पर अपने ज़ख्म दिखाता कैसे?
यह सच है ज़ख्म, वर्षों पुराना है
पूछती हो ये ज़ख्म, ताजा कैसे?
बड़ी देर तक मैं, टकता रहा रास्ता
रास्तों से पता तेरा,पूछता कैसे?
फ़ासलों में है रिश्ते, रिश्तों में दूरियां
मैं ये दूरियां, मिटाता कैसे?
भले आँखें गीली हुई थी तुम्हारी
महफ़िल में गिरे मोती,उठाता कैसे?
तुम सामने आ गयी थी, यकायक
नज़रें मिल चुकी थी, चुराता कैसे?
ठिठके कदम थे, अटकी थी साँसे
जुबां खामोश, कुछ कहता कैसे?
दिलों में भले न हो, दूरियां
दरम्यां जमाने का,घटाता भी कैसे?
भले वो कसक आज भी पल रही है
बेबसी कि-आंहे भरता भी कैसे?
उम्र ढलती गई, इश्क बढ़ता गया
केश की तरह,सफेद हो गया मैं।
अब भी जिंदा हूँ, तेरे इंतज़ार में
साँसे थक चुकी है,कहता भी कैसे?
मरहम तू है बेशक, मेरे ज़ख्मों का
पर अपने ज़ख्म दिखाता कैसे?
यह सच है ज़ख्म, वर्षों पुराना है
पूछती हो ये ज़ख्म, ताजा कैसे?
वर्तमान राजनीति..!
सिमटते-सिमटते सिमट गया
यह देश क्यूँ बदनसीबी से लिपट गया।
जब हम भूखों मर रहे थे
ये नेतागण भूख को मिटाने के वादे से पलट गया।।
हमने वोट दिया अपने को दाने-दाने को तरसाने को।
उसने सौगात समझ ले लिया दावतें उड़ाने को।।
देखा, इस सर्दी में मरी पड़ी
कितनी जवां और बूढ़ी हड्डियों को।
चले आये सहानुभूति दिखाने वो
तोंद पे हाथ फेरते, कफ़न बाँटने को।।
दर्द दिखाने आए वोट बैंक समझ के।।
हम बरसात में घुटने तक धँसकर चलते है
पर जहाँ फंसता था, उनके फॉर्च्यूनर का चक्का।
हम तो आज भी अभ्यस्त है, अपनी बदहाली से।
पर उनके घर तक का सड़क है जरूर पक्का।।
अरे! वे क्या हमारी भूख मिटाएंगे ?
बस जो चले तो देश की कड़ाही में जनता को भूनकर खा जायेंगे।।
तजुर्बे के अनुसार ओहदे बढ़ते जाते है।
आज जो हत्यारा-खूनी है, कल के नेता हो जाते है।।
पता नहीं ये हैं, किस वंश के।
रावण के रिश्तेदार हैं या वंशज है कंस के।।
पर जो भी हो जनता-जनार्दन के मामा कहलाते हैं।
मानो-न- मानो, खुद को भगवान बताते है।।
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21वीं सदी में कवि
ढूंढता है श्रोता
लिखता है कम कविता।
क्रांतियाँ अब फूटती नहीं
कविताओ से,
अपने अस्तित्व की रक्षा में
हर रोज कवि करते है--
क्रांतियाँ, श्रोताओं से।।
अब कविताएँ होती नहीं ग्राम्य-जीवन पर
हाड़-मांस के मानव पर
नित-प्रतिदिन
कविताओं का विषय घुमने
राजभवन जाती है।
घोटालों की चर्चा का,
विज्ञापन कविता होता है।
नेताओ के चरित्र का, गिरता ग्राफ़
कवियों का प्राण होता है।।
21वीं सदी में कवि, ढूंढ़ता है श्रोता
लिखता है कम कविता।।
अब मेहबूब की गाल
लगती है प्याज की छाल।
कवियों की कल्पना में
खिली कुमुदनी फूल नहीं होती।
कवियों को दिखता है
परमाणु विस्फोट।
दिखती नहीं, इसके पीछे छिपी ।
करोड़ों दिलों की चोट।।
हे कवि महोदय!
आप कविताओं के माध्यम से
अपनी पहचान बताते हैं
फिर क्यों नहीं,
आलोचना-प्रशंसा से हटकर
अपनी विषय बनाते हैं -
अपनी विषय बनाते हैं।
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आतंकवाद..!
मैं चाहता हूँ हो एक विस्फोट
अध्यात्म के अणु का
या मैं ही बन जाऊँ
एक मानव-बम
प्रेम और मानवता के बारूद का
और जा टकराऊ
किसी आतंकी दुनियां की
ऊँची ईमारत से।
भरभराकर गिर पड़े
नफरत की ईमारत
ताश के पत्तों की तरह
उस आतंकी दुनियां के लिए
जो मौत का कारोबार करता है।
नफरत फैलाता है
नफ़रत बाँटता है, नफरत पाता है।
इसे धर्म भी बताता है।
बताता है, वह इसे
मजहबी जिहाद।
यह जिहाद, कैसी जिहाद है?
को बच्चे को
पुस्तकों की जगह
असलह पकड़ाए
जीवन के मधुरतम क्षण में ही
द्वेष की अँगुली थिमाएं
और अग्रसर करें
मधुर-स्वप्निल समाज को
विनाश की ज्वाला की ओर।।
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बिखरते सपने..!
मखमली लिहाफ़ का गर्म अहसास
जिजीविषा को पुष्ट करती हर सांस
कि, जग में मेरा भी होगा, कोई एक-कोना
आनन्दित हो रही थी, देख जीवन का सपना।।
गर्म हो रही थी मैं, मां के ममत्व में
जीवंत हो रहे थे, मेरे अंदर के सपने।
पर मुझे क्या पता था, यह अर्धरात्रि के सपने
पौ फटते ही, जिसे थे----बिखरने।।
मैं नहीं दे सकती थी, पिता की तरह बांग
मैं थी इस सभ्य समाज की एक शालीन बोझ ।
इसलिये मेरी बहनें गर्भ में ही मार दी जाती है रोज।।
सुबह होने ही वाली थी, पौ फटने ही वाला था
मेरी जिंदगी की कहानी, समाप्त होने ही वाली थी।
पर, मैं अपनी जिजीविषा रोक नहीं पा रही थी
जबकि मेरी हत्या की साज़िश रची जा चुकी थी।।
भाई की तरह मैं नहीं देख पाई --- सुबह का सूरज
नेरे नसीब में नहीं था ---- कोई गोधूलि शाम।
मेरा फुदकना सपनों में ही कैद हो गया
मेरी आंखें सदा के लिये, चिरनिद्रा में सो गयी।।
मैं चीखती रही..….......माँ
कातर नज़रों से निर्निमेष निहारती रही,
टूटती सांसों के साथ --- सिसकती रही।
आर्त हृदय से चीत्कार करती रही।।
माँ, मुझे भी दो मौका अपने बुढ़ापे की लाठी बनने का
मुझपर भी करो भरोसा, एक इबारत लिखने का।
मेरे ही कन्धे पर तो था, खानदान की इज्ज़त का जुआ
आख़िर मुझ बेटी से ही , यह समाज इतना निष्ठुर क्यों हुआ।।
आख़िर मुझ बेटी से ही , यह समाज इतना निष्ठुर क्यों हुआ।।
आख़िर मुझ बेटी से ही , यह समाज इतना निष्ठुर क्यों हुआ...!
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" गठबंधन की राजनीति "
मैं कोई साहित्यकार नहीं,
कथाकार नहीं, चित्रकार नहीं..।
पर इतना तो स्पष्ट है, 21वीं सदी की
दहलीज पर पैदा हुआ,
अम्बेसडर कार की तरह बेकार नहीं..।।
कभी-कभी तेल ही नहीं,
बिना बिजली-पानी के भी झेल लेता हूँ..।
गुलाब की प्रत्याशा में,
गेहूँ की सुगंध से जिंदगी ठेल लेता हूँ..।।
क्योंकि तेल में में तलती नहीं..।
हम शुद्ध शाकाहारी हो गए,
लहसुन-प्याज तक मिलती नहीं..।।
जनता तो जनता सरकार तक रोती है..।
संसद में झगड़ा, पति-पत्नियों सी होती है..!
खुन्नशे दूर करने में लगे हैं,
हर मुखिया सरकार का..।
बिदक जाये ना महबूब कहीं,
नई-नवेली इकरार का।।
वो भी इल्जाम लगाने लगी है,
क्यों रोज नए रिश्ते बनाते हो।
हमने ख़िजकर कहा---
सरकार गिर न जाये, तुम्ही तो धमकाती हो..।।
भाई औरत की बेवफाई पर शक नहीं करना..।
चाहे तेल-डीजल हो या रेल दे देना..।।
पता नहीं, वो सबेरे किस मूड में आ जाये..।
श्रीमति जी ! किसी और के साथ
सरकार बनाये..।।
टूटता तिलस्म भ्रष्टाचार का,
ढहता लालकिला सदाचार का,
फिक्र है सबको पापड़-आचार का..।
क्यूँ कर खिचड़ी अब रोचक नहीं लगती...।
पके चावल की , चर्चा नहीं होती..।।
चर्चा होती नहीं,अब गरीबों के पेट का..।
शिक्षा-चिकित्सा या परीक्षा के डेट का..।।
चर्चा का विषय है, अगले एपिसोड में,
कौन नेता करने वाले है,
घोटाला इंडिया गेट का।
घोटाला इंडिया गेट का।।
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