संजीवनी ढूँढने की जरूरत..!
उस दिन मेरे सामने था एक सभागार की चहार दीवारियों में सिमटा-सिमटा एक ‘जनक्षेत्र’। वही ‘जनक्षेत्र’ जो शायद इन दीवारों से बाहर निकल कर शहर, राज्य और राष्ट्र की भारी-भरकम आबादी में तब्दील हो जाता है और मैं उसकी एक इकाई मात्र रह जाता हूँ जो कभी विद्रोहावस्था में सुनामी लहरों की तरह कहर बरपा सकता है।
मैं कई बार यह अल्फाज़ गुरुओं पीर पैगम्बरों और देश के जाने पहचाने नेताओं से भी सुनता रहता हूँ। फिर एक सवाल उठता है ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या हैं, आखिर इस दर्द की दवा क्या हैं?’ कभी-कभी यह भी ख्याल आता है कि शायद दर्द का हद से गुजरना ही दवा हो जाए।
उस नीर भरी दुख कि बदली में मेरी दृष्टि अचानक उस मंच पर लगे बैनर और उसके दोनों सिरों पर टंगी दीवार घड़ी कि सुइयों पर अटक गयी। ‘जनक्षेत्र’ वाली इबारत के ठीक ऊपर घड़ी की सुइयां टिकटिक करती हुयी आगे बढ़ती जा रही थी यानी ‘जनक्षेत्र’ वक़्त के साथ हमेशा फैलता बढ़ता रहा है। आदिम काल से ‘जनक्षेत्र’ के विस्तार की प्रक्रिया सदैव चलती रही है। दूसरे सिरे पर जहां पीर जग की लिखा था उस पर टंगी घड़ी जहां की तहां रुकी पड़ी थी जो शायद इसी तरह ‘पीर जग की’ पर मंथन करते-करते जनक्षेत्र रुक सा गया है। कभी कुदरत के नाम पर तो कभी अपनी किस्मत का रोना रोकर। कवि और कविता ने व्यथा को व्यथित होकर सँजोया फिर अपने शब्दों में पिरोकर जनक्षेत्र को सुनाया‘कल्पना में कसकती वेदना है, अश्रु में जीता सिसकता गान है। शून्य आहों में सुरीले छंद है’। बात यहाँ पर आकर जैसे हमें थप्पड़ मारती है की उन आहों को जो जन की पीर से निकलती है सुनकर भी उस रुकी हुयी घड़ी की तरह शून्य में खोयेहुए हैं। कवि पीर जग में कितनी वेदना के साथ कहता है-
‘अन्तर्मन में पीर बहुत है आँखों में छायी नीर बहुत है उर में उठी वेदना कितनी क्या इसकी पहचान न होगी?’ बात सही है कि इस वेदना की पहचान कब होगी? कहाँ होगी? और कौन करेगा?
समझ में नहीं आता है कि जनक्षेत्र कि परिधि में फैले आदमियों के जंगल में कब सच्ची व्यथा सुलगेगी? क्या ‘पीर’ सिर्फ किसी सुसज्जित कमरें में चाय कि चुस्कियों के साथ सुनने और वाह-वाह करने के लिए होती है? सामंती मानसिकता और अदवी अहंवाद के दरवाजे खिड़कियों को खोलकर जरा बाहर निकल कर उसे संजीवनी को ढूँढने कि जरूरत है जिससे पीर जग कि दूर हो सके।
******************
बेचारे खबरी खबरलाल..!
मियां एक जमाना था जब ‘डाकिया डाक लाया’की खुशी में लोग दौड़ पड़ते थे। डाकिया भी अपनी वर्दी पर चमड़े का बैग लटका कर और कुछ चिट्ठी-पत्री बगल में दबाए गावॅँ-मुहल्ले में पहुँचता था तो अपने को किसी थानेदार से कम नहीं समझा करता था। लोग उसकी आवभगत भी खूब करते थे और बड़ी अजिजी से पूछा करते थे, ‘भय्या जरा ठीक से देख ल्यो हमरे रमफेरवा की चिठिया तो नहीं है। काम पे गवा है। दुई महीना से कौनो खोज खबर नहीं मिली है। डाकिया भी थोड़ा रोब में कहता अरे दादा अगर चिठिया आवत तो का हम अचार डालने बदे रख लेते।’ खैर।
न जाने क्यों मुझे डाकियों पर बड़ा तरस आता था। उस वक्त्त तो साइकिल भी इने गिने लोगो के पास हुआ करती थी। कम ही डाकियों के पास ढकरपेंच साइकिल नसीब हुआ करती थी। बाकी तो अपने हल्के में पैदल ही चिट्ठी और
**************************
अब कहाँ फुरसत, कहाँ का फसाना..!
भाई सचमुच आज किसी को कहाँ फुरसत है कि गुज़रे हुए दिनों को किसी दिलकश फसाने में पिरो कर पेश करे। वह ज़माना भूल भी जाइये जनाब जब किसी फसाने में फलसफे ढूंढे जाने में लोग माथा खपाया करते थे। आजकल तो सियासत के समंदर में डुबकी लगाने से ही फुरसत नही है। अपने अज़ीज़ मीर साहब की उनकी दिलरुबा बीवी को भी फुरसत नहीं कि बेचारे के खाली पन्डब्बे को गिलौरियो से भर दे। उधर रामबोला जबसे रेल विहीन रेलवे प्लेटफार्म पर रेलगाड़ियों का आवागमन नदारद देखता है तबसे अपना टी स्टाल बंद करके पटरा बजा बजा कर गाया करता है, "ऐ मेरे दिल कहीं और चल,ग़म की दुनिया से दिल भर गया।"वहअपने साथी दूसरे चाय वालो को देखना पसंद नही करता है। इससे बढ़िया तो अपने लाला भइय्या थे जिन्होंने लाट फारम वाले कुलियों को रेल में पक्की नौकरी दे दी।
अपने रमफेरवा की माई जो पहले दिनभर में कम से कम आठ दस घंटे राम राम रटा करती थी उसे भी फुरसत नही है कि राम के साथ निषाद और बेचारी भीलनी को भी याद कर लिया करे। जैसे वह भूल बैठी है कि बिना उनके रामकथा अधूरी है। रही बात रामबोला के सुपुत्तरजी रमफेरवा का तो भइय्या जब से वह श्री रामफेरजी बन गए तब से चाय की जगह विहस्की से गला तर करने लगा है और अपने चमचों की खनकती म्यूजिक से रहमान को मात देने की नाकाम कोशिश करते हुए रोज फ़सानो पर फ़िल्म दिखा कर लोगो को भरमाया करता है। लोग भी कैसे कैसे हैं कि उसके फ़सानो में फंस कर दीवाने बने बस उसी की जय जयकार
करते हुए दाढ़ी-मूंछ पर ध्यान देने की फुरसत नही समझ रहे हैं। कुछ आजभी क्लीन शेव सन्यासी के गेटअप में रातदिन सा रे गा मा पर रियाज मार रहे हैं। वोटरों को मंत्र देकर मंत्रमुग्ध करने का प्रयास करते हुए उनके कान में कह रहे है,"अहम ब्रह्मास्मि"। उन्हें अभी तक नही फिकिर कि कितने किसान गोलियों के शिकार हो गए?ऐसे में फुरसत कहाँ कि लोगो को पैर के छालों पर हकीम इकबाल का ईजाद किया हुआ मलहम लगाया जाए या मुहल्ले के तालीमयाफ्ता लड़को को रेजगारी बांट कर कम से कम गजक खिला कर मुंशीपल्टी की पुरानी टंकी का पानी पिलाया जाय। माननीय रामफेर जी भाषण का राशन बांटते हुए रोना रोते दिखाई पड़ते है कि बजट में ऐसा कोई प्रावधान नही है। अगर मौका मिला तो वह दरदेदिल का फसाना ऊपर वालों को जरूर सुनाएगा।
फुरसत और फसाने के मकड़ जाल के मंच पर अचानक अस्सी का पहाड़ा पढ़ते हुए किसी लावारिस की भूमिका में मीर साहब नौटकी के बहरे तबील की तर्ज पर चिल्लाते हैं," अरे दुनियावालो कोरौना महामारी के इस ज़माने में मीर अपना नाम बदल कर अमीर रख रहा है क्योंकि आप सब जानते है कि कोरौना सिर्फ गरीब और बूढ़ों कोअपने आगोश में सुलाना पसंद करता है। अमीरों की तरफ वह आंख उठाने की हिम्मत नही पसंद करता है। बहुत चालाक है कोरौना । जा जा कर फिर वापस आ जाता है क्योंकि कहता है कि हमको तो प्यारी तुम्हारी गलियां। हमको आदेश मिला है कि जब तक हम आसन पर विराजमान रहें तब तक तुम उनकी गलियों में घूमते रहो जिससे उनकी बोलती बंद रहे। मैने तो भैया रामबोला यही सीखा है ,' काल करे सो आज कर ,आज करे सो अब'... इसीलिए उनके सोचने के पहले मीर से अमीर बन गया क्योंकि उन्हें अमीर बहुत पसंद हैं। अब तो मीर भाई अमीरी के अंदाज में बड़ी खामोशी से सबकुछ देखते हुए अनजान राहों पर निकल पड़ा है क्योंकि वह जानता हैकि कभी नाक सुड़कने और गली गली कुल्हड़ छाप चाय बेचने वाला रमफेरवा अब श्री रामफेर जी उसके पाले में दबंग बन कर खड़ा है।
भाई इन सबको फसाना समझिये क्योकि फसाने अफसाने का मुखौटा लगा कर चंद दिनों तक ही दिलो दिमाग पर छाए रहते हैं।बाद में पेज वही बस कवर बदल दिए जाते हैं। उसके लिए चाहिए फुरसत। फुरसत है कहाँ क्योंकि पूरी अवधि तक बैलेट बक्सा ढोते बीत जाता है। कभी पंचायत तो कभी नगर निगम या कभी असेम्बली का आशियाना। वही कहावत की सुबह होती है शाम होती है उम्र यूं ही तमाम हो जाती है। ऐसे में श्री रामफेरजी अमीर साहब को बनारसी पान का बीड़ा पेश करते हुए कहता है अमीर चचा जो बनना है बन जाओ जब तक हमारा जलवा है। मुझे तो रोज वाले इलेक्शनी बल्लेबाजी से फुरसत नही है कि अपने मुहल्ले वालो का हाल हवाल ले सकूं। अलबत्ता उन्हें तरक्की की लफ्फाजी सुना कर दिल बहला सकता हूं। मानव को आदि मानव बना सकता हूँ। समझे कुछ अमीर चचा?
***********************
आली जनाबों की बल्ले-बल्ले..!
अपनी अधखुली पलके, मायाजाल को चीरते हुए जब अपने सूबे के आली जनाबों को बल्ले-बल्ले करते देखती हैं तो भूल गया अपने पड़ोसी रमफेरवा, जुम्मन चाचा और फुलमतिया की झाड़ू-बहारू करती माई को। बेचारों ने कितनी बार अपने खाते-पीते मालिकों से दरमाहा बढ़ाने के लिए हाथ-पैर जोड़े लेकिन उनके दिल नहीं पसीजे। फिर भैया पसीजे भी कैसे? ठंडक जो पड़ रही है। इसी ठंडक के सुहाने मौसम में दो पैग गले से नीचे लुढ़काते हुए किसी ने तो फुलमतिया बेसहारा माई से डपट कर कहा ‘अब अगर दरमाहा बढ़ाने का फिर नाम लिया तो समझ लो तुम्हीं को लुढ़का देंगें। काम करना है तो कर वरना अपना रास्ता पकड़ मगर फुलमतिया पर तो तरस खा।‘
अपने दायरे में रहने की तो मैं हमेशा कोशिश करता हूँ लेकिन कमबख्त इस नश्वर शरीर के भीतर धड़कता एक अदद दिल है, जो मानता नहीं। आली जनाबों की बल्ले-बल्ले और वेतन-भत्तों की बढ़ोत्तरी के नाम पर सत्ताधारी और विपक्ष वाले अबीर गुलाल उड़ाते हुए गले मिल रहे हैं। उधर एक विश्वविद्यालय वाले काबिल गुरूजी लोग ठूंठे पेड़ो के नीचे हफ़्तों से भूखों रहकर कफन का जुगाड़ कर रहे हैं क्योंकि राशन वाले की झिड़की दूध वाले की पैंतरे बाज़ी और दूसरे लोगों की फ़ज़ियत से कोई दूसरा चारा भी बाकी नहीं रह गया है इनडाइरेक्ट में वहाँ से हुक्मराम अपनी चरमराती चेयर पर उसी तरह झिड़क रहे हैं जैसे की रमफेरवा, जुम्मन चाचा और फुलमतिया की माई को झिड़का जाता रहा है।
पुराने घिसे-पिचके पनडब्बे से दो सूखी गिलोरयां मुँह में रखते हुए मीर साहब ने ताज़े अख़बार की पुरानी खबर पढ़ते हुए बताया ‘अमां सुना नहीं? अपने सूबे के आली जनाबों (माननीयों) के दरमाहों और भत्तो में ऐसी गोट फिट कर दी गयी है की अब कोई महंगाई की महारानी को कोसने की हिम्मत नहीं कर सकता है। देखो न सब मिलकर जश्न मना रहे हैं। अमां आज डॉ॰ राजेंदर प्रसाद और डॉ॰ राधा कृष्णनन बहुत याद आ रहे हैं जो मुल्क के गरीब गुरबों की भूख महसूस करते हुए बस उतना ही दरमाहा लेना कबूल करते थे जिसमें आम आदमी की तरह दाल रोटी चल सके। मीर साहब की बात पर मैं तिलमिला उठा। कहने लगा भाई मीर साहब आप किस ज़माने का पुराना रिकॉर्ड बजा रहे हैं। वह जनसेवा का ज़माना था और आज अपनी और अपने भाई-भतीजों की सेवा का ज़माना है। मैं कहता हूँ की उनके लिए भी तो महंगाई है। यह अलग बात है की महंगाई उन्होने ही बढ़ाने के लिए शतरंजी बिसात बिछाई और उन्होने ही उस पर ऐसी चाल चली कि दूसरे मात खा गए।
इस गुफ्तगूं के बाद अपने दायरे में सिमट कर सोचने लगता हूँ कि उनको तो पहले से ही मिलता रहा है कि महंगी के बहंगी में हो के सवार गाते रहे, ‘चलो दिलदार चलें... मगर रमफेरवा, फुलमतिया और जुम्मन चाचा से सुपर समझने वाले के लिए तो स्टैण्डर्ड ऊँचा करने आवश्यकता आवश्यक हो जाना जरूरी है भाड़ में जाये रिक्शेवाले, ईंट-गारे ढोने वाले वगैरह-वगैरह। एक बात और मजेदार है कि छठे वेतन पाने के लिए लोगों ने नाक रगड़ डाली, लाठी-डंडे कि मार सही पर कुछ किलियर नहीं हो सका। केंद्र कर्मियों के बहुत हो-हल्ला मचाने के बाद एक आयोग बनाया गया। दो तीन साल लग गए नतीजा आने में, तब से जितना मिला नहीं उससे चौगुना मंहगाई ने पाँव पसार दिए लेकिन सुनने वाला कोई अगर बढ़ने कि कोशिश भी करता तो उसे चुप कराने के लिए रातों-रात अल्लादीन का चिराग का ऐसा घिसा गया कि चिराग का देव हाज़िर होकर पूछ बैठा 'हुक्म दो मेरे आका।’ आका ने आली जनाबों के लिए कारून के खज़ाने का मुँह खोलने का हुक्म दे दिया। उनके लिए हमारा ही पेट काटकर कारुन का खज़ाना बनाया गया। आलीशान पार्क और खूबसूरत मुजिस्समें गढ़े गए मगर हुक्म की तामील करते हुए उनकी झोली में दोनों हाथों से उड़ेल दिया गया और रट लगाई जाती रही कि हम तो पब्लिक के पैरोकार हैं। उनका पेट भरना हमारा पहला फर्ज़ है।
अब न तो कोई चमन उजड़ेगा और न किसी का जहाँ बरबाद होगा। यानी सब ज़ुबानी जमा ख़र्च। ख़र्च तो उन्हें अपना देखना है जबकि बस से लेकर उड़नखटोला तक से यात्रा मुफ्त। टेलीफोन मुफ्त। नाश्ता-खाना मुफ्त। इन सबके बावजूद चिंता किसी आयोग द्वारा विचार किए वेतन भत्तों में गज़ब का इज़ाफ़ा। शान-शौकत का सबूत उनके पीछे बजते हूटर। आली जनाबों की यह है गरीबी तो फिर रमफेरवा जैसों को क्या कहा जाएगा? आज ऐसे ही जनसेवा की छाँव में जम्हूरियत हाई जम्प करते हुए मुस्कुराहट बिखेर रही है और कह रही है कि पहले खुद खा कर डकार लो फिर दूसरों का पिचका हुआ पेट निहारो। गांधी, विनोबा, धीरेंद्र भाई और लोहिया के देश में ऐसे जनसेवियों के क्या कहने? लेकिन भाई सोचना पड़ता है कि...‘जीना यहाँ, मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ?’ सबसे अच्छी बात तो यह है की सब दुगुनी बनाने के चक्कर में हैं क्योंकि आखिर आली जनाबों का मुल्क है। वे किसी से पीछे क्यों रहे?
****************
यूं तो लोग बड़ी बेबाकी से कह देते हैं कि जीवन एक रंगमंच है और हम सब उसके अभिनेता । बात भी उनकी सौ परसेंट सही है किंतु कथनी और करनी में कई कई किलोमीटर की दूरी दिखाई पड़ती है।
"अभिनय की परिभाषा उतनी आसान नहीं जितना हम समझतें हैं पर उतना मुश्किल भी नहीं कि अगर हम समझना चाहें तो न समझ सकें।" यह वाक्य मेरे नही बल्कि मेरे रंगमंचीय गुरु स्व पृथ्वीराज कपूर जी के है जिन्होंने पहली मुलाकात में बतौर दीक्षा के कही थी।
उसे मैंने अपने जीवन मे उतारा, परखा तो सत्य और सफलता के करीब पहुंचा। कभी कभी किसी की कही हुई कोई बात जीवन मे धंस जाती है और अगर उस पर अमल किया जाए तो सफलता अवश्य कदम चूमती है।
'अभिनय' शब्द को यदि गंभीरता से लिया जाए तो उसकी उत्त्पति और प्रयोग के बारे में हम उलझ कर रह जाते हैं। मेरे विचार में यदि जीवन को अभिनय की तरह जिया जाए तो बखूबी जिया जा सकता है। अभिनय का सरल अर्थ है कि अपने जीवन को किसी किरदार में ढालना। यद्द्यपि यह उतना सरल नही है जितना हम समझते हैं क्योंकि प्रकृति ने दो व्यक्तियों को एक जैसा नही बनाया। उसकी भाषा रूप और स्वभाव के साथ कार्य शैली में अंतर होता है।
अभिनय शास्त्र के पुरोधाओं ने इसे इतना क्लिष्ट बना दिया कि आमजन के गले नही उतर पाती। आदरणीय कपूर साहब ने कम शब्दो मे बहुत कुछ बता दिया जिसके कारण मुझे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता दिखाई दी, चाहे वह प्रारंभिक दिनों की रेलवे खलासी का पद हो या आगे चल कर क्लास वन प्रिंसिपल की भूमिका रही हो। एन डी ए हो एन एस डी। अभिनय में दो पक्ष होते है -एक नायक दूसरा खलनायक। जैसे जीवन मे सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा होती है।
किसी नाट्यकार को नाटक लिखते समय दोनों पक्षों के साथ न्याय करना होता है। इसीलिए नाटक लेखन एक कठिन विधा होती है जिसमे लेखक को दोनों किरदारों में ढलना पड़ता है। मेरे विचार में एक कुशल रंगकर्मी को निम्नलिखित टिप्स पर ध्यान देना आवश्यक होता है जिसे एक सफल निर्देशक को बड़े ध्यान से परखना होता है।
1- प्रस्तुति- हर व्यक्ति के भीतर एक अभिनेता पल रहा होता है। बस उसमे खो जाना होता है। जैसे आत्मा शरीर में खो जाती है। किरदार को आत्मसात कर लेना होता है। आपने देखा होगा कि स्व बलराज साहनी जब कोलकाता की सड़कों पर हाँथ रिक्शा खींचते हुए दौड़ते हैं तो उनके भीतर का काबिल बलराज साहनी खो जाता है और बन जाता है सिर्फ एक गरीब रिक्शेवाला।
2- शारीरिक भाषा(बॉडी लैंग्वेज)- किरदार के लिए इसका बहुत महत्व होता है वरना किरदार के साथ न्याय नही किया जा सकता है।
3-उच्चारण- संवाद में लिखे शब्दों के उच्चारण पर बहुत ध्यान देना हर कलाकार के लिए जरूरी होता है वरना नुक़्ते के हेर फेर से ख़ुदा जुदा हो जाने का डर बना रहता है।
4- पात्र के अनुसार संवाद अदायगी बहुत जरूरी है। टाइमिंग का ध्यान रखना आवश्यक है। पर अस्वाभाविक नही होना चाहिये।
5-अनुशासन तो ऐसी धुरी है कि जिस पर सम्पूर्ण जीवन निर्भर होता है।
आइये, आपको बोरियत से निकाल कर मनोरंजन की महकती फिजाँ से रुबरु कराना चाहता हूं।
6- आत्म विश्वास- यह सबसे बड़ी बात होती है। आप यदि मंच पर वक्ता के रूप में खड़े है तो पूरे कॉन्फिडेंस के साथ अपनी बात कहिये। भूल जाइए कि दर्शक या श्रोताओं में आप से भी अधिक एक से एक क़ाबिल लोग मौजूद है। मर्यादित भाषा में निर्भीकता के साथ अपनी बात रखिये। निर्भीकता ही सच्चे अभिनय की बुनियाद है।
मेरे एक थियेटर का एक पात्र डायलॉग बोलते बोलते बहक जाता था। स्क्रिप्ट में लिखे संवादो में अपना सम्वाद जोड़ देता था। निर्देशक भी परेशान रहते थे। वैसे कलाकार बहुत अच्छा था। निर्देशक ने मुझसे कहा कि इसके लिए ऐसा सम्वाद लिखो कि यह भटकने न पाय। सिचवेशन था दो पात्र आपस में बाते करते हैं। तीसरा व्यक्ति आकर टपक पड़ता है। एक पात्र जो पहले से बातेँ करता है कहता है," हम दोनों धार्मिक धर्मकच्चर के विशाल प्रांगण में राक्षस की खटापट कैसी?शीघ्र निष्काषित करो वरना पतन की ठेलापेल में हम दोनों की छीछालेदर हो जाएगी। वह देखो, शनि की विशाल वाहिनी सेना हमारी भाग्यरेखा के चक्रव्यूह को विध्वंस करने तीव्रगति से अग्रसर होती प्रतीत होती है। शीघ्र निष्काषित करो।"उस पात्र का नाम नाटक में था पंडित शारदा नंद चतुर्वेदी ज्योतिषाचार्य ब्रह्मचारी। अब इस संवाद के लिए अभिनेता को महीनों होमवर्क करना पड़ा होगा।
कहने का तात्पर्य यह है कि फ़िल्म में तो दो चार कैमरों के सामना करना पड़ता है जबकि मंचीय कलाकार को पब्लिक रूपी सैकड़ो हज़ारों कैमरों का सामना करना होता है। यहां रीटेक की गुंजाइश भी नही होती है और न निर्देशक पैकअप चिल्ला सकता है।
इस अभिनय की अंतरतम भावना से जीवन के किसी भी मंच पर सफलता मिलेगी , चाहे आप शिक्षक हो या किसान , जवान अथवा गृहस्थ।
अपनी नाट्य पुस्तक 'अभिनय' में मैंने अपने अनुभव बांटने की कोशिश की है। लेकिन याद रखिये 'सितारों से आगे जहां और भी हैं'।
यह इति नहीं है, प्रारम्भ है।
साभार,
*****************************
(आलेखकार, व्यंगकार, रचनाकार सुदामा सिंह के विस्तृत आलेख संग्रह को पढने के लिए निचे लिंक पर क्लिक करें..! )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें