा बड़ा है न्यारा
शीर्ष शुषोभित पर्वत माला
कैलाश खडा, गंगा की धारा
गहरा सागर चरण पखारे
रेगिस्तान हो या चट्टान, मैदान
चारो ओर से धरा शुषोभित
अखंडता है इसकी पहचान
स्वतंत्रता का दिबस है आया
ओतप्रोत सारे देशप्रेम में
तिरंगा चारो ओर लहराया
अब न धरा को रोने देंगे
ध्वजा न अपनी झुकने देगें
अपनी धरा के रक्षक बनकर
वीर सपुत ललकार रहा
सुनो पडो़सी सीधी बात
किसी की शह मे आकर
यूं न तुम आँख दिखाओ
चलो न कोई गहरी चाल
आजादी को हमने पाई
संघर्ष और बलिदान से
देश हमारा बदल रहा
चलना न कोई चाल नई
मिट जाओगे नक्शे से
रहेगी कोई पहचान नहीं
आतंकवाद को बंद करो
मर रहे भुख ,गरीबी से
टुकडो़ पर खुद पलने वाले
रही क्या औकात तेरी
अब भी तुम संभल जाओ
राह सही तुम पकड़ चलो
माता हमारी बंदनीय है
रक्षा करेंगे हर हाल में
भारत माता के वीर सपुत
रहते तैयार न्योछावर को
आओ करे जयकार हम
भारत माता की जय हो।
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गुनाह..!
भावना में बह जाना गुनाह है,
भावना किसी से जताना गुनाह है।
आँखों में ख्वाबों का होना गुनाह है,
जहन में किसी को बसाना गुनाह है।
अपनों को अपनापन बताना गुनाह है,
किसी अपने को अपना कहना गुनाह है।
हँस कर गले मिलना गुनाह है,
इंसान का समझदार होना गुनाह है।
भीड़ में पहचान बनाना गुनाह है,
हसरतों से भरी दुनिया बनाना गुनाह है।
आँसुओं का नमकीन होना गुनाह है,
इंसान का बेहतरीन होना गुनाह है।
जख्मों पर मरहम लगाना गुनाह है,
इस्तेमाल नमक का रोकना गुनाह है।
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जन्माष्टमी..!
बासुकी नंदन,देवकीनंदन
गोकुल के नंदलाला तुम।
माता यशोदा रुप निहारे
गोपियों को मन भाए।
सबकी आँखों के तारे
कान्हा तेरे कितने नाम।
प्रेम रस मे गोकुल डूबा
इधर उधर इठलाए तुम।
माखन की चपत लगाए
गगरी मटकी फोडे तुम।
गोपियाँ जैसे सुधबुध खोए
बासुँरी के मीठे तान सुन।
प्रेम में सबको डुबो दिए
छेड़ कर अपनी रागधुन।
मीरा ने तुमको प्रेम किया
उसके तो अराध्य बने।
रूकमणि ने तुमको चाहा
पति परमेश्वर बने रहे।
राधा थी प्रेम दिवानी
कान्हा से कृष्ण बने
प्रीति से तुमको साजा
तभी तो राधे कहलाए।
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कहाँ किनारा है..??
प्रभु तुमने जग बनाया
ये जग है मायाजाल
प्राणी इसमें भटक रहे
दलदल में फँस रहे
करते उल्टे-सीधे काम
मृग जैसा दौड़ लगाए
मन का किनारा कहाँ है..??
अपनों के साथ रहकर
ढुढे बाहर अपनापन
छल-कपट की नीति से
जीतना चाहे नीज मन
लालसा जीवन की चाहे
पुरी हो जाए सब आस
फिर भी किनारा कहाँ है..??
प्रभु उनकी भी तो सुनो
जो रहते तेरे सहारे है
जीवन डोले बीच मझधार
भंवर में भटक रहा मन
मोह-भरम के जाल से
अब दुर हटो पाखंड से
ढुढो कहाँ किनारा है..??
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हमसफर..!
नसीब से मिले हो तुम
किस्मत हमारी खिल गई।
दिल हमारा चाहे तुमको
लकीरों में चुराकर रख लूं।
बीरान पडी़ थी जिदंगी
आने से तुम्हारी, शाम सुहानी।
एक ही राह के हम मुसाफिर
क्यूँ न चलूं बनके हमराही।
कतरा-कतरा एहसास जगा
वफा रही गर हो पुरा सफर।
******************
चुल्हा,चौका और रसोई..!
बात कुछ है इनकी करनी
पाक,साफ और भाव भरा
पकता भोजन और प्रसाद
चुल्हा जलता जब गांव मे
मिट्टी लेपन होता पहले
बोझी जाती है जलावन
फिर अंगीठी जलती है
मिट्टी की सौंधी खुशबू से
तन मन सब खिल उठा
चौके मे बजती बरतन
कलछुल छोलनी और कडाही
कराती जब अपना भान
चढी़ हाडीं चुल्हे पर
खदकन की आवाज़ हुई
सब्जी की जब छौक लगी
छचनमुन सी आबाज हुई
खुसबू मसालों की महकी
पूरी रसोई गुलजार भई
भुख पके जब चुल्हे पर
व्यंजन बने कई प्रकार
थाल परोसा जाता जब
रसोई का बढ़ा श्रिगांर
भोजन से भाव त्रृप्त हुआ
मन प्रसन्न प्रफुल्लित हुआ
शहरो में वो बात कहां
जल्दबाजी ही रहती है
सजावटी सामानो के बीच
इंसान नीर्जीव दिखता है।
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नारी..!
नारी कोई सामान नही
नारी घर की है मान
समझो तुम नारी को
मत करो अपमान
कितनी देती र्कुबानी
जाने अनजाने वह
तय समय पर उठ
करती अपना काम
सहेजती, संभालती
ढंकती और बांधती
कभी बीनना कभी छांटना
जोड़ तोड़कर ठीक करना
कभी देखा है तुमने
फटे कपड़ो की तुरपाई
या लगाना हो टांका
धुप दिखाती कपड़ो को
अंदर बाहर करती रहती
तुम्हारे खाने की टेबिल पर
हवा करती पंखा झेल
घर को अपना कहती है
भरती है खाली डब्बे
मोड़ती है फैली चीजें
बासी रोटी भी खाती
रात की सब्जी में तड़का डाल
बची हुई से थाली भरती
ध्यान से करती सारा काम
फिर भी करते हो अपमान
कटु शब्दों की बौछारों से
करते हृदय लहूलुहान
सहेजती है रिश्तों को
अपनी उम्मीदों को थाम
समझो तुम नारी को
मत करो अपमान
गर टुट जाएगी
जोडें जुड़ न पाऐगी
नारी कोई सामान नही
नारी कोई सामान नहीं।
*****************************
राम..!
आज अयोध्या नगरी सारी
कैसी जगमग कर रही
राम पधारे अपने घर को
उल्लासित है सारी नगरी
खत्म हुआ वनवास प्रभु का
तम्बू छोड़ महल में आए
बड़ी तपस्या करी आपने
अपने घर आंगन को पाने
कैसी लीला ये प्रभु आपकी
अपना सर्वस्व बलिदान किया
जिनके हाथ डोर जगत की
खुद अपने घरबार को तरसे
बहुत हुआ प्रभु इंतजार अब
अपने आसन आप बिराजो
राम नाम की बड़ी महिमा
राम का नाम ही अटल है
सदबुद्धि देना प्रभु उनको
आपका अस्तित्व नकारे
मुरख अगर कुछ पा सको
राम नाम की लुट है
फिर भी न समझो अगर
राम नाम ही सत्य है
जय बोलो प्रभु राम की
****************
राखी है एक त्योहार
है जिसमें अटुट प्यार
भाई और बहन का
अनोखा है रिश्ता
रक्षा का है सच्चा बंधन
चंदन रोली और धागा कच्चा
हुमायूं ने भी इस धागे की
धर्म निभायी भाई बनकर
द्रौपदी भी अपनी रक्षा को
कान्हा-कान्हा जोर पुकारा
इतना इस धागे की ताकत
भाई बनता बहना की हिम्मत
बहना तो बस कुछ न चाहे
भाई और बाबुल की बगिया
हरा-भरा और रहे सलामत
सबकी खुशियां बढ़ती जाए
देख ये बहना फुली न समाए
***************
रिश्ता..!
खामोशी रिश्तों की
चुप्पी अपनों की
जीने नहीं देती
उलझती गुत्थियां
टुटता सब्र का बांध
बिखरते हुए सपने
जीने नही देती
खामोश रहकर भी
अपने दिल में
अपनों की फिक्र
जीने नहीं देती
रिश्तों में कड़वाहट
क्यूँ घुल गई
अपने तो अपने होते
बेगाने होते चले गए
उनका यूं बेगानापन
जीने नहीं देती।
***************
वो दिन भी क्या थे
जब खतों का दौर रहा
अपनी उनकी बातों को
खत में भेजा जाता था
किसी प्रेमी का मीत बना
किसी सजनी का साजन
मां भी ममता भेजी खत में
बाबुल को पुत्री की पाती
डाकिया भी चाचा कहलाए
पुछ बड़ी उनकी थी होती
अब न चाचा का इंतजार
न खतों का दौर रहा
भावना भी नही लिपटती
लिफाफों जो खत्म हुआ
न शब्दों का मेलजोल
रहा न कोई तोलमोल
भावना तो हुई बाजारी
न रही अब खत बेचारी।
****************
शब्द-शब्द की बात है
जब शब्दों के बाण चले
लहुलूहान ये शब्द करे
कभी ये बने मरहम
भावों का रुप बने
शब्द भी क्या चीज है
कितनी तुफान खडा़ करे
कितनों का घर उजाडें
जीवन तबाह-तबाह करे
क्यूँ न इसको हम संबारे
हम भी इससे सबरेंगें
कलुषित शब्द को दूर रखें
कलह का न जाल बने
शब्दों से कुछ निर्माण करे
शब्दों की माला गुथें
गाथाओं का गुणगान करें।
*************
मन के हारे हार है
मन के जीते जीत
निराश कभी न होना तुम
निज पथ पर चलता चल
असफलता में ही जीत छुपी
नित्य प्रयत्न तु करता चल
मन का तिमिर दुर भगाओ
परिश्रम कर प्रकाश फैलाओ
पड़ाव है यह मंजिल का
इसको न तुम लक्ष्य बनाओ
जिंदगी की रीत सदा
हार से ही जीत है
आज अगर है सुरज डुबा
कल फिर वो निकलेगा
नई सुबह का नया सबेरा
मंजिल पर पहुचायेगा
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कारगिल की काली छटा
देश पर जब छायी थी
दुश्मन देश की गद्दारी से
भारत माता रक्तरजिंत थी
अपनी माँ के गौरव को
वापस जो लौटाना था
देश के हमारे वीर जवान
उनके छक्के छुड़ाए थे
जगा देश का यूवा भी
पड़ोसी को ललकारा था
अपनी प्राण को कर बलिदान
देश का मान लौटाया था
धिक्कार था उस मुल्क को
जिसकी हार ही गौरव था
छल कपट और मक्कारी
उस देश की पहचान बनी
हर बार मुहं की खाकर
जो कभी न सुधर सका
एक पडो़सी फिर जागा
उसने भी किया प्रहार
गलवान का जंग किया
हमारे देश के वीर जवान
उन सबको भी खदेड़ दिया
डंका बज गई विश्वभर में
भारत का हुआ गुनगान
सुनो फरेबी कान खोल
अब न टकराना तुम
ध्वस्त होगा तुम्हारा मान
खत्म होगी तुम्हारी पहचान
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कभी ख्याल न आया था
ऐसी दिन भी गुजरेगी
घर बैठें वो बुद्धिमान
जो बाहर जाए हो परेशान
खतरा अभी तक है बाकी
कोरोना ने राह है रोकी
मान लो बात अब तो थोडी़
जिंदगी की जंग है जारी
यारी-यार निभा लेना
थोडी़ तो कर बंद दौड़ा-दौडी़..!
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अंधकार का रूप अनेक
समय चक्र का ये खंड है
जीवन जकड़ा जंजालों में
नित्य फैला अंधकार
सुनी रहती बगिया मन की
घेरे रहता अंधयारा जब
दिशाहीन सा राह लगे
अंधेरा भी भागेगा एक दिन
जब किरण पहुंचेगी चहुँओर
धैर्यवान हम सदा रहें
विश्वास की डगर बढ़े
लौकिक सदा प्रकाश रहे
आत्मचितंन की ज्योति से
सबका जीवन प्रकाशवान रहे।
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आज ये कैसी नगरी है
रास्तों पे लगा पर्हरी है
कोई किसी से मिल न पाए
कोरोना मे किधर को जाएं
बड़ी संकट बाली दुविधा है
लोग लोग को छु न पाए
फैली कैसी ये महामारी
सारी दुनिया पर है भारी
वढ़ता जाए छुप छुप कर
लोग वेहाल सरकार वेहाल
सब जगह आवाम वेहाल
कौन किसका रखे ख्याल
वो ताकत भी सर झुकाऐ
झुकना जिसको न आता था
अनदेखा शत्रु बड़ा विशाल
सब रुकवाया किया कमाल
हेः ईश्वर अब दया करो
बहुत हुआ अब माफ करो
कुछ तो करनी अपनी थी
मान लिया अब बस करो
मान लिया अब बस करो।
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