22 जनवरी 2021

आलेख :- सुदामा सिंह " मस्तकलम "

रंगमंच से जुड़ा एक अनुभव..!
आज मैं 17 जनवरी 2021, दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित 'भय से उपजा अभिनय गुरु' पढ़ रहा था। प्रस्तुत लेख सुप्रसिद्ध रंगकर्मी कांस्टेटिन  स्टैंनिस्लावस्की से संबंधित था। जब वह 4-5 वर्ष आयु के थे तो उन्हें एक नाटक के लिए चुना गया।उन्हें न कुछ बोलना था न कोई एक्शन देना था। सिर्फ हांथ में एक छोटी सी छड़ी ले कर बैठना था। खूब समझा दिया गया था कि कोई हरकत नही करेंगे। मंच पर रुई बिछा दी गई थी और पास के नकली पेड़ों की डालियों पर रुई के बड़े बड़े फाहे चिपका दिए गए थे जिससे बर्फबारी का आभास हो। बच्चे से कह दिया गया था कि बिना किसी निर्देश के कोई हरकत नही करे गा। पास में स्टेज पर दो चार मोम बत्तियां जला दी गई थीं। नाटक चल रहा था कि उस बच्चे को न जाने क्या सुझा कि उसने हाँथ में पकड़ी लकड़ी से एक मोम बत्ती की जलती लौ को चहल दिया। मोम बत्ती गिर गयी और देखते देखते पूरा मंच आग की चपेट में आकर खाक हो गया। बच्चा भाग खड़ा हुआ। बाद में उसे पश्चाताप हुआ कि यह उसने क्या कर दिया? अब तो उसे कोई अपने थियेटर में लेगा ही नहीं। उस बच्चे के मन में 32 वर्ष की उम्र तक वही डर बना हुआ था और वह उस भूल का विश्लेषण करता रहा। उसके बाद भी जब किसी नाटक में रोल मिलता तो उसके सामने बचपन की वही भूल ज्यादा जाती जिसने उसे परिपक्व बना दिया।वह हमेशा अपने साथ एक डायरी रखता जिसमे अभिनय में अपनी भूलों को नोट करता जो आज तक बड़े बड़े रंगकर्मियों  को सीख देती है।
मेरे यह लिखने का मक़सद सिर्फ इतना है कि यदि हम अपनी पिछली भूलों पर चिंतन मनन करें तो वही भूल एक दिन हमे महान बन देती है। मेरे जीवन मे भी ऐसी घटना घटी है। उन दिनों 1964 में रेल विभाग कोलकाता के लिलुआ वर्कशॉप में नियुक्ति हुई थी। रहता था रेस्टहाउस में। बगल के कमरे में एक हिंदी नाटक 'मिट्टी की गाड़ी' का रिहर्सल चला करता था। किसी को नही पता था कि मुझे भी थियेटर से लगाव है। मैं रोज रिहर्सल वाले कमरे के एक कोने में बैठ जाए करता था। उसमें कई लोग मेरे परिचित भी थे। उनदिनों लंबे ऐतिहासिक या धार्मिक नाटकों का चलन था। रेलवे के योरोपियन क्लब नाटक शुरू किया गया था।कोलकाता के नामी गिरामी रंगकर्मी  नाटक के पात्र थे। मेरी रुचि को देखते हुए नाटक के निर्देशक ने मुझे एक सीटी दे दी क्योंकि उस समय सीटी के साथ प्रत्येक सीन के साथ पर्दा गिराया और उठाया जाता था। थियेटर का अच्छा खासा एन एस डी में प्रशिक्षण प्राप्त होने के बावजूद भूल कर बैठा। स्व पृथ्वी राज कपूर के नाटकों में भी यह सिस्टम नही था।मैं वहां बिल्कुल अनभिज्ञ बना हुआ था। हां तो नाटक बिल्कुल क्लाइमेक्स पर था कि मुझे पता नही क्या सूझा कि मैंने पर्दा गिराने के लिए सीटी बजा दी। कुछ ही पल में मुझे अपनी बहुत बड़ी गलती का एहसास हुआ तो भाग कर दूर एक बाथरूम में अपने को छुपा लिया। उधर दर्शक और कलाकार हंगामा मचा रहे थे। आज भी वह भूल याद करके बहुत पछताता हूँ। लेकिन एक सीख मिली। तब से बहुत स्टारखो गया। अब तो वैसे लंबे नाटक होते ही नही। अब अधिकांशतः नाटक। एक या दो सीन के खेले जाते है और लाइट पर सब काम होता है। लेकिन उस भूल ने मुझे सफलता की नई राह दिखा दी।

बोलो क्या-क्या खरीदोगे..??
भले अपने गांव वाली फुलमतिया चार-छ: पेबंद लगी पुरन की साड़ी लपेटे अपने शहीद हुए सिपहिया पति के मुवावजे के लिए सड़क-सड़क की ख़ाक छानती दिखे। वही अफसर अब मुँह घुमा लेते हैं जिन्होनें बड़ी-बड़ी बातें की थीं। भले अपनी नुक्कड़ वाली टुटही हवेली से सूखा मुँह लिए मीर साहब नज़र आते हों जिनका मुँह कभी बेगम के हाथ से लगी गिलौरीयों से भरा दिखाई देता था। आज मीर साहब बयान करते-करते रो देते हैं कि भाई जब से बेगम अल्लाह को प्यारी हो गयीं किसी बहू को फुर्सत नहीं है कि गिलौरीयां पनडब्बे में भर दे। उल्टे कहती हैं अब्बा यह कौन सी लत पकड़ रक्खी है आपने? हुक्का खुद भरिए और कोने में बैठे-बैठे गुड़गुड़ाते रहिए।
अपने दायरे में सिमटा हुआ याद करता हूँ वो दिन जब आज की फटेहाल फुलमतिया कल को मिसेज फूलमती वाइफ़ ऑफ सूबेदार मेजर सूरज सिंह कहलाती थी। गज़ब का रुतबा था। सोचता हूँ आज के डिस्पोजल गिलास की तरह चुचके-पुचके मीर साहब बीते हुए कल के मीर साहब का क्या जलवा था? मजाल कि शेरवानी में शिकन तो पड़ जाए। बैठके में राय मशविरे के लिए डी॰एम॰ से एस॰एस॰पी॰ तक डेरा जमाए रहते थे। मुझे याद है चार-चार सेर दूध चचा मौला बख़्श के घर से खरीदा जाता था। अपना रमफेरवा कभी-कभी पूछता था कि चचा मियाँ इतना-इतना दूध क्या होता है? मीर साहब तपाक से जवाब देते, नामाकूल कहीं का। अरे बच्चे खाये-पीयेंगें तब न बुढ़ापे में हमारा सहारा बनेंगे। फिर यही तो उनकी उम्र है खा पीकर सेहत बनाने की। लेकिन इस उम्र में जब सुना कि बेचारे मीर साहब की बेगम की दोनों आँखें बिना चश्मे के चली गई और खुद मीर साहब एक पुड़िया तम्बाकू के लिए तरस जाते हैं तो बड़ा दुख होता है। उल्टे बड़े-बड़े भाषण सुनने को मिलते हैं कि अब्बा यह सब गंदी आदत है। तमाम बीमारियाँ रख लेती हैं। फालतू खर्च क्यों बढ़ाते हैं? देखते नहीं महँगाई कितनी बढ़ गई है?
दायरे में बैठ कर सारा ध्यान बढ़ती महँगाई की तरफ केन्द्रित हो जाता है। साग-भाजी वगैरह की महँगाई तो समझ में आ रही है पर शराफत एखलाक और सम्बन्धों पर महँगाई की मार समझ से बाहर है। इसमें कौन सी लागत लगती है?
फिर भी एक बात अलबत्ता काबिले गौर है कि इनके अलावा सभी चीज़ें इफ़राद हैं। बोलो क्या-क्या खरीदोगे? हत्या, लूट, बलात्कार और घूसखोरी बाज़ार में भरी पड़ी हैं। जो खरीदना चाहो खुले आम बिना रोक-टोक के खरीद बेच सकते हो। लूट सको तो लूट। बेहद सस्ते हैं तो वायदे और खून-कानून। कितना लिखूँ और कैसे लिखूँ? यही तो समझ में नहीं आ रहा है कि जब खूब लिखना चाहता था तो उस समय इतनी समस्याएँ नहीं थीं लेकिन जब समस्याएँ हीं समस्याएँ हैं तो लिखने को जी नहीं चाहता है। क्योंकि न पढ़ने वाले रहे, न समझने वाले। लेकिन इतना यकीन जरूर है कि राजनैतिक और सामाजिक असन्तोष एक दिन जरूर अपना रंग दिखायगा।
         

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परछाइयाँ..! (कमेंट्री)
परछाइयों की कहानी एक ऐसे खंडहर के इर्दगिर्द घूमती है जहां कभी ज़िंदगी बहारों के गीत गुनगुनाया करती थी। पथरीली वादियाँ चंदा की चाँदनी के आगोश में इतराती थी इठलाती थी। उगते सूरज की पहली किरण के साथ दूर गगन की छांव में परवाज़ करते पंछियों के साथ कलरव करते हुए दूर दूर तक के लोगों को सुनाया करती थीं कि हम वह खुशनसीब हैं जहां ‘सोने का दिन और चाँदी की रात होती है।
मगर वक़्त ने अचानक करवट बदली। सपने बिखर गए। इतिहास रो पड़ा। जो वादियाँ कभी बहारों के गीत गुनगुनाती थीं, वे कब्रिस्तान की खौफनाक खामोशी में मरसिया पढ़ने लगीं। आँधियाँ ग़म की यूं चली कि बाग़ ही उजड़ कर रह गए और दिल दहलाने वाली काली-काली परछाइयाँ उस काली रात को और मनहूस बना रहीं थीं। ऐसे में एक चित्रकार अपने तमाम रंगों से ऐसी नायाब ज़िन्दगी को उभारने की ज़िद पर अड़ा था जिसमे सब अपने-अपने अक्स बरक्स देखने के लिए बेक़रार हो उठें।

परछाइयाँ :- पात्र परिचय..! 
1. भारत (चित्रकार)
2. मलंग (विक्षिप्त एक वृद्ध)
3. प्यारेलाल
4. मिठाईलाल
5. सलीम
6. चौकीदार
7. भारती (महिला पात्र)

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( सन्नाटा! कुत्तो के भौंकने और झींगुरों की आवाज़। दूर से चौकीदार की “जागते रहो” की आवाज़ जो डंडा पटकने के साथ निकट आती जा रही है। इधर एक टीले पर मोमबत्ती की रोशनी में कैनवस पर कोई चित्र रंगता दिखाई पड़ता है। पीछे किसी जर्जर भवन का खंडहर। एक चित्रकार (भारत) चित्र बनाता रहता है।)

चौकीदार- (करीब आते हुए) अब सो जाओ बाबू, रात बहुत बीत चुकी है। मौसम भी ठीक नहीं है।

भारत- आज की रात मेरे लिए बहुत कीमती रात है बाबा। सो जाऊंगा तो यह चित्र कैसे पूरा कर पाऊँगा? घनघोर काली रात से डर जाऊंगा तो संकल्प कैसे पूरा कर सकूँगा? आज की रात मेरे इम्तहान की रात है बाबा। 

चौकीदार- मैं कुछ समझा नहीं बाबू। किसका चित्र बना रहे?
 
भारत- (चित्र को रंगते हुए) अपनी उसी भारती का बाबा जिसके लिए मैं बड़ी से बड़ी कुर्बानी देना अपना सौभाग्य समझता हूँ। उसकी मनमोहक छवि दिल में बसाये हुए दर-दर की खाक छानता रहा। कल उसके सालगिरह के जश्न में उसे यही चित्र भेंट करने की हसरत लिए रात-दिन एक कर रहा हूँ।

चौकीदार– वह तो ठीक है बाबू, लेकिन...

भारत- बोलो... बोलो... बाबा, रुक क्यों गए? 

चौकीदार- डर लग रहा है बाबू।

भारत- इसमें डरने की कौन सी बात है बाबा? यही न कि अंधेरी सन्नाटी रात है। अकेलापन है। मैं हूँ, मेरा जुनून है और अपनी भारती के लिए असीमित प्यार है। (थोड़ा हँसते हुए) फिर बाबा कुदरत कितनी रहमदिल है कि उसने मेरी राह आसान करने के लिए अनगिनत सितारों की रोशनी बिखेर दी है।

चौकीदार-  बात तो तुम्हारी बिलकुल सही है। अब मुझे ही देखो न बाबू इस भयानक रात में रोज इन सुनसान खंडहरो से गुजरते हुए पास की बस्ती तक की रखवाली करता हूँ। मुझे तो आदत पड़ गई है क्योंकि पापी पेट का सवाल है। बाप-दादों के जमाने से जान हथेली पर रख कर “जागते रहो” चिल्लाता रहा हूँ। मगर बाबू...

भारत- मगर क्या बाबा? खुल कर बताओ न। 

चौकीदार- बाबू बात असल में यह है कि तुमसे पहले भी कितने लोग इसी इरादे से यहाँ आए लेकिन उनके इरादे कभी पूरे नहीं हो पाये। उनके सपने कभी पूरे नहीं हुये।

भारत- मैं कुछ समझा नहीं बाबा। आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?

चौकीदार- बात यह है बाबू कि इस खंडहर में भटकती मनहूस परछाइयों ने उनके इरादों को कभी पूरा नहीं होने दिया। न बाबू न। भगवान के लिए इस इरादे को छोड़ दो। छोड़ दो यह इरादा बाबू। अपने जीवन से खिलवाड़ मत करो बाबू।

भारत- (हँसते हुये) जब जीवन एक खिलौना है तो खिलवाड़ करने में हर्ज़ ही क्या है बाबा? यही न कि खिलौना टूट जाएगा? टूटना और जुड़ना तो प्रकृति का नियम है। इससे बच कर हम कहाँ जा सकते हैं?

चौकीदार- बात तो ठीक कहते हो बाबू। मगर बीते सत्तर-पछत्तर वर्षों से इन बूढ़ी आँखों ने सराय के इस खंडहर में मंडराती मनहूस परछाइयों की काली करतूते देखीं हैं। बाबू यह सराय यूं ही वीरान होती चली जा रही है। जरा ध्यान से इसका रोना सुनो।

भारत- बाबा ये खंडहर बता रहे हैं कि कभी इमारत बुलंद थी। ज़रा याद करो बाबा कि कौन कहता है आसमां मे छेद नहीं होता, ज़रा प्यार से एक पत्थर तो उछालों यारों। इसी हिम्मत के सहारे तो इस वीराने में आ गया हूँ।

चौकीदार- (हँसते हुए) वाह… बाबू वाह...! बहुत हिम्मत वाले हो।

भारत- इसी हिम्मत के बल पर तो बाबा अपने इस चित्र के माध्यम से उस भारती की प्रतिमूर्ति आज़ादी की उपासना में लगा हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक न एक दिन वह अवश्य प्रसन्न होगी और फिर ये  वादियाँ बहारों के गीत गुनगुना उठेगी। (कुछ रुक कर) सुनो बाबा, थोड़ा पीने को पानी मिल सकता है?

चौकीदार- अभी लाये देता हूँ बाबू। (उसी तरह ‘जागते रहो’ की हांक लगाते हुए जाता है)
भारत- (चित्र रंगते हुए स्वतः) काश, मेरी तपस्या पूर्ण हो जाती। मेरी भारती का उपहार स्वरूप मेरा चित्र पूरा हो जाता, तो मैं इस खंडहरनुमा सराय को ऐसे भव्य मंदिर में बदल देता जो सब जीवों का तीर्थस्थल बन जाता।

मलंग- (ठहाके के साथ प्रवेश) ह ह ह ह ह... तीरथ? बहुत अच्छे। मगर बाबू अछूतों को मत आने देना। समझे? कुछ नहीं समझे। अरे तुम लोग तीरथ के नाम पर धंधा करते हो धंधा। हुंह, तीरथ बनाएँगे (हँसते हुए) तीरथ... हा हा हा हा! 

भारत- मैं उस तीरथ की बात कर रहा हूँ जो सब का हो, सब के लिए हो और जिसका निर्माण सब के द्वारा हो। जिसमें किसी भाषा, धर्म जाति और संप्रदाय का बंधन न हो। उस परम पवित्र वंदे-भारती के भव्य भवन से निकलती हो कलकल करती प्रेम की अविरल धारा।

मलंग- आज़ादी! अरे आज़ादी कुर्बानी चाहती है। दे सकोगे कुर्बानी? नहीं दे सकोगे। याद करो तुम में से ही किसी ने कहा था, ‘तुम हमे खून दो, हम तुम्हें आज़ादी देंगे’। अरे तुम लोग स्वार्थी हो स्वार्थी। आज़ादी। ह ह ह ह... (हँसते हुये) देखते रहो सपना आज़ादी का। अपने पापी हाथों से भारती को नज़राना पेश करोगे? नहीं कबूल करेगी भारती, नहीं आएगी आज़ादी। (जाता है)।

चौकीदार- (प्रवेश) पानी पी लो बाबू। (पानी भरा गिलास देते हुये)

भारत- (गिलास लेते हुये) यह कौन था बाबा?

चौकीदार- एक सनकी है बाबू। लोग इसे मलंग कहते हैं। बताते हैं कि अंग्रेज़ो के जमाने का क्रांतिकारी रहा है। इसका एक ही लड़का था जो फौज में रहते हुये शहीद हो गया।

भारत- मगर यह इन वीरान खंडहरो में क्या करता है?

चौकीदार- बाबू जिसकी ज़िंदगी खंडहर बन चुकी हो, वह जाएगा कहाँ? इन्ही खंडहरो में कभी हँसता है, कभी रोता है और कभी कोसता है समाज के उन खुदगर्ज़ लोगों को जो सहानभूति के नाम पर इसका मज़ाक उड़ाते हैं। अच्छा मैं चलूँ बाबू (‘जागते रहो’ की हांक लगाते जाता है।)

भारत- कुछ देर तक उसकी दूर जाती आवाज़ को सुनता है और फिर दूसरी मोमबत्ती जला कर अपने चित्र को रंगने मे तल्लीन हो जाता है।)

(प्यारेलाल और मिठाईलाल का प्रवेश)

मिठाईलाल- अरे प्यारे भैया यह हम लोग कहाँ आ गए?
प्यारे लाल– अबे धीरे बोल। देखता नहीं, लगता है कि हमलोग नशे में गलत जगह आ गए। कहीं किसी आतंकवादी ने देख लिया तो लेने के देने पड़ सकते हैं।
मिठाईलाल- प्यारे भाई, तुझे कुछ ज्यादा ही चढ़ गई है। हम लोग बिलकुल सही जगह आ गये हैं। अरे यही तो है जिसे दुनिया ढूंढ रही है। वही कोरोना कंपनी का मालिक। (झूमते हुए) अब कहाँ जाओगे बच्चू बचके?
प्यारेलाल- अबे चल तू जाने तेरा काम जाने। लेकिन जरा आंखे खोल कर देख वोह तो अपने मुलुक का है कच्ची पीने वाला। भैया मिठाईलाल। 
मिठाइलाल- बात जो भी हो मेरे आई मगर पीने-पिलाने की इससे बढ़िया जगह कहीं और नहीं हो सकती है। कसम उड़ान-झल्ले की यार यहाँ साला महाजन तगादे के लिए नहीं पहुँच सकता।
प्यारेलाल- (हँसते हुए) लगे है बाबू बैटरिया फुल चार्ज हो गई है। निकाल इसी बात एक और बोतल। कसम से जी भर कर पीने पिलाने का यही तो मौसम सुहाना है। साले कोरोना की बीसियों पीढ़ियाँ हमारी परछाईं तक नहीं छू सकती है।
मलंग- (प्रवेश ) बहुत अच्छे... दवा बंद, दारू चालू। रेल बंद, खेल चालू। अरे बाबू जरा तुम भी चख लो देशी न सही अँग्रेजी ही सही, भारती खूब खुश हो जाएगी। बड़का इनाम मिलेगा। (हँसता है)। अरे कागज़ नहीं दिल चाहिए भारती को। दे सकोगे दिल, नहीं दे सकोगे। तुम्हारी भारती दिल चाहती है।
मलंग- (ठहाके के साथ प्रवेश) ह ह ह ह ह भारती के चित्र बनाने का नाटक... मलंग को सब पागल कहते हैं। अरे तुम सब खुद पागल हो कर पब्लिक को पागल बना रहे हो। अरे भारती के नाम पर तुम सब लूट रहे हो सबको। कभी धरम के नाम पर तो कभी जात के नाम पर। ऐसे में कभी चित्र पूरा नहीं होगा.... कभी पूरा नहीं होगा। उसके लिए चाहिए पवित्र मन और मजबूत इरादा। है? नहीं है। नहीं है। (हँसते हुए जाता है)
भारत- (कैनवस पर सिर पटकते हुए) ओफ्फ ! ये मनहूस परछाइयाँ... लगता है मेरा संकल्प कभी पूरा नहीं होगा? क्या भेंट करूंगा कल उसके जन्मदिन पर?
भारती- (पहाड़ी वेषभूषा मे प्रवेश) किन परछाइयों की बात कर रहे हो?
भारत- आप?
भारती- मेरा नाम भारती है। पास के गाँव मे रहती हूँ। बचपन में ही अनाथ हो गई। जब आज़ादी की तेज़-तर्रार भाषा ने मुझे सनाथ होने का गौरव दिया तो फिरंगी हुकूमत ने मुझे काला पानी की कालकोठरी में डाल दिया। किसी तरह कुछ हमराहियों की मदद से निकल कर यहाँ तक पहुंची तो घरवालों ने ही मेरी यह हालत बना डाली। देख रहे हो मेरी दशा? वह तो कहो इस गाँव के चौकीदार ने मुझ पर बड़ा एहसान किया।     
भारत- वरना, वरना क्या?
भारती- वरना यही कि यह चित्र बनाने का जुनून भी नहीं रह जाता तुम्हारा।
भारत- तभी वह चौकीदार कह रहा था कि बाबू मुझे डर लग रहा है। तुम्हारी तरह कितने लोग आए मगर यहाँ की खौफनाक काली-काली परछाइयों ने उनके सपने कभी पूरे नहीं होने दिये, उनके सपने कभी साकार नहीं होने दिये।
भारती- कब की बात है?
भारत- अरे अभी थोड़ी देर पहले की बात है। जैसे ही मैंने अपने कैनवस पर चित्र को रेखांकित शुरू किया था। ‘जागते रहो’ की हांक लगाते हुए मेरे पास आया था। बल्कि मेरे मांगने पर मुझे पानी भी लाकर दिया था।
भारती- शायद तुम किसी सपने की बात कर रहे हो?
भारत- सपना नहीं हक़ीक़त। सिर पर गरम टोपी, बूढ़ा किन्तु तंदुरुस्त, एक हाथ में लालटेन और एक हाथ से लाठी पकड़े हुए ठक-ठक करता हुआ मेरे बिलकुल पास आ कर समझा रहा था। बल्कि उसके चेहरे पर खौफ़नाक परछाइयों का भय साफ नज़र आ रहा था।
भारती- (खिलखिला कर हँसती है) तुम्हें सचमुच धोखा हो गया चित्रकार। अरे उसे शहीद हुए तो बरसों बीत गए। मेरी जान बचाने में उसे आतंकियों के हाथ अपनी जान गंवानी पड़ी। लेकिन... (दुखी होकर) उसी के रूप में आज भी उसकी आत्मा इन घाटियो मे भटका करती है और लोगो को सावधान किया करती है।
भारत- तो सचमुच तुम्ही असली भारती हो?
भारती- अभी भी तुम्हें शक है चित्रकार? जरा अपनी आत्मा से पूछो।
भारत- लेकिन तुम्हारी यह दशा? फटे पुराने चीथड़ों मे किसने तुम्हारा यह रूप बना दिया?
भारती- (हँसते हुए) तुम्हारे अपने लोगों ने सिर्फ अपने स्वार्थ मे ले लीन्हा दुपट्टा मेरा।
भारत- मगर हमें तो तुम्हारा बहुत आकर्षक चित्र दिखाया जाता है।
भारती- सिर्फ कागजों पर न? चित्रकार, अब यह देश सिर्फ कागजों पर चल रहा है। कागज़ और भाषण के समंदर मे तैराई जा रही है अपने अरमानों की कश्ती। कब सुनामी के बवंडर में डूब जाएगी? किसी को पता नहीं।
भारत- (आक्रोशित) नहीं चाहिये मुझे ये कागज़ कैनवास और तूलिका। नहीं चाहिए ये नकली रंग और न मुझे सजाना है कागज़ पर नकली भारती की नकली तस्वीर।
मलंग- मलंग तो पागल है। कौन सुनता है उसकी बात? नकली भारती पर बड़ा गुमान है। असली भारती की नकली कुर्सी पर बैठ कर आज़ादी का बेसुरा तराना सुनाते हुए खिलवाड़ कर रहे हैं। झूठ का गट्ठर लादे बेचारे गरीब-गुरबों को मूरख बना रहे हैं।  कोई नहीं सुनने वाला है इन घाटियों का रोना। कोई नहीं सुनने वाला है.... (जाता है)
भारती- मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो चित्रकार वरना नाहक तुम्हें भी अपनी जान गंवानी पड़ेगी। वैसे भी पहले मेरे खातिर कितने लोग अपना बलिदान दे चुके हैं।
भारत- वंदे भारती। कहते हैं माँ के कदमो के नीचे जन्नत होती है। जिस पवित्र माँ के लिए मैं दर-बदर की ख़ाक छानता रहा, अपनी कल्पना के सहारे कागजों पर उसका चित्र बनाता रहा, वह जब साक्षात मेरे सामने आ गई तो मेरी तपस्या सफल हो गई। उसके लिए अगर प्राणों की आहुति भी देनी पड़े तो कम है। (खुशी से पुकारता है) सलीम... सलीम। 
सलीम- आया मेरे भाई भारत। बहुत खुश नज़र आ रहे भाई?
भारत- एक लावारिस बेटे के सामने उसकी माँ खड़ी हो तो उसका बेटा बेपनाह खुश नहीं होगा? तुम्ही बताओ सलीम भाई कि इससे ज्यादा खुशी की बात क्या होगी?
सलीम- बेशक। मेरे लायक खिदमत? तुम्हारी ही नहीं, हम सबकी मुक़द्दस माँ है। लेकिन इन फटे पुराने चीथड़ों मे ये हालत किसने बनाई? क्या कल होने वाले जश्ने-आज़ादी में यूं पेश करोगे?
भारत– हाँ सलीम भाई जिससे लोगों की आखें खुले, जो भारती के लिवास की जगह अपने लिबास की फिक्र में मरे जा रहे हैं। आज़ादी के नकली मंडप पर खूब इतराते हैं और अपने को भारती की सच्ची औलाद मानते हैं। उन्हें दिखाऊँगा कि देखो अपना सुनहरा लिबास और माँ भारती का यह मैला–कुचैला चिंदी-चिंदी उड़ता लिबास।
सलीम- ओफ! वाह री औलादों। एक तो माँ अपनी नालायक औलादों तक को कभी बददुआ नहीं देती है और अगर आजिज़ होकर बददुआ देती है तो उसे खुदा भी कभी माफ नहीं करता है। बहरहाल इस नाचीज़ के लिए खिदमत बताइये।

(भारत कैनवस-स्टैंड के पास भारती के कपड़े संभालते हुए एक चट्टान पर बैठाने मे लग जाता है। सलीम खड़े-खड़े देखता है)
भारत– मलंग ठीक कहता था हमलोगो ने अपनी भारती के लिए कितनी कुर्बानियाँ दीं, कितनी यातनाएं सहीं। याद करो बरसों पहले का वह खुशनसीब दिन जब हम और भारती लालकिले की उस बुलंद इमारत पर चढ़ते हुए एक हो जाना चाहते थे। तभी किसी अज्ञात छाया ने हरदिल अज़ीज़ माँ को हमसे छीन कर आज़ादी के नकली मंडप में किसी नकली माँ का एक नकली मुजस्सिमा खड़ा कर दिया।
मलंग- (हँसते हुए) यूं ही लुटते रहोगे तुमलोग। तुम्हारे अपने ही तरह-तरह के झूठे सब्ज़बाग दिखाकर लूटते रहेंगे। बारिश के पानी में कागज़ की कश्ती पर हो के सवार फूले नहीं समा रहे होगे। तुम लोग मलंग को मूरख समझते हो न, समझा करो। अरे मूरख हम नहीं तुम लोग हो जो असली नकली की पहचान नहीं समझते हो। (जाता है)
सलीम- (कुछ आहट पा कर) कौन है, कौन है? (देखने के लिए उसे सलीम आगे बढ़ता है)
मिठाईलाल- (हाथ में चाकू लिए हुए) तो मैं भाग कहाँ रहा हूँ? मैं तो उस ससुरे प्यारेलाल को ढूंढ रहा हूँ। मिले तो आज उसकी जान ले लूँगा। 
सलीम– अरे जा जा भाई। इतनी रात इस हालत में पुलिस देख लेगी तो मुंह मे बीड़ी और हाथ में लालटेन थमा कर सीधे भीतर कर देगी। जाकर सो जा! सुबह होगी तो ढूँढना उसे।
(भारत खाँसते हुए भारती के कपड़े ठीक करता है और कैनवास वाले स्थान पर बैठाता है)
मिठाईलाल- मैं सो जाऊँ बाबू? मेरी जगह होते तो तुमको भी नींद नहीं आती। अब तों साले प्यारेलाल की जान लेने के बाद ही चैन की नींद सोऊंगा बाबू। उसने दारू पिला  कर मेरी घरवाली की जान ले ली। मैं उससे लाख विनती करता रहा कि मुझे घरवाली के लिए दवा लेकर जाना है मगर उसने कहा कि धत तेरे की अबे घरवाला दारु को तरसे और घरवाली दवा पिएगी? बाबू आज अगर वह मिल जाये तो उसका खून पी जाऊंगा।
भारत- (इधर मुखातिब होते हुए) तो फिर ये दारू पीने-पिलाने की आदत क्यों रखी तुमलोगों ने?
मिठाईलाल- तो बड़े साहब बंद क्यो नहीं करा देते ये देसी-विदेसी दारू की दुकानें? सुनोगे बाबू लोगों? मैंने दारू पीना क्यों शुरू किया? बड़े लोगो के ज़ुल्म और महाजनों के कर्ज़ से इतना दब चुका था की मैं इसके आगे कुछ सोच ही नहीं सकता था। इधर जवान बेटी के हाथ पीले करने की चिंता और उधर लड़के वालों  की दहेज के नाम पर ऊंची मांग पर मांग। आखिर मे मेरी बच्ची से ये सब नहीं देखा गया और उसने गंगा की गोद में हमेशा के लिए सोने का फैसला कर लिया। बर्दाश्त कर सकोगे मेरा दर्द बाबू? उस पर से घरवाली की मौत का सदमा और आठ- आठ बच्चों का बोझ। दारू न पीता तो क्या करता?
भारत- ओफ्फ़! बंद करो अपना रोना। सलीम भाई, इससे कह दो चला जाय यहाँ से।
प्यारेलाल- हाँ बाबू कौन सुनेगा हमारा रोना? सब सिर्फ सब का साथ सब के विकास का ढ़ोल पीटते हैं लेकिन हम लोग छोटे लोग हैं न बाबू, हमारा दर्द कोई सुनने वाला नहीं है। बुला लो पुलिस को और लटकवा दो मुझे फांसी पर। मगर मैं उस साले मिठाईलाल से बदला लिए बिना नहीं रहूँगा। (गुस्से में चाकू लहराता हुआ जाता है)
सलीम- अरे सुनो तो, कहाँ जा रहे हो? बात तो सुनो।
मलंग– (हँसते हुए प्रवेश) हा हा हा हा सब रंग बदरंग हो जाएगा। देखा परछाइयों के बदलते रूप... अरे मलंग की आंखो ने तो उन्हे बहुत करीब से देखा है। अब तो उसके आँसू भी सूख चुके हैं। इसीलिए तो उसे नफरत हो गयी है तुम लोगो से। सब उसे पगला कहते हैं। हाँ हाँ मलंग पगला है।
भारत- (खाँसते खाँसते बेदम हो जाता है) ईश्वर के लिए चले जाओ यहाँ से। मुझे अकेला छोड़ दो। (सलीम उसे पानी पिला कर संभालता है)
मलंग- बस कर चुके तस्वीर पूरी अपने भारती की? स्थापित कर चुके उसे आज़ादी के आलीशान मंडप में? देशभक्ति का फटा पायजामा पहन कर गाते रह गए तराना सिर्फ एक दिन के लिए? अरे मलंग के दिल से पूछो कितना त्याग करके उसे छुड़ा करके लाया था उन मरदूद फिरंगियों की काल कोठरी से मगर तुम लोगो ने अपने स्वार्थ में सब मटिया-मेट कर दिया। भारती की पूजा करेंगे... आज़ादी के मंडप में भारती की आरती उतारेंगे। (हँसता है)
सलीम- मलंग खुदा के वास्ते भारत को और परेशान न करो। वह यूं ही अपनी भारती की दशा पर आठ-आठ आँसू बहा रहा है। देख रहे हो भारती की हालत?
मलंग- उसके ज़िम्मेवार तुम लोग हो। बड़ी शान से गाते फिरते थे, ‘मेरी माता के सिर पर ताज रहे’ मगर उस बेचारी का ताज उसे पहनाने के बजाए खुद पहन कर खुदमुख्तार बन बैठे। ईश्वर कभी तुम लोगों को माफ नहीं करेगा... कभी माफ नहीं करेगा। (हँसते हुए जाता है)। 
भारती- मुझे कहीं दूर ले चलो भारत। यहाँ ये लोग मुझे जीने नहीं देंगे। ज़िल्लत की ज़िंदगी से सुकून से मर जाना बेहतर है। मैं मालपुआ खाऊँ और मेरे बच्चे बासी रोटी को तरसे? नहीं भारत यह नहीं हो सकता है। इससे भली तो मैं उस काल कोठरी में थी। क्या इन्ही दिनों के लिए तुम लोगो ने अपनी कुर्बानी दे कर मुक्त कराया था मुझे?
भारत- (सलीम को पास बुला कर उसके कान में कुछ कहता है) समझ गए न? कोई चूक न होने पाये भाई क्योंकि उस कुर्बानी में तुम्हारा भी योगदान रहा।
सलीम- मुझ पर यकीन रखो भारत। जिसने भी माँ भारती से बद-एख़लाकी करने की जुर्रत की तो सबसे पहले उसे मेरी लाश पर से गुजरना पड़ेगा।
भारत- मुझे तुम पर पूरा यकीन मेरे दोस्त। ठीक है तो जैसा मैंने समझाया फौरन उस पर अमल करो। 
(सलीम अंधेरे मे भारती को सहारा देते हुए ले जाता है। इधर भारत अपना सामान समेटने में लग जाता है। चारो ओर से हंसी गूँजती है)
भारत– (रुक कर घबराहट में चारों ओर देखता है) तुम... तुम लोग कौन हो?
आवाज एक- मेरी परछाईं को नहीं पहचानते भारत?
भारत- नहीं, मैं नहीं पहचानता हूँ किसी को।
आवाज़ एक- हाँ अब क्यों पहचानोगे? मैं हूँ गरीबी बेरोजगारी। कितने पढ़े-लिखे लोगों का खून पिया है तुम लोगो ने?
भारत-  तो यहाँ क्यों आए हो?
आवाज़ दो– (फिर एक डरावनी हंसी के साथ) मैं भी तो साथ हूँ। मुझे भी शायद नहीं पहचानो गे?
भारत- (घबराहट) मै तुम्हें नहीं पहचानता। तुम कौन हो?
आवाज़ दो- (हंसी) मैं हूँ बढ़ती हुई आबादी। देखो मेरे हाथ कितने लंबे हैं? तुम्हारी रोटियाँ छीनने के लिए आगे बढ़ रहे हैं।
भारत- नहीं नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। दूर हो जाओ।
आवाज़ तीन- (ठहाके के साथ) मैं कहाँ दूर जा सकता हूँ भारत? मैं तो तुम्हारा अभिन्न अंग हूँ प्यारे। भ्रष्टाचार मुनाफाखोरी। मेरे बिना तुम जी नहीं सकते हो।
भारत- (तरह तरह की आवाज़ें और भयावह हंसी सुनकर विक्षिप्त होता है) ओफ-ओ, दूर हो जाओ तुम सब के सब वरना मैं पागल हो जाऊंगा। (खाँसने लगता है) पानी... पानी...
आवाज़ चार- (वैसी हंसी के साथ) पानी... मेरे हाथ का पानी पियोगे? याद है न अपने कुएं से मुझे पानी नहीं भरने दिया था। नहीं पियोगे पानी मेरे हांथ का क्योंकि मैं अछूत हूँ न? हा हा हा हा हा हा। 
भारत- ओफ़्फ़ दफा हो जाओ तुम सब के सब। मुझे छोड़ दो अकेला। 
(चारो तरफ परछाइयाँ अपनी बात दुहराते हुए और भारत को घेरे में लेते हुए खौफनाक ठहाका लगाती है। पूरी घाटी कहकहो से गूंज उठती है।)
भारत- (विक्षिप्त होकर चिल्लाता है) खामोश... (लड़खड़ा कर अपने कैनवास-स्टैंड पर गिर पड़ता है। (सब रंग बिखर जाते हैं। हंसी धीमे पड़ती जाती है और परछाइयाँ भी धीरे-धीरे एक-एक कर गायब होती जाती हैं। भारत हाँफते हुए धीरे धीरे उठने की कोशिश करता है। दूर गोलियां चलने की आवाज के साथ सलीम दर्द भरी आवाज़ मे चीखता है।)
सलीम- भारत... होशियार इधर आतंकवादी गोलियां चला रहे है।
भारत- आया सलीम भाई। (भारत सब कुछ छोड़ कर उधर भागता है। लाइट ऑफ)

(हल्का धुंधला प्रकाश) (दूर बहुत दूर से चौकीदार की वही आवाज़ जागते रहो… जागते रहो...)

(सब लाइट ऑफ कुछ पल मे एक तरफ की लाइट धीरे धीरे बढ़ती है। पीछे पर्दे पर हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख ईसाई धर्मों के निशान बने दिखाई देते हैं।)

मलंग- (सनकी जैसा तिरंगा ओढ़े हुए मंच पर लेफ्ट-राइट लेफ्ट-राइट करते हुए घूमता है।) आज इस उजड़े हुए आज़ादी के मंडप में भारती आएगी। भाषण नहीं आज राशन बँटेगा (हँसते हुए)। मलंग मूरख है न भाइयो-बहनों। (थोड़ा दुखी) मूरख तो उसे तुम सब के खनकते चमचो ने बनाया है। (हँसते हुए) हा हा हा हा, हैं न मूरख? सत्तर-बहत्तर साल पहले आज़ादी का नकली मंडप सजाया था और असली भारती आ रही है आज। नाक सुड़कते बच्चों से ठंडी सड़क पर खूब गवाया ‘हम लाये है तूफान से कश्ती निकाल के, रखना मेरे बच्चों इसको संभाल के’। अरे मलंग की आंखो मे झांक कर देखो जब तुम सब नहीं संभाल सके तो ये सब क्या संभाल सकेंगे? अलबत्ता तुम लोगो ने अपने अपनों को संभाल कर रखा कभी धरम के नाम पर तो कभी जात के नाम पर। (बीच-बीच में नेपथ्य से चौकीदार  की आवाज़ दूर से आती हुई सुनाई देती है)

चौकीदार- खबरदार होशियार। जागते रहो।     
सलींम- मलंग माँ को ले आयें, मंडप सजाओ। (दूसरी तरफ की स्पॉट लाइट भी जला उठती है। एक का फोकस मलंग पर तो दूसरे का सलीम, भारत और भारती पर।)
मलंग- (खुशी से) सुना लोगों हम सब की भारती आ गई। असली भारती, सच्ची भारती... तुम सब की प्यारी भारती जिसके एक हांथ मे होगा पुआल और दूसरे हाथ में होगी बंदूक। (फिर खुशी से तिरंगा लहराते हुए नाचता है)

(उधर प्रकाश बढ़ता है जिसमे लहूलुहान सलीम और भारत फटे पुराने कपड़े पहने भारती को सहारा देते हुए बढ़ते दिखाई देते हैं ।इतने में नेपथ्य से गोलियों की तड़-तड़ाहट मे एक गोली मलंग को लगती है वह गिरते गिरते होता है कि उसके हांथ से तिरंगा सलीम थाम लेता है। यहाँ पर मलंग कि तरफ अंधेरा हो जाता है और नेपथ्य से ‘माँ तुझे सलाम गीत उभरता है ‘सब स्टिल हो जाते है’)

आवाज़ :-  हजारो साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
        तब कहीं होता है पैदा चमन में दीदावर कोई । 
                 यह अंत नहीं , आरंभ है ।  

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लेखक की कलम से :-
यूं तो प्रायः हर पुस्तक में लेखक की ओर से भूमिका-लेखन की परंपरा रही है किन्तु लीक से हट कर अपने आत्मीयजन पाठको को यह दुरूह कार्य सौंप रहा हूँ । मेरे प्रत्येक नाटक के पात्र स्वयम उनकी सहाएता के लिए खड़े दिखाई देंगे। मैं तो मूक दर्शक मात्र हूँ। कथा के अनुसार अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं नाटक के पात्र और निर्णायक हैं आप सुधी पाठक और दर्शकगण। साधुवाद आप सब को। 
       इतना अवश्य कहना चाहता हूँ प्रस्तुत चार नाटकों का एक संग्रह जिनमे एक नाटक एक इतिहास-आधारित नाटक है (रीतिकालीन कवि घनानन्द और नर्तकी सुजानबाई की प्रेमकथा पर आधारित) जो याद दिलाता है उन पारम्परिक नाटकों की जो रात भर चला करते थे। दो एकाँकी ‘परछाइयाँ’ और ‘एक बेनाम नाटक’ इनके अतिरिक्त एक रेडियो नाटक ‘शतावर के संग’ । उम्मीद की किरण के साथ आप सबकी प्रेरणा के लिए आभार। विशेष रूप से डॉ विंध्यमणि जी का और अपने रंगकर्मी साथियों का । इस संबंध मे श्री राजेश श्रीवास्तव का बहुत आभारी हूँ जिन्होने विपरीत परिस्थितियो मे भी मुझे मेरी भूमिका निभाने में सहयोग दिया। 
सुदामा सिंह..! 

समर्पण :- 
प्रेरणाश्रोत स्व पृथ्वीराज कपूर जी, ख्वाजा अहमद अब्बास एवं ज्ञात-अज्ञात रंगकर्मियों को यह तुच्छ भेंट समर्पित ।

( कृपया नाटकों के मंचन अथवा किसी अंश का उपयोग करने के पूर्व लेखक की अनुमति लेना आवश्यक समझें )


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आँसू और अंगारे..!
बात सौ परसेंट सही है कि न हम तुम्हें जाने, न तुम हमे जानो। हाँ एक बात इन्सानियत के रिश्तेदारी की है। मैं नहीं जानता की मुझे क्या हो रहा है पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि इस  सरसब्ज धरती के सैकड़ों-हज़ारो किलोमीटर नीचे धधकते ज्वालामुखी कभी भी मचल कर तबाही मचा सकते हैं। ऊपर नीले आकाश के दामन में काले-काले मेघों के बीच लाखों मेगावाट की आकाशीय बिजली क़हर बरपा कर सकती हैं।
कुदरत के करिश्माई अंदाज़ की यही अदा अवाम मे भी महसूस की जा सकती है। बशर्ते वैसे हालात उसे मज़बूर न कर दें जैसे आकाश खुशनुमा मौसम में सूरज, चाँद सितारों से जगमगाता रहता है और विशाल सागर उमंग भरी मस्ती में लहराता नज़र आता है। अपनी सीधी-सादी दिखने वाली पब्लिक का भी यही हाल है। अमन में अहिंसा की पूजा करती है लेकिन जब ज़ुल्मोसितम से परेशान हो जाती है तो ताण्डव की मुद्रा में क्रांति की मशाल लेकर प्रलयंकारी बन जाती है।  इतिहास गवाह है कि उसने समय समय पर अनेक ज़ुल्म सहे मगर वह खामोश रही। जब जुल्म का पानी उसके सर से ऊपर बहने लगा तो उसने इन्कलाब का दामन थाम लिया। इसके गवाह सात समुंदर पार वह अंग्रेज़ी हुकूमत है जिसे इन्कलाब रूपी सुनामी लहरों के कारण भागना पड़ा। इसी लिए बड़ी बेबाकी से कहना चाहता हूँ कि भले तुम हमे न जानो और हम तुम्हें न जानें लेकिन कदमो के नीचे की धरती और आकाश की ताकत हमे जरूर एहसास करना चाहिए। उसी सन्दर्भ मे सीरिया और मिश्र की जवालामुखी पब्लिक से सबक लेना चाहिए। अभी अपने यहा भी अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव इसके उदाहरण है जिनके पीछे देश की पूरी  जनत सड़क पर निकल पड़ी थी। ताज्जुब तो यह है कि बेचारे मन को मोहने वाले मनमोहन क्यूँ अल्लाह मियां कि गाय की तरह खामोशी का नकाब ओढ़ कर पुलिसिया जुल्म को देखते सुनते रहे, गरीबो की झोपड़ी में टुटही चारपाई पर बैठ कर अन्याय के विरुद्ध नवजवानों को ललकारते रहे और सर्वोसर्वा कहलाने वाली मालिका-ए-अलिया का ध्यान भ्रष्टाचार के गंदे बिलबिलाते कीड़ो की तरफ कम, अपने इर्द-गिर्द झनकते चमचों की तरफ ज्यादा है। मुमकिन हो सकता है की वही गंदे कीड़े और झनकते चमचे उनके जी के काल न बन जाएँ जिससे पूरा मुल्क बीमारी मे मुफ़्तिला हो जाए। इतना लोग क्यों नहीं समझते हैं कि यह पब्लिक है पब्लिक सब जानती है। 
बात उठी तो बात आगे बढ़ाते हुए गांधीजी के नक्शेकदम पर चलनेवाले अन्ना हज़ारे और योगगुरु बाबा रामदेव के एक प्रारम्भिक प्रयास कि ओर उन्हे मुखातिब करना पड़ता है। कुछ सुनहरी कुर्सी पर बैठे सरकारी सुपरस्टार जो देश के सबसे बड़े प्रजातन्त्र की हारमोनियम पर रियाज़ मारते हुए बढ़ती मंहगाई के दिल पर काबू पाने का सब्ज़बाग दिखा रहें हैं, वे बेपरवाही से ठहाका लगाते हुए बड़े गर्व से कहते सुने जाते हैं कि एक-दो सिरफिरे लोग क्या कर सकते हैं। हमारे पास लाठी डंडे और वफादार पुलिस फोर्स है। हम उनकी बोलती बंद कर सकते हैं। मेरी गुजारिश है कि वे लोग इतिहास के पन्नों को फिर से पढे कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने अकेले ही अन्याय के विरुद्ध नन्दवंश का नाश कर दिया था। अकेले एक भीमकाय वानर ने महाबली रावण के अन्यायी रवैये से खीज कर सोने की लंका जलाकर खाक़ कर दिया था। कहा गया है कि छोटा से छोटा छेद बड़े से बड़े जहाज को डुबो देता है और छोटी से छोटी चींटी बड़े से बड़े हाथी को मार डालती है। अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव ने कौन सा हँगामा कर दिया? सिर्फ यही न उनका क़ुसूर रहा कि उन्होने देश मे फैले भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता को जाग्रत करने का काम किया जो कि एक लोकतान्त्रिक देश में हर नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। इसे खुद सत्ता के गलियारे मे हुक्का गुड्गुड़ाते चौधरी लोग स्वीकार करते हैं कि मुल्क में भ्रष्टाचार की सुनामी लहरें हिलोरें मार रही हैं पर उनसे बचने-बचाने के लिए कोई उपाय नहीं सोच रहा है। मुमकिन है कि वे इन भयानक सुनामी में वे एक छत्र राज्य करें और बेचारी जनता डूबती रहे। लेकिन उन्हे याद रखना चाहिए कि सिकंदर भी आया कलंदर भी आया, न कोई रहा है न कोई रहेगा। यह कहाँ का इंसाफ है कि यदि कोई बचने-बचाने के लिए शोर मचाए तो उसके मुँह पर ताला लटका दिया जाए। बहरहाल भ्रष्टाचार का जंगल जब सिरे से साफ करने के लिए कुछ मेहनतकश मजदूरों ने पहल करना शुरू भी किया और सफाई पसंद पब्लिक ने सराहना शुरू किया तो बिल्ली के भाग्य से छीका टूट पड़ा। भ्रष्टाचार को लोग भूल गए और भूले जा रहे हैं उन अहिंसावादी मेहनतकश मजदूरों को जिन्होने उस फैलते गंदे जंगल को साफ करने का इरादा पक्का कर लिया था। आँधियाँ गम की यू चली कि बाग ही उजड़ कर रह गए। सब का ध्यान इधर छोड़ उधर चला गया। जले हुए आशियाने, उजड़े हुए चमन और तड़पती हुई लाशों पर आँसू बहाने के सिवा भ्रष्टाचार के घने बदबूदार जंगलों मे छुपे सफेदपोशों की तरफ किसको देखने की फुर्सत है। लेकिन इसे बड़ी बेबाकी से कहा जा सकता है कि ये आँसू चंद ही दिनों के हैं क्योंकि ऐसे मौकों पर पहले भी ऐसे खौफनाक हादसों के वक्त ऐसा ही देखने को मिला था। धीरे-धीरे आँसू सूखते चले गए। भाग-दौड़ थमती चली गई। कुसूरवारों को जेल के सींखचो के पीछे बने चमचमाते कमरों मे फांसी की सज़ा सुना कर आराम फरमाने का मौका दे दिया गया। अफसोस निहायत अफसोस है कि शहीद-ए-आज़म भगतसिंह, आज़ाद और अशफाक़ के साथ यह रहमदिली फिरंगी हूकुमत ने क्यों नहीं दिखाई थी? शायद इसलिए कि तब लोकतन्त्र नहीं था, अब संसार का सबसे विशाल लोकतन्त्र अपने मुल्क मे ठहाके मार रहा है जिसमे मुट्ठी भर लोग गांधी के नाम की दुकान सजा कर उदारवादी होने का नाटक कर रहे है। हम जानते हैं कि पाप से नफरत करना चाहिए पापी से नहीं पर पाप को मिटाने के लिए जो संभव हो कर गुजरना चाहिए वरना श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी न बनते। भगवान श्री राम अपने पड़ोसी देश के अत्याचारी राजा रावण का विनाश नहीं करते। किसी ने ठीक ही कहा है कि ज़ुल्म करने वाले से ज़ुल्म सहने वाला ज़्यादा दोषी माना जाना चाहिए। भले कोई माने या न माने मेरे ख्याल में भ्रष्टाचार रूपी साढ़े साती शनि हमे गुमराह कर रहा है जो हम ज़ुल्म पर ज़ुल्म बरदास्त कर के भी उनका सामना न कर अपनो पर ही लठियाँ भांज रहें हैं। देखना है कब कटेगी हमारी साढ़े साती। हमे इस मौके पर वही पुराना शेर पढ़ने को जी चाहता है‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, आज़मा लें ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है’।

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मुझे वे बहुत अच्छे लगते हैं..!
दुनिया यूं ही चलती है चलती रहेगी। सिर्फ गिरगिट की तरह रंग बदला करती है। शायद यही फितरत ऊपर वाले ने बख्शीश मे दुनिया को अता फ़रमा कर अपने दोनों हांथ झाड़ लिए। साथ में एक गाने का मुकम्मल रिहर्सल करा के आदमियों के जंगल में हमें भेज दिया। किसी डाल पर हम ब-आवाज़े बुलंद यूँ गाते हुए जंगल में मंगल मनाने के लिए सुनसान घाटियों को सुनाया करते हैं‘दुनिया का मज़ा लेलो, दुनिया तुम्हारी है’लेकिन हक़ीक़त में दुनिया न तुम्हारी है और न हमारी बल्कि किसी तीसरे की है। अब तो किसी तीसरे की भी नहीं लोग-बाग मानते हैं। अपने जिगर का एक अदद टुकड़ा रमफेरवा कभी-कभी बड़ी दूर की कौड़ी  ढूंढ कर ले आता है। कहता है, ‘बापू असल में अब जिसके पीछे सत्ता की दुम लगी हो और हनुमानजी की तरह सीना चीरने पर सुल्ताना डाकू की झोली से अशर्फ़ियाँ खनकते हुए गिरे, बस समझो दुनिया उसी की है। मुझे तो सच मानों बापू ऐसे लोग बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि कम से कम वे इस दुनिया के संगमरमरी चबूतरे पर चलते-फिरते और धक्का-मुक्की करते दिखायी तो  देते हैं ।
रही पुराने संस्कारों और ईश्वर से डरने की बात तो वह सब गुज़रे ज़माने की बातें हो चलीं हैं। अब तो बात हो रही है कि ज़माना हमसे है ,हम ज़माने से नहीं। इसलिए सोच कर चुप हो जाना पड़ता है कि जब ज़माना उनसे है तो लामोहाला उनकी मर्ज़ी के म्वाफिक चलने में ही भलाई है। दुनिया भी यही कहती है जैसा देश वैसा भेष। वर्ना लोग देश द्रोह का आरोप लगाने से बाज नहीं आएंगे। भैया अपुन ने तो वसूल बना लिया है कि जिस थाली में  खाएंगे उसमे छेद नहीं करेंगे। सिर्फ पांच साल की तो बात है। हो सकता है थाली बदल दी जाये..।

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हुज़ूर, यह जामे-जम्हूरियत का नशा है..!
अपना लंगोटिया-यार रमफेरवा आधी रात में झूमते हुए रेतीले मैदान की तरफ से आती सड़क पर चिल्ला रहा था, अबे, कहाँ महंगाई है मुहल्ले वालों? सब ससुरे पगलेट हो गयें है। कहते हैं प्याज ससुरी लगभग 100 मीटर ऊंचाई पर पहुँचने वाली है, पीट्रौल के महासागर मे सुनामी आने वाली है और बिजुरिया के कौनों देखे वाला नहीं है। ई नाही देखत हैं कि रात के मारो गोली हमारे यहाँ तो सड़किया पे देखो भरी दुपहरिया में बिजुरिया ठुमका लगाते हुए हिन्दी कै बिंदी चमकाय रहीं है। थोड़ा लड़खड़ाते हुए रमफेरवा फिर चिल्लाया ' अरे मोहल्ले वालों  मुझको शराबी न समझो ,पीता नहीं हूँ पिलाई गई है।' हमरे नेताजी पिलाईंन हैं। रमफेरवा एक नहीं पचास बार कहने को तैयार है कि कहीं महंगाई नहीं है। कहूँ सड़क में गड्ढा नहीं है। आपन देश आजो 'सोन-चिरइया' मतिन कारे-कारे बदरा बीच पंख फैलाये उड़ान भरे माँ केहू से पाछे नाही है भैया। कुछ भी होय जाय बाबू, मुला भाषन कै राशन चौबीसों घंटा बाँटा जाये रहा है। अब   हम कहब तो मोहल्ला वाले मुंहफट्ट कह देहिए कि ससुरा के लगी है। मुला उनका कहे के हिम्मत नाही पड़त है जे ठंडे कमरा मा गरम अँग्रेजी कै चुस्की लेत बाटेन। चलो हमरी सरजू मैया कै किनरवा भले ब। 
 रमफेरवा गिरते-पड़ते किसी तरह अपनी ड्योढ़ी पर किसी फिलिम का गाना गाते हुए पहुंचा, देखते ही उसकी माई बरस पड़ी, का हो कमासुत बेटवा तुहे देख के जीव जुड़ाये गवा। आज फिर .... । माथा पकड़ के रमफेरवा ड्योढ़ी पर बैठ के सफाई देते हुए कहने लगा, 'रामदे माई आज तो न-न करत भय नेता जी पिलाये दिहीन। क़हत रहे कि बड़के नेताजी से कह के नौकरी लगाए देंगे।' बड़बड़ाते हुए रमफेरवा की माई बोली, 'अरे अकिल के दुश्मन बचवा ई नेता लोगन कै उहे हाल है कि चोर से कहे चोरी करो और साह से कहें जागत रहो।  इहै चक्कर मा हमरे सब लुटत जात हैं। अरे मोर बाबू देखत हौ महंगाई आसमान छूअत बाटे। ऐसन जमाना आये गवा कि आपन गरीबी कै रोना रो तो लोग ठहाका लगईहे या देशद्रोही बताए के रपट लिखाये देहिए । हमार बात मानो तो बचवा ई नेता-पनेता कै पीछा छोड़ो और कहूँ मेहनत- मजूरी करे के जुगत भिड़ाओ। रमफेरवा के नशा जब कुछ उतरा तो हँसते हुए बोला, ' माई सबसे बढ़िया बात कहलू कि दाल रोटी खाओ प्रभु कै गुन गाओ'। 
 मीरसाहब और रामबोला इसी बीच आ टपके। रमफेरवा चुपके से भीतर वाली कोठरी में मारे शरम के जाके सुत गया। मीरसाहब सब मामला समझते हुए बोले, ' भाई मेरा इस वक़्त कुछ बोलना ठीक नहीं है मगर इतना दबी ज़ुबान से कह सकता हूँ कि इसमे ना गलती नेताजी की है और ना बेचारे तुम्हारे सपूत रमफेरवा की। सब जम्हूरियत का नशा है। हाँ में हाँ मिलाते हुए रामबोला कहने लगा, ' हम क्या कहे अपने देशवासियों को कि बेचारे परधान जी चीख-चीख के मरा जात हैं कि 'सब का साथ, सब का विकास' पर किसी के कान पे जूं नहीं रेंग रही है। यह नहीं समझते हैं कि नेता लोगों का एक-एक शब्द वजनदार होता है। सोचने कि बात है कि जम्हूरियत यानि लोकतंत्र में सिर्फ हमरे सब के विकास से विकास होई? सब के साथ पर भी ध्यान देने कि जरूरत है। तो फिर काहे का रोना भाईजी? बेरोजगारी बढ़ रही है, पेट्रौल-डीजल के दाम बढ़ रहा है,चोरी-छिनयती छलांग लगाए रही है और महाराज कामदेव के तरकश का तीर खतमे नहीं होने आ रहा है। भाई उनका भी तो इस लोकतंत्र मे तरक्की करने का अधिकार है। तब न परधान जी का फार्मूला सही उतरेगा। ट्रम्प भैया के कदम से कदम मिला के चलो सब ठीक हो जाएगा। हम तो मीर भाई ऊ फ़िरंगियों को नहीं भूलेंगे जो हमरे सब का आपस में लड़ाये के मज़ा लेत रहन। मीर भाई ने चबाये हुए पान की लुगदी एक तरफ फेंकते हुए कहा भैया रेगिस्तान मे कारवां चला जाता है मगर कदमों के निशान छोड़ जाता है। बुरा मानने की बात नहीं है हमारा कारवां भी उनही कदमों के निशान पर चला जा रहा है। फूट खाने का मज़ा लो चाहे बद-हज़मी  भले हो जाए। इसीलिए तो कहता हूँ कि यह सब कुछ नहीं बस हुज़ूर ये जामे-जम्हूरियत का नशा है। लोग बताते हैं कि पहले बड़ा मज़ा आता है। बाद मे पछतावा होता है जब लीवर धोखा देने लगता है। अब आप लोग वही महंगाई बलात्कार भ्रष्टाचार का हवाला देते हुए कहेंगे कि एक गोरे को छोड़ कर दूसरे गोरे का दामन थामने कि कोशिश की जारही है तो भाई जी यह जम्हूरियत है सब का साथ सब का  विकास मुमकिन ही नहीं हो सकता है। अब चाहे वह शेर हो या बब्बर शेर। वे भी तो खुदा के बनाए इस मख़लूक़ का हिस्सा हैं। रही बात और सब बेचारे कहे जानों की बाते तो वे सब बातों के भूखे है।जरा सा उनकी पीठ सहला दीजिये वे अपने को जन्नत नसीब समझने लगते हैं। यह भी समझने की बात है मियां कि सिर्फ हम आदमज़ातों के लिए जम्हूरियत का जाम नहीं सजाया गया है उनमे सबका साथ जरूरी है, भले वे हम सब के लिए खतरनाक साबित हों। इसलिए चाहे लबे सड़क जानवर अड्डा जमाये बैठे हो, दवाओं की काला बाजारी हो रही हो, कोतवाली के पीछे झाड़ियों में किसी मासूम की खून से लथपथ लाश पड़ी हो या करोड़ो रुपये कोई लेकर विदेश में पिकनिक का मज़ा ले रहा हो सब जामे-जम्हूरियत के नशे मे जायेज है। मीर साहब दूसरी गिलौरी अपने फायर बाक्स रूपी मुंह में झोंकते हुए बोले, ' अमा, लकीर के फकीर मत बनो। लिंकन साहब ने अपने ढंग से जम्हूरियत का नक्शा खींचा होगा तब गुलाम इंडिया था पर आज तो स्मार्ट इंडिया है। इसलिए आज के जामे-जम्हूरियत में दो नैना मतवाले के साथ तसल्ली के तसले में अपना चेहरा खूब मलमल कर धो और देखो दुनिया रंग रंगीली बाबा। 


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हाय रे मेरा बचपन..!
मेरा बचपन डिसिप्लिन के घेरे में..!
अब क्या बताए, बिना बताए रहा भी नही जाता है। कोई भैया अपने पीयूष जी तो हैं नही की बिन बताए या बिन टाइम टेबुल के रेलगाड़ी चला रहे है। खैर छोड़िए मर्जी अपनी। बस कार्बन कॉपी अपने लंगोटिया यार मीर साहब को जान लीजिए। बिना कुछ कहे सुने और जब तक दवाई नही तब तक ढिलाई नही को नज़रन्दाज़ किये बचवा रमफेरवा के हांथे से डोर पकड़ के पतंगबाजी का कमाल दिखाने लगे। मोहल्ले वाले जब उन्हें देख के कुछ कनफुन्सी करने लगे तो उन्होंने बिना लाग लपेट के जवाब दिया कि बस अपने मुल्क में यही तो कमी है । अरे समझा करो कि जब साठा तो पाठा। अरे अख्तरी ऐसे थोड़े गाइन रहीं कि अभी तो मैं जवान हूँ। रमफेरवा काठ के उल्लू मतीन अपने मीर चचा को कभी देख रहा था तो कभी आसमान की तरफ मगर कह नही पा रहा था कि चच्चा अब हमें उड़ाए देव। किसी अधिकारी के सीयूजी फोनवा पर अपनी मुसीबत कह भी नही सकता था। मैं पास के टुटहे चबूतरे पर  चचा भतीजे की हालत पर मन ही मन मुस्कुरा रहा था। तभी ऊपर वाले ने मीर भाई के दिमाग का दरवज्जा खोल दिया। मीर साहब के कान में अज़ान की आवाज़ पड़ी। वह फौरन चरखी डोर रमफेरवा को थमाते हुए नमाज़ के लिए निकल पड़े।
   उनके जाने के बाद बदकिस्मती से रमफेरवा की पतंग कट गई। वह रोन्धी सूरत बनाये मुझे देखने लगा जैसे अपनी हार पर ट्रम्प जी अमेरिकी जनता की तरफ देख रहे है। मैंने रमफेरवा को बुला कर कहा," अरे बचवा केतना बार तोहके सम्झौली कि ई पतंगबाजी, कंचा गोली और गुल्ली डंडा खेले के जमाना अब नाही रहल। अबतो किरकिट पर धिरकित धा के रियाज मारे के जमाना होखे। हमही को देखा कि हमरे बड़का बाबू जब ले जीयत रहे तब ले काव मजाल कि चरखी डोर और पतंग बाजी के हाँथ लगाए देइ। हमके याद है एक बार हमार नानी पियार के मारे पतंग और डोर लाये दिहिन तो बड़के बाबू नानी के जवन जवन बात सुनवलन कि बेचारु दुबारा हमारे ड्योढ़ी पे कदम न रखे के क्रिया खाये लिहिन। बड़का बाबू  डायरेक्ट कह दिहिन कि तूं हमरे बचवा के बिगाड़े आइल बाड़ू। घर के मालिक रहे बड़का बाबू। आज का जमाना होता तो एक भाई दूसरे भाई के बच्चों को या  भाई के रिश्तेदारों को मजाल कह दे। यही बात है कि मुझसे मेरा बचपन छीन लिया गया। मुझे पतंग डोर, गुल्ली डंडा, गोली कंचा नही मालूम। बस हाई कमान का ऑर्डर था कि अकेले स्कूल जाइये और जैसे छुट्टी हो सीधे घर आइये। शाम को चार से सात बजे तक के लिए छूट मिली थी। वह भी कालोनी की फील्ड में खेलने के लिए मगर बचवा रमफेरवा बड़का बाबू के सख्त हुकुम रहल की सात दस नही जानता हूँ। असल मे बड़का बाबुओं अपने जमाना के रिटायर्ड सूबेदार मेजर रहलन। एक दिन जिसे मैं आज भी नही भूल सका हूँ  लड़को के साथ गपशप में साढ़े सात बज गए। बस बड़का बाबू सन्टी लै के पहुंच गए फील्ड में और बिना कुछ कहे सुने चार पांच सन्टी लगावत भय बोले कितना बजा है रे रम्बोलवा? हम तुहे सात बजे तक के ऑर्डर दिहै रहे। आस पास के लोग हमरे बड़के बाबू के ई तमाशा देख के हक्का बक्का हो गए। उनमें से किसी ने दया दिखाते हुए कहा कि अरे बाबू साहब जाने दीजिए बच्चा है , भूल हो गई। हमरे बड़का बाबू जवन त्योरी चढ़ा के बोलले कि ऊ भल मनई के घिघ्घी बंध गयी। बाबू बेलाग कहिंन ," सुना ढेर होशियार न बना। हमहू अपने ज़माना मा सूबेदार मेजर रहली। बड़का बड़का अफसर हमारे डिसिप्लिन का लोहा मानत रहलन। ई बतावा आपतो इसके जवान होने तक न जाने कहाँ रहबा बाबू जी , तब ले ई ससुरा रम्बोलवा लोफर आवारा निकस जाई तो हमरे परिवार को तो भुगतना होगा। ऊ बाबूजी एक चुप हजार चुप। बस आगे आगे बड़का बाबू और पीछे पीछे चोर मतिन हम। रास्ता भय बड़बड़ाते रहे। घरे पहुंच के तोहरे बड़की माई के डपटते हुए बुलवलन , सुना जी ढेर बड़की मलकिन बने से काम न चली। हमरे बाबा सोलह आना सही कहत रहे कि लरिकन के खियाव घी सक्कर मुला जहां एहर ओहर गड़बड़ाता देखो मारो एके टक्कर। ओहमें जरा सा सील मुलाहिजा देखौलु तो जिनगी भर माथा पकड़ के रोवे के पड़ी। अरे पहलवानी करे, दौड़ लगावे और कसरत करे। ई सब क्या है गुल्ली डंडा, पतंगबाजी और  कंचा गोली। एहसे शरीर बनीं? आजकल बड़के बंगला वाले  अपने सपूतन के किरकिट खेलावत बाड़ेंन। अरे हम अपने लरिका के लपटन जनरल बनाये के देसवा के नाम रोसन करे के अरमान सजावट बाटी। सुना काल से आधा सेर दूध रम्बोलवा केऔर बढ़ावा।
 बचवा रमफेरवा हम लपटन जनरल तो न बन पौली मुला डिसिप्लिन के दायरा में रहली। आजके लड़को को देखता हूं तो आंख में आंसू भर आता है। दुइ पहिया माई बाबू बैंक से कर्जा लेके काव थमाए दिहिन की बचवा लोग फर्राटा भरे लगे।किसी घर वाले ने पूछ लिया कि कहाँ जात हौ तो बस एक जवाब कही नही बस आ रहे हैं। बस आ रहे है मतलब आप अपने दुलरुवा केलिए तारे गिनते रहिये। बचवा रमफेरवा अब अपनी बात क्या कहें किससे कहें? सब का जवाब बस यही होगा कि वह जमाना और अब का जमाना कुछ और है। स्मार्ट इंडिया है भाई। अब बैलगाड़ी की तरह रेलगाड़ी भूल जाओ। देखा करो बस उड़न खटोला जिसपर आज के श्री राम का मुखौटा लगाए लोग उड़ रहे हैं।

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-: रेडियो नाटक :-
शतावर के संग-संग
पात्र:— 1- रिटा0 सूबेदारमेजर, 2- जुम्मन मियाँ, 3-प्रधानजी, 4-डाक्टर साहब, 5- रमफेरवा, 6-रमफेरवा की माई..।

जुम्मन: परधान भाई, हमरे समझ मा आजु लै नाही आवा कि अल्लाहमियां एतना बढ़िया खुसबूदार गुलाब कै फूल खिलाय दिहिन जेहके देखके सबै के गावे कै मना करत है भय्या कि ई चीज़ है बड़ी मस्त-मस्त।

प्रधान: जुम्मन आखिर तुम कहना क्या चाहते हो। गेहुआँ के खेत मा गुलाब-बाड़ी कहाँ से फाट पड़ी मोर जुम्मन भय्या।

रमफेरवा-माई: अरे प्रधानजी तनी जुम्मन भय्या के हरदी, प्याज, अदरख अँवरवा और पपीता-पुरान सुने के बाद गुलाबो के महक लै लेयो देव। बेचारे के तनी जीव जुड़ाय जाये।

जुम्मन: भौजी हम जानित है कि फगुनहट अबहीं नाहीं उतरी है, मुला हमरी बात तो सुनो। हमार मतबल ई है कि एतना सुन्दर फूल के साथे कँटवा उगावे के कौन जरूरत रही।
रिटा.सूबे.मेजर: हाल्ट जुम्मन मियां। राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदारमेजर साधोसिंह तुम्हारा बतकही का जवाब देने मांगता है कि गुल से ख़ार यानी कँटवा अच्छा होखे है जो दमनवा को पकड़ लेता है। समझा कुछ नहिये समझा होगा। अरे जब राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदारमेजर साधोसिंह नहीं समझा तो तुमलोग क्या समझने सकता है।

प्रधान: सुनो जुम्मन,मेजर साहब की बतकही पर जरा ध्यान दो।

रिटा.सूबे.मेजर: अरे प्रधान जुम्मनवा इहै ध्यान दिये होता तो अबहीं ले हवलदार के हवलदरवे रह जाता, ठाकुर साधोसिंह मतिन रिटायर सूबेदार मेजर नाही बन जाता जेकरे समनवा मे बड़का-बड़का दुस्मन कै नानी मरत रही। अरे जुम्मन तुम काहे नही समझता है बुड़बक कि हर खबसूरत चिजिया कै रच्छा करे बदे रामजी कंटवा लगा दिहे हैं। उनके वही असलहा है।

रमफेरवा: वाह मेजर साहब आप कै एक-एक बतकही लाख-लाख टका के होत बा।

रिटा.सूबे.मेजर: अरे रमफेरवा, राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदारमेजर को तुम अबहीं ले समझबे नाही किया है, क्यों रमफेरवा का मदर।

रमफेरवा-माई: जाय दें साहेब। अबही आपके आगे के गेदहरे बाटेन। मुसवा केतनो बढ़ जायी मुला लोढ़े भर तो रही।

रिटा.सूबे.मेजर: वाह रमफेरवा का मदर क्या फसकिलास बतकही किया है। दिल खुसी होय गवा। यही लिये राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदार मेजर साधोसिंह मेहरारू लोग का बहुत इज्जत करता है। समझा जुम्मन। समझा परधानजी।

जुम्मन: मालिक अब........।

रिटा.सूबे.मेजर: हाल्ट जुम्मन मियाँ। व्हाट मालिक। रमफेरवा मतिन बुड़बक का बुड़बक रह गया न। फौजी भाषा सिखबे नहीं करता है।

रमफेरवा-माई: (हँस कर) मेजर साहेब जुम्मन भय्या का सतावर के सेवन करे चाही जेहसे इनके बल-बुद्धि कै विकास होई।
 
प्रधान:मुला उहौ मा अल्लाह मियाँ कँटवा उगाय दिहिन है, भौजी।

जुम्मन: देखौ परधान, भौजी के तो मजाक करे के पद बनत है, मुला तूँ तो मजाक न करो।

रिटा.सूबे.मेजर: अच्छा परेड अटेन्छन। राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदारमेजर डिसीप्लीन मांगता है। नो बकबक ऐण्ड नो मजाक। कोई शक।

सब: (एक साथ) नो साब।

रिटा.सूबे.मेजर: शाबाश। मुला सतावर का बतकही रमफेरवा का मदर ठीके किया है। आपलोग तो ई अच्छी तरह से जनबे करता है कि फौज का माना अफसर राजपूत रेजीमेंट के रिटायर सूबेदार मेजर साधोसिंह ने अपने जमनवा में घाट-घाट का पानी पिया है। बँगला देस के लड़इया मा हमको मालुम भवा रहा कि सतावरो बहुते पुष्टईवाला पौधा होता है। उधर मे उसको सब सतमूली बोलता है।
रमफेरवा: साहेब हमरे तो आज तलक इहै नाही पल्ले पड़ा कि ई धरतिया मा केतना भण्डार भरल बा—एक से एक मनई, एक से एक पेड़- पालो।

प्रधान: भय्या रमफेरवा, ई सब हमरे- तोहरे बस कै बात नाही है। जौने पेड़-पालो के हमसब बेकार समझित है, मालुम पड़त है कि उहै तमाम बेमारी मा दवाई साबित होत है और भय्या जिनके जानकारी मिल गई उहै लोग वोहसे अच्छी-खासी कमाई करत हैं। काव जुम्मन भाई गलत कहित है तो कहो।

जुम्मन: बिल्कुल पते की बात कहत हो परधानजी। बल्कि हमतो ई सोचित है भय्या कि अल्लाहमियाँ हमरे सबके सबकुछ इहै धरतिया मा दै दिये हैं मुला हमरे सब आँव बाँव में भटक रहे हैं। एक से बढ़कर एक जड़ी-बूटी हमरे पासे धरी है मुला हम वोके किमतिया जाने बिना भटकित है एहर-ओहर, का हो भौजी।

रमफेरवा-माई: वही निहाद भय्या कि गोदी मा बच्चा नगर मा ढिंढोरा।

रिटा.सूबे.मेजर: हां अब अकिल का दरवाजा खुल रहा है। इसीलिये राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदारमेजर साधोसिंह बारम्बार समझउता है कि बिना उस्ताद के परेड कभी नहीं आने सकता है। रिटायर सूबेदारमेजर साधोसिंह आल राउन्ड चैम्पीयनवा ऐसे नहीं बना है।

रमफेरवा-माई: ऊ देखा डाक्दर बाबू अवते हैं। सतावर कै पुरकस जनकरिया लै लेयो। जयहिन्द डाक्दर बाबू।

डाक्टर: जयहिन्द भाइयो-बहिनो। आज परेड की जगह कोई मीटिंग चल रही क्या मेजरसाहब।

रिटा.सूबे.मेजर: अरे का बतियावे डाक्टर साहेब। राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदार मेजर साधोसिंह जेकरा इशरवा पर पूरे का पूरा बटालीयन को सँपवा सूँघ जात रहा, ऊ आज ई बुड़बकन के सामना में स्टैचू मतिन खड़ा है।

डाक्टर: मेजर साहेब ऐसा मत बोलिये। आपने ही तो इन सबको फौजी-किसान बना दिया है। अरे हाँ शतावर की कुछ चर्चा चल रही थी।

प्रधान: बतिया जुम्मन गुलाब से सुरू किहिन कि वोहमे काँटा काहे होत है। तौके रमफेरवा के माई यानी हमार भौजी सतावर के बतकही छेंड़ दिहिन, तौ हम कहेन कि उहौ में तो काँटा होता है मुला होता है खूब पौष्टिक।

डाक्टर: (हँसते हुये) देखिये, इसका जवाब हमारा मेजर साहब से अच्छा कोई नहीं दे सकता है। मैं इतना कह सकता हूँ कि जैसै बाहरी हमले से रक्षा के लिये सीमा पर फौज लगाई जाती है उसी तरह कुदरत ने सुन्दर पौधो में काँटे पैदा कर दिये हैं।

रमफेरवा-माई: सुन लिहौ जुम्मन भय्या। देखौ डाक्दर बाबू केतना बढिया से समझाये दिहिन।

डाक्टर: (हँसकर) अबतो जुम्मन भाई तसल्ली के तसले मुंह डालके तसदीक करो। सब —हँसते हैं।

रिटा.सूबे.मेजर: हाल्ट। राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदारमेजर यही बतिया तो बताया था।


रमफेरवा: मेजर साहेब हमरे सब के गलतिया का छिमा करो। डाक्टर साहेब से अरजी है कि तनी सतावर कै फसल के बारे मा तनी विस्तार से बतावे।

रिटा.सूबे.मेजर: मगर बूझने होगा कि डाक्टर साहेब खिस्सा सुनाने नहीं आवा है। सब डायरी में नोट करने होगा। राजपूत रेजीमेन्ट का रिटायर सूबेदारमेजर एक-एक का डायरी चेक करेगा। कोई शक।

सब: नो सर।

रिटा.सूबे.मेजर: ओ.के.। गँवई-बटालियन का हवलदार जुम्मन मियाँ मनसेधू कम्पनी को और मेहरारू कम्पनी को रमफेरवा का मदर चार-चार लाइन में पंचायत-भवन की तरफ कूच करेगा। उधर में ई राजपूत रेजीमेन्ट का रिटायर सूबेदारमेजर साधोसिंह का हुकुम का मुताबिक कोई कचबच नहीं करेगा और सबका डयरिया ठीक मतिन चेक करेगा। कोई शक।
सब: नो सर।

रिटा.सूबे.मेजर: ओ.के., मार्च ऑन।

जुम्मन: जयहिन्द साब।

रमफेरवा-माई: जयहिन्द सर।
रिटा.सूबे.मेजर: लेफ्ट राइट लेफ्ट,लेफ्ट। लेफ्ट राइट लेफ्ट......।

(पंचायत-भवन)

जुम्मन: हमारा सौ जवान और पचास महिला-सैनिक आप का किलास के लिये हाजिर है सर।

डाक्टर: ठीक है। आपलोग बैठ जाइये और अपना-अपना डायरी-कलम निकाल लीजिये। आज मैं आपसब को शतावर के बारे में बताने जा रहा हूँ जोकि बहुत गुणकारी होने के साथ ही अच्छी आमदनी देने वाला पौधा है।

रमफेरवा: सर कलमिया कहूं हेराये गई।

रिटा.सूबे.मेजर: ई ससुरा रमफेरवा जिनगी भर घामड़ का घमड़े रह जायेगा। डाक्टर साहेब ऐसने जब लड़ाई के मोरचवा पर दुश्मन फायर झोंकने लगेगा तो ई ससुरा जवाबी काररवाई करने बखत बन्दुकिये भुलाये जाई।

जुम्मन: जाय दें साहेब हमरे लगे दुई कलम है।

डाक्टर: इसको कहते हैं आपसी सहयोग। मगर आगे से भूल नहीं होना चाहिये।

रमफेरवा: रामदे साहब अब कबहों ऐसन न होई।

डाक्टर: चलो ठीक है। हाँ तो आपलोग शतावर के बारे में जानना चाहते हैं। असल में औषधीय पौधो की खेती में शतावर का महत्वपूर्ण स्थान है और यह एक काँटेदार बहुवर्षीय लता है जिसे मैदानी इलाके से लेकर लगभग चार हजार ऊँची पहाड़ियो तकमें उगाया जा सकता है।

रिटा.सूबे.मेजर: ऱाजपूत रेजीमेन्ट का रिटायर सूबेदार मेजर साधोसिंह तो डाक्टर साहब सतावर के बारे मा आप के बतकही सुनके यही सोचता है कि सतावरवा जरूर पुरनके जनम में कौनो फौजी जवान रहल तबहीं तो न देखता है मर-मैदान और न अकसवा से बात करत पहाड़। सभी जगहिया पर मोरचवा सँभाले रहता है।

डाक्टर: कुछ भी कहें मेजर साहब आप एक-एक बात चुन-चुन के बोलते है। लगे हाथ यह भी सुनलें कि शतावर को अंग्रेजी में एस्पेरेगस, बंगला में सतमूली, गुजराती.पंजाबी हिन्दी में शतावर, कन्नड़ में नाई, मलयालम में शतवली, मराठी में सतावरी और तमिल में किलावरी कहा जाता है।
प्रधान: सुन लेयो सबहीं, पूरे देसवा मा फैला है। मुला गुण एक।

रमफेरवा-माई: ऐसे समझे के चाही कि जैसे अपने देसवा में अलग-अलग जात, धरम और भाषा कै लोग फैला हैं, मुला देसवा खातिर मरे जिये के भावना एकै देखाई देत है।

रिटा.सूबे.मेजर: रमफेरवा का मदर, ऐसने मतिन सबहीं को सोचना चाही।

रमफेरवा: डाक्टर बाबू,सतावर के कैसे पहचाना जाई।

डाक्टर: शतावर की शाखाओं पर छोटे-छोटे सीधे या टेढ़े कांटे होते हैं। फूल सफेद गुच्छों में खिलते हैं। इसके फल हरे रंग के छोटे गोल होते हैं जो पकने पर लाल हो जाते हैं। बीज काले रंग के होते हैं।

रिटा.सूबे.मेजर: हाल्ट डाक्टर साहेब। तुमलोग बस परवचने सुन रहा है कि नोटों कर रहा है।

रमफेरवा-माई: रामदे साहेब अच्छर-अच्छर नोट करत बाटीं।

रिटा.सूबे.मेजर: व्हेरी गुड। राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदारमेजर साधोसिंह तुम्हरा बतकही नही करता है रमफेरवा का मदर। हमतो ऊ बुड़बकई का जड़ रमफेरवा का फिकिर करित बाटी।

रमफेरवा: साहेब आपके रमफेरवा अपने माई से एक कदम आगे है। आखिर टरेनिंग केहसे पावा है- राजपूत रजीमन के रिटायर सूबेदार मेजर साहेब से न।

जुम्मन: डाक्टर साहेब, अब तनी एकरे बारे में आगे बतावें।

डाक्टर: देखिये मज़ा आया न जुम्मन भाई। हमतो कहते हैं कि किसी चीजमें ध्यान पुरकस लगाओगे तो लाभ जरूर मिलेगा।

प्रधान: हाँ ई नहीं कि नमाज पढ़े जाओ महजिद मा मगर ध्यान रहे बाहर रखा नउका जुतवा पर जौन कलिहे रायगंज के बजार से खरीदे रहो।

रिटा.सूबे.मेजर: बिल्कुल ठीक परधानजी। हमरा फौजी जवनवा मतिन हमेसे टरकिटवा पर निसनवा रहना चाहिये।
डाक्टर: बात जरा ध्यान से सुने कि शतावर की जड़े कन्द के रूप में गूदेदार और गुच्छों में होती हैं जिसका प्रयोग दवाई के रूप में किया जाता है।

रमफेरवा: लगे हाथ एहके औषधिय-गुणो बताये दे डाक्टर साहेब।

डाक्टर: नोट करें। कि इसके तन्दुरूस्त किस्म के कन्दों का उपयोग वात और पित्त के विकारो में किया जाता है।

जुम्मन: इहै तो सब बेमरियन के जड़ बाय परधान भय्या।

डाक्टर: वास्तव मे शतावर बहुत बलवर्द्धक है। इसीलिये क्षयरोग और कमजोरी में इसे टॉनिक के रूप में लिया जाता है। यही नहीं बल्कि महिलाओ की बीमारी लिकोरिया, खून की कमी, अपच, मानसिक तनाव आदि के इलाज में यह रामबाण औषधि है। मातायें गौर से सुने कि शतावर के सेवन से दूध बढ़ता है।

प्रधान: अब यही से हमरे सब के ग्यान हो जाय के चाही कि जब शतावर से एतना फायदा है तो एहके मांगो खूब होत होई। मांग बढ़े तो किसान के पाकिटियो भर उठे।

डाक्टर: एकदम सही। आयुर्वैदिक औषधि के रूप में प्रयोग होने के कारण बाजार में इसकी मांग बहुत बढ़ती जा रही है।

रमफेरवा-माई: तबतो सतावर के खेती करके जुम्मन भय्या हमरे सबके दूनो हाथे से खूबै हिलोरे के मिली।

जुम्मन: यही में कौनो शक है भौजी।

रिटा.सूबे.मेजर: राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदार मेजर साधोसिंह तो गोहार लगाये के कहता है कि हमेसे मिनहत का फल मीठ होता है।

रमफेरवा: तनी डाक्दर बाबू एहके खेती करे बदे जमीन और जलवायु कैसन होखे चाही।

डाक्टर: शतावर की खेती के लिये सूखे और कम वर्षा वाले क्षेत्र अच्छे माने जाते हैं। फिर बताते चलें कि जल निकासी की व्यवस्था ठीक होना चाहिये।

रमफेरवा-माई: हे डाक्टर साहेब तनिक इहौ बताय दिया जाय कि सतावर बदे कब और कैसे खेती कीन्ह जाय।

रिटा.सूबे.मेजर: बिल्कुल अकिल का बतकही किया है रमफेरवा का मदर। फौजी जवान को पतवा तो होखे चाही कि उसे किस तरह की जमीन पर और कैसै अटैक करना चाहिये।

प्रधान: हाँ नही तो जब चिड़िया चुग गई खेत तो पछतावे के पड़े।

डाक्टर: देखिये जैसे हर माँ बच्चे को जनम देने के पहले उन सारी बातों पर ध्यान देती है कि उसका बच्चा स्वस्थ और सुन्दर जन्म ले उसी तरह से हर किसान को अच्छी फसल पाने के लिये पहले से तैयारी कर लेना चाहिये।

रमफेरवा-माई: ई तो नीके कहे हो डाक्दरबाबू। जरा से लापरवाही से पता चला कि दुर्घटना होय गयी।

डाक्टर: इसीलिये तो बताना चाहता हूँ कि शतावर की खेती के लिये मई-जून के महीने में खेत की कम से कम दो-तीन जुताई कर लेना चाहिये। जुताई के समय प्रति हेक्टेयर की दर से 15-20 टन गोबर की खाद मिला दें। अब नर्सरी मे बीजों को डाल दें। नर्सरी तैयार करने के लिये एक मीटर लम्बी चौड़ी क्यारियाँ बनाकर तीन - तीन एक के अनुपात में मिट्टी और गोबर मिला कर भर दें। नोट करें कि 2 से 2.5 किग्र0 बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोना चाहिये। बीज बोने क पहले रातभर उसे भिगो देना चाहिये। इसे मई महीने मे करना चाहिये। लगभग दो महीने बाद पौधे रोपाई के लिये तैयार हो जाते हैं।

प्रधान: देखा रमफेरवा, बिल्कुल ऐसने आजकल स्कुलवन मा नर्सरी किलास चलावा जाय रहा है। गेदहरे थोड़ बड़वार भये और जहाँ अक्षर-ज्ञान भवा उनका बड़के स्कूल मा डाल दिया जात है।

रिटा.सूबे.मेजर: बस-बस-बस, ऐसही माफिक हमारे फौज में रंगरूटवा भर्ती होता है। पूरा टरेनिंग पावे के बाद ऊहै रंगरूटवा सब लांसनायक, नायक,हवलदार और न जाने क्या-क्या बन जाता है।


डाक्टर: क्या बढ़िया उदाहरण दिये हैं मेजर साहेब। हाँ तो नर्सरी में लगाई गई पौध जब 8-10 सेमी. की हो जाये और उनमें चार-पांच पत्तियाँ आ जायें तो उनकी रोपाई खेत में कर देना चाहिये। रोपाई के समय ख्याल रखें कि पौधे से पौधे और लाईन से लाईन की दूरी 50 सेमी0 रखें। रोपाई के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर देना बहुत आवश्यक है।

जुम्मन: हाँ डाक्टर साहेब बिन पानी सब सून।

डाक्टर: उसके बाद बरसात न होने पर यदि जरूरत समझें तो सिंचाई कर दें। हाँ जब पौधे बड़े हो जायें तो एक-एक माह के अन्तर पर सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है लेकिन खेत में पानी रूकना नहीं चाहिये।

रमफेरवा-माई: पनिया रूके से पेड़वा सड़ जाई न, का डाक्टर साहेब।

रमफेरवा: निरइया-गोड़इया कै जरूरत पड़बे करी डाक्टर साहब।

रिटा.सूबे.मेजर: दै बुड़बक। तुम रमफेरवा कहाँ था रे जब रामजी के इहाँ अकिल बटत रही।

रमफेरवा: का करीं मेजर साहब रवनवा के भाई कुम्भकरनवा दबाये रहा मालिक।

डाक्टर: अरे भय्या रमफेरवा, पौधो के बढ़वार के लिये निराई-गुड़ाई तो बहुत जरूरी है। अतः शुरूआत के तीन-चार महीनो में 2-3 बार निराई-गुड़ाई बहुते जरूरी होती है।

जुम्मन: डाक्टर साहब, अब अन्त भला तो सब भला।

डाक्टर: मैं आपका मतलब खूब समझ रहा हूँ जुम्मन भाई। समझ लीजिये कि रोपाई के करीबन 18 महीने बाद आपको अपनी मेहनत का फल मिलने वाला होता है। इस समय जब पौधे पीले पड़ने लगे तब शतावर की खुदाई का उपयुक्त वक्त होता है। रोपाई के दूसरे वर्ष सितम्बर-अक्टूबर में फसल में फूल आ जाते हैं। जनवरी में कन्दों की खुदाई का सबसे बढ़िया समय होता है। खुदाई के समय ही अंकुरित पौधे अगली फसल के लिये अलग कर लिये जाते है।

रमफेरवा-माई: डाक्टर बाबू कन्दवा निकसे के बाद फिर का होई।
डाक्टर: खुदाई के बाद कन्दों को 5 मिनट तक उबलते पानी में रखें। उसके बाद छीलकर 3-5 दिन तक हल्की धूप में सुखायें। जानते हैं आप कि सुखाय गये कन्द को एक-दो साल तक भण्डारित किया जा सकता है। फसल में लगभग 850 कुन्तल प्रति हेक्टेयर गीली कन्दें प्राप्त होती हैं जो सूखकर करीब 85 कुन्तल रह जाती हैं।

जुम्मन: लेकिन डाक्टर साहब सबके आगे है किसान का पेट। उसके बारे में..........।

रिटा.सूबे.मेजर: जुम्मन हाल्ट। तुम यह काहे नहीं बोलता है कि सबसे आगे होंगे हिन्दुस्तानी।

रमफेरवा-माई: और मेजर साहब हिन्दुस्तानी रहेंगे तो सारे जहाँ से अच्छा आपन हिन्दुस्तान रही, हिन्दुस्तान के तो कहबे करा गवा है सोनचिरैय्या।

रिटा.सूबे.मेजर: शाबाश रमफेरवा का मदर। राजपूत रेजीमेन्ट का ई रिटायर सूबेदार मेजर साधोसिंह ने गीता खूब पढ़ा है। वोहमे साफेसाफ लिखा गवा है कि करम करे जाओ, फल की आशा मत करो।

डाक्टर: वह तो आप बहुत ऊँची बात किये हैं मेजर साहब। लेकिन यहाँ शतावर के साथ-साथ ठीक से चलेंगे तो बहुतकुछ प्राप्त होगा। शतावर की फसल क बारे में बताया गया है कि डेढ़ साल की फसल में पहले वर्ष में 37000/-ऱूपये, दूसरे वर्ष 21000/-रूपये प्रति हेक्टेयर का खर्च आता है। रमफेरवा: अरे बाप रे बप्पा एतना धन कहाँ से लउबे।

डाक्टर: रमफेरवा कुछ गंवाने के बाद ही कुछ मिलता है। यह समझ लो कि इतना खर्च करने के बाद 80 कुन्तल सूखी कंदें प्राप्त होती हैं। दो हजार रुपया प्रति कुन्तल की दर से बेंचने पर लगभग एक लाख साठ हजार रुपये प्राप्त होंगे भईया रमफेरवा। इस प्रकार खर्च निकालकर प्रति हेक्टेयर शुद्ध लाभ लगभग एक लाख दो हजार रुपये होता है।

रिटा.सूबे.मेजर: राजपूत रेजीमेंट का रिटाइर सूबेदार मेजर साधोसिंह बोलता था न रमफेरवा कि पांचों उंगली घी में और सिर कढ़ाई में होगा। अब बोलो जय-जय।

रमफेरवा की माई: अरे साहब ई सतावरवा तो हमरे सबकै जिन्दगिये बदल देई।

रिटा.सूबे.मेजर: हम तो कहता था न कि खूब मेनहत करो, देखो दूनो पकेटिया रुपईया से भर जाई। इहे बतिया पर परेड डाक्टर साहेब को सलामी देगा, सलामी दे। सब मिलकै बोलो जयहिन्द। जयहिन्द शताबर। और शताबर के संगे-संगे मार्च करो। राजपूत रेजीमेंट का सूबेदार मेजर साधोसिंह ई बतकही के लिए डाक्टर साहेब को पेसल सैलूट देता है।

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सेहत, सरकार और सपना..!
अपने तंग दायरे में घंटों सोचता रहा कि जो काम अपने अन्ना हजारे नहीं कर सकें उसे एक    नई सोच वाले नौजवान फिल्मकार आमिर खान ने कर दिखाया। बिना किसी लाग-लपेट और किसी राजनैतिक लालच के। 
 एक एपिसोड में उन्होने देश कि गरीब जनता के गिरते स्वास्थ्य से हमें रूबरू कराने का एक सफल प्रयास किया जो काबिले-तारीफ होने के साथ ही देश की गरीब जनता के स्वास्थ्य और चिकित्सा का ढिंढोरा पीटने वाली सरकारों को जगाता भी है। मगर प्रश्न उठता है कि सरकारों के कानों पर कहाँ जूं रेंगने वाली है? यह ज़रूर है कि हालिया कुछ ताबड़तोड़ दुर्घटनाओं के होने पर स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विभागों मे खलबली मची है लेकिन आज भी शहरों से लेकर गावों तक में चिकित्सा व्यवस्था तार-तार नज़र आ रही है। 
 कोई नई बात नहीं है। ढिंढोरा पीटने में हमारी सरकार सबसे आगे है । प्रतिदिन स्वास्थ्य मंत्री की ओर से अस्पतालों मे दवाओं की कोई कमी न होने देने का एलान और लापरवाह सरकारी डाक्टरों के विरुद्ध सख्त कदम उठाने की मुहिम चलाई तो जाती है मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात । हमारे यहाँ स्वास्थ्य को दोयम दर्जे पर रखा गया है। दोयम दर्जे पर इसलिए कि स्वास्थ्य की समस्या अधिकतर दोयम दर्जे वालों यानि गरीब-गुरबों को होती है। मसलन आजकल दिमागी-बुखार का बोल-बाला चल रहा है। सुनने में आ रहा है कि अभी तक डाक्टर साहबों के समझ में ही यह बीमारी नहीं आ रही है । रिसर्च चल रहा है। सुना जा रहा है कि बहुत से अस्पतालों में इस बीमारी की दवा है ही नहीं। जबकि रोज़ समाचार-पत्रों मे दिमागी बुखार से मरने वालों की संख्या में इजाफा दिखाया जा रहा है। चलिये कोई बात नहीं, कम से कम इसी बहाने जनसंख्या कम हो रही है। लेकिन यह भी गौरतलब है कि बेमौत मरने वाले कौन हैं? वही भूखे,नंगे किसान और मज़दूर जिन्हे नामचीन अस्पतालों में इलाज के लिए जाना किस्मत में लिखा नहीं है । उनमें कुछ तो झाड़-फूँक का सहारा लेते हैं। 
उधर नज़ारा कुछ और ही दिखता है। देश की लाखो-लाख लोगों के शानोशौकत से लबरेज प्रतिनिधियों से जैसे बीमारियाँ दूर भागती हैं क्योंकि बीमारियाँ भी जानती हैं कि उनके नाम कि तूती बोलती है। उन्हे मज़ाक में भी छू भर लिया कि लेने के देने पड़ सकते हैं। डाक्टरों का हुजूम उमड़ सकता है, एक से एक बेहतरीन दवाएँ पलक-पांवड़े बिछाए हुए सात कोठरी से निकल कर नेताजी के कदमों में बिछ सकती हैं। इसके अलावा और भी विकल्प जैसे विदेश में इलाज वगैरह उपलब्ध हो सकते हैं। होना भी चाहिए क्योकि वे संपूर्ण देश के गरीब-अमीर जनता के माननीय प्रतिनिधि होते हैं। पर अफसोस, जो जनता बड़े अरमानों से उन्हे चुन कर उस सुनहरी कुर्सी तक भेजती है उसी के लिए इलाज सपना बन कर रह जाता है । नतीजा होता है शहर से ट्रामा सेंटर तक की यात्रा मे उसे स्वर्ग-धाम पंहुच जाना पड़ता है। 
यह तो सच है कि गरीबों के सपने कभी पूरे नहीं होते हैं फिरभी उनके दिल इतने भावुक होते हैं की किसीने प्यार से उनके सिर पर हांथ रख कर झूठे सब्जबाग दिखा दिये बस वे उसी के हो के रह गए। उनके नाम पर लिखी दवाएँ अस्पताल में उपलब्ध नहीं रहती हैं क्योंकि उन्हे सात दरबे के भीतर रखा जाता है माननीयों और उनके गुर्गे या शहर के नामी-गिरामी माफ़ियों के लिए।  गरीबों के लिए तो गाँव के झोलाछाप डाक्टर ही हकीम लुकमान और वैद्यराज धन्वंतरि गाढ़े मुसीबत में साबित होते हैं। मरने-जीने को वे भाग्य के भरोसे छोड़ देते हैं। नर्सिंग-होमो के मोहल्लों में जाने की उनकी हिम्मत कहाँ?
तो जनाब यह आलम है अपने स्वास्थ्य,सरकार और सपने का। अन्य देशों में स्वास्थ्य और चिकित्सा पर उतना ही ध्यान दिया जाता है जितना कि अपने यहाँ रेल व सेना पर। लेकिन यहाँ सब मामला ही उल्टा-पलटा है। ध्यान दिया जा रहा है तो हर गली-कूचों में आबाद नर्सिंगहोमो पर जिन्होने सरकारी डाक्टरों को मुहमांगी रकम दे कर खरीद लिया है और सरकार सिर्फ बंदरघुड़की दे कर चुप हो जाती है। किसी लाइलाज बीमारी के रिसर्च करने की यहाँ किसी को फुर्सत ही नहीं है। यदि दर्द से तड़पता मरीज़ ज़्यादा कुछ कहता है तो उसे टका सा जवाब मिलता है कि डाक्टर तुम हो या मैं? उस उत्तर को सुन कर हम जैसों कि हवा ही निकाल जाती है क्योंकि हमारे पीछे न कोई माननीय होता है। और न कोई नामी-गिरामी माफिया। जनतंत्र के मंच पर स्वास्थ्य और चिकित्सा के संबंध में सरकार कानून तो बहुत बनाती है लेकिन वह भी लाचार दिखती है। न जाने क्यों?

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परिक्रमा..!!
चौथेपन मे चिथरिया-चौमासा, 
अपने भाई मीर-साहब का भी जवाब नहीं। वही खिस्सा कि लड़कपन खेल में बीता, जवानी नींद भर सोया, बुढ़ापा देख के रोया, सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है। अब भाई मीर साहब की सोंच को किसी काक्रोच ने काटा तो निकल पड़े बाप-दादों के जमाने की कुबड़ी टेंकते हुए चिथरिया-चौमासा बाँचने। उन्होने सोचा था कि चिथरिया किसी खाकी के खाके में किसी आलीशान ‘हॉल’ की तरह होगा पर उनके लंगोटिया यार रामबोला ने बताया कि  चिथरिया खादी के खन्डहर में खानाबदोशी का खेल खेलता हुआ सड़ी-गली लाशों का ढेर है। मीर साहब ने बिना बत्तीसी के पोपले मुंह में पान की सूखी गिलौरी चुभलाते हुए पूछा, ‘अरे यार तुम्हारे ‘सबका साथ सबका विकास’ वाली टॉनिक ने उन पर कोई असर नहीं दिखाया?’ रामबोला ने मुस्कराते हुए कहा, ‘बड़े भाई टॉनिकों से भरी बोतलें लेकर ट्रके आतीं हैं मगर हवाई-पट्टी वाली सड़क से न जाने कहाँ हवा-हवाई हो जाती है। फिर कोई इधर झाँकने तक नहीं आता कि उनकी सेहत मोटे-मुस्टंडे समाज में बैठने लाएक बनी या नहीं। सोचने वाली बात है मीर भाई कि वे जब ज़िंदा लाशे है तो आपस मे कभी कभी गुत्थम-गुत्था भी करेंगी, कूड़े के ढेर पर किसी शकुनी के चक्कर में पाँसे भी फेकेंगे और द्रौपदी दांव पर लगाई भी जाएगी। उनके नाक सुड़कते बच्चे टाट का अपने से कई गुना बड़ा झोला टाँगे और हाथ मे लोहा लगा डंडा थामे सूर्य-नमस्कार करते हुए गली-दर-गली का जायजा लिया करते हैं। अब भाईजान यह तो नहीं मालूम कि कच्ची से गला तर करते हैं या पक्की से? यह तो कोई खाकी धारण करने वाला इस युग का देवता ही बता सकता है। अलबत्ता इन दिनों सियासती-साफा बांधे वोट का फटा कोट बांटने कुछ लोगो की धमा-चौकड़ी बढ़ गई है फिर पाँच साल तक चिथरिया की चिंदी-चिंदी उड़ती रहेगी और उनके नौनिहाल थूकते हुए गाते फिरेंगे, ‘आवारा हूँ या गर्दिश में आसमान का तारा हूँ ....’ मगर अफसोस उन गर्दिशों के काले बादलों को छांट कर कोई वैज्ञानिक उन सितारो को नई चमक देने के लिए ‘चिथरिया’ के एक टुकड़े आसमान की सैर नहीं करेगा।
हर रात ये सिरकटी-लाशे रोती हैं
  ज़माना इतनी जल्दी बदल जाएगा, यकीन नहीं होता हैं। बहुत पहले अक्सर रमफेरवा की माई अपने पड़ोसिन पंडिताइन भौजी को भूत-भात और चुड़ैल के किस्से सुनाया करती थी। रमफेरवा  भी कान उटेरे सुना करता था। एक दिन बताने लगी, ‘बचवा एक दिन तोहरे बापू राते मां जमथरा कईं आवत रहें।  देखत काव हैं कि इनके समनवा एक मुड़कट्टा मनई ठहाका लगावत भये इनके साथे साथे चलत-चलत रेतिया लै आवा। वोकरे बाद न जाने कहा छू-मंतर होय गवा ? वही भय माँ बेचारु ऐसन बेराम पड़े कि ऊ तौ कहो भला होय ओझा चाचा कै कि जल्दीये चंगा होय गए। अरे ऊ मुड़कट्टा भूतवा तो छोड़े के ही नाहीं चाहत रहा। मुला वाह रे ओझा चच्चा। जौन मंतर पे मंतर पढ़िन कि आखिर भुतवा के भागे के पड़ा। इतने मे रामबोला बोल पड़ा अरे उस जमाने को भूल जाओ घरेतिन। हम तो आज के युग मे सबेरे से रात तक चौक के चौकन्ना घंटाघर के चारो तरफ मुड़कटी ज़िंदा लाश खड़े देखा करता हूँ। मैं ही नहीं बल्कि वहाँ कुर्सी से चिपके खाकीवाले अफसर-मातहत,आते-जाते आला अधिकारी और नेता-पनेता से लेकर नगर-निगम के माई-बाप तक देखा करते हैं पर न कोई बेराम पड़ता है और न कोई ओझा-सोखा झाड-फूँक करता दिखाई पड़ता है। पुराने लोग बताते हैं कि कभी ये लहीम-शहीम पहलवान गर्दन ऊंची उठाए खूबसूरत और शहर की शान कहलाने वाले अपने को घंटाघर के चौकीदार बताते थे। मगर वक़्त ने किसी दुपहरिया पहले एक की गर्दन उड़ाई, फिर दूसरे की, फिर तीसरे की...। गोकि आज एक से बढ़ कर एक शोखा-ओझा के साथ मशहूर पुरातत्व विज्ञानी हैं पर किसी को फुर्सत कहाँ है? अबतों सुना है, एक दिन ये सिरकटी लाशे अपने आप सुपुर्दे-खाक हो जाएंगी क्योंकि अब शहर मे चौकीदारी कर ने वालों की कमी नहीं है। मगर उनकी बिलखती रूहें..... । 

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अब नाम का ज़माना है
उस दिन यादव के चाय की दुकान पर बैठे अपने मीर साहब लालू छाप कुल्हड़ में चाय की चुस्की लेने में पिले पड़े थे। अचानक उधर से गुज़रा तो उन पर नज़र पड़ी। मीर साहब के इस नये शगल को देखकर आखिर मैं अपने को रोक नहीं सका। पूछ ही बैठा, “अमां, भाई मीर साहब यह क्या? आज भाभी जान से लगता है कुछ अनबन हो गयी है वरना इत्ते सबेरे आप के यहाँ इस टूटी बेंच पर सपरैटे दूध की चाय पीने का प्रश्न ही नहीं उठता है”।
मीर साहब पहले तो कुछ सकपकाए फिर बैठने का इशारा करते हुए बोले, “अमां भाई क्या कहूँ? कम्बख्त आरक्षण पर बहस हो गयी। मैं औरतों के आरक्षण मुद्दे की वकालत करते हुए बिल्कुल सही ठहरा रहा था और वह अक्ल की मारी खिलाफत कर अड़ी पड़ी थीं। आखिर में मैंने वॉक आउट करना ही बेहतर समझा”। ‘मियाँ तो यह बात है? महँगाई के मुद्दे को दरकिनार कर आप लोग चोंचे लड़ाने लगे आरक्षण मुद्दे पर। समझ-समझ कर नासमझी कर बैठते है आप लोग”। मीर साहब “मैं कहता हूँ अगर आरक्षण मिल भी गया तो कौन सा तीर मार लेंगे आप? उसका भी फ़ायदा बड़े लोगों को ही मिलेगा। उन्हीं की बेगमों की पांचों उंगली घी में और सिर कढ़ाई में होगा भाईजान”।
भाई मीर साहब के सामने अब टॉपिक बदलने के सिवा कोई चारा नहीं था। चाय का खाली कुल्हड़ एक तरफ फेंकते हुए मीर साहब खिसियानी बिलाई खंभा नोचने की मुद्रा में बोले, “अच्छा यार यह बताओ कि तुम जो परचों और रिसालों (पत्र-पत्रिकाओं) में लिखते हो तो अपना नाम क्यों नहीं देते हो? बेनामी के अंधेरे में कैसे तुम्हारी पहचान बनेगी? यहाँ तो अपनी पहचान बनाने के लिए लोग न जाने क्या-क्या कर रहे हैं”?
कुछ देर के लिए मीर साहब की बात सुनकर मैं भी सकते में आ गया कि बात तो वह बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। इतनी मगज़मारी करने के बावजूद कोई मुझे पहचानता नहीं। समझता ही नहीं है कि मैं भी शहर में कोई अफसाना निगार हूँ। लेकिन फिर समझ में आया कि उस गरीब किसान को कौन पहचानता है जिसे लोग अन्नदाता तो कहते हैं पर उसका नाम नहीं जानते हैं? उस मज़दूर को नहीं जानते हैं जो अपनी मेहनत से खड़ी की गई आसमान छूती इमारतों के बगल में उजड़ी हुई बस्ती में वास करता है और लोगों की डांट-डपट सुन कर भी खामोशी की चादर में लिपटा पड़ा रहता है। बस उसे तसल्ली भर होती है कि ‘जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ’। मैं भी बेनाम होकर यही सोचा करता हूँ कि ‘मरना तेरी गली में जीना तेरी गली में, मरने के बाद चर्चा होगी तेरी गली में।’
मौका मिलते ही मीर साहब ने मेरे ऊहापोह में फँसे चेहरे को पढ़ते हुए आखिर बकना शुरू कर दिया, “मियाँ वह ज़माना बहुत पीछे छुट चुका है कि जब लोग काम से पहचाने जाते थे। आज तो जिसका जितना झूठ-सच प्रचार हो बस उसी कि समाज से लेकर सियासत तक पहचान होती है”।
बात भी ठीक हिंदुस्तानी जम्हूरियत में काम कम नाम ज़्यादा होने का दस्तूर निकल पड़ा है। इसलिए बड़ी-बड़ी भीड़ इक्कट्ठा करके एक दूसरे पर छींटाकशी करने का चलन चल निकला है। मुल्क महँगाई कि मार से मरता रहे लेकिन अपने नाम कि टिकुली सटा कर लोगों के आकर्षण का केंद्र बनने कि तमन्ना होती है। पहले तो लोग अपने महबूब को ताज़े खूबसूरत फूलों की माला पहना कर उसके खैरमकदम के लिए बेकरार रहा करते थे लेकिन अब बाग़-बगीचे हैं कहाँ? इसलिए बेशकीमती कागज़ के टुकड़ों को एक लड़ी में पिरो कर इस्तकबाल रस्म अदायगी हो रही है। बाकी लोगों का क्या? उनका तो ‘खुदा हाफ़िज़...’।
मीर साहब की बातें सुनकर मेरा भी जी मचल उठा है कि अब मैं भी नाम के साथ अफसाने लिखूँ। शायद मेरे अभिनन्दन के लिए भी अच्छी संख्या बढ़ जाए।
नोट :- ( 18 मार्च 2010 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित )

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मान मेरा अहसान, अरे नादान..!
आज अपने मीर साहब खूब चहकते हुए घंटाघर के पास नज़र आ गए। वह किसी पुरानी फिल्म के पुराने गाने को बड़ी अदा के साथ गा रहे थे ‘मान मेरा अहसान अरे नादान, तुझसे किया है प्यार .......। मुझसे न रहा गया तो मैं बेसाख्ता मीरसाहब से पूछ बैठा, ‘अमा मीर भाई लगे है आज साहबज़ादे को बेरोजगारी भत्ते का पहला चेक हासिल हुआ है ? तभी ताज़े पान की गिलौरी मुंह में झोंक कर गाते हुए झूम रहें हैं जबकि मियां भूल गए कि साठ पार कर हो चुके हो। भाई मेरे, अब तो अल्लाह-अल्लाह करने की उम्र है’। इतना सुन कर मीरसाहब ठहाका मार कर बोल उठे ‘जल उठे न भाई। यही तो अपने मुल्क की खास बात है कि लोगों को किसी की खुशी फूटी आँखों नहीं सुहाती है’। बहरहाल मीरसाहब जावेद भाई की चाय की दुकान की तरफ खींचते हुए बोले भाई, अमा बस इतनी सी बात का बुरा मान गये ? जावेद भाई की दुकान के सामने ढकरपेंच बेंच पर पसरते हुए कहने लगे, मेरे भाई अपनी लताजी भी तो अस्सी को पार कर चुकी हैं पर अल्लाहमियाँ ने क्या आवाज़ दी है कि आज क्या आने वाले कल भी लोग उनके मुरीद बने रहेंगे। अमा, आवाज़ में गजब की कशिश है। हँसते हुए कहने लगे अभी तो मैं जवान हूँ भाई मेरे। महज़ ज़िंदगी मे साठ ही तो बसंत देखना नसीब हुआ है। गोकि रहा गर्दिशों मे हरदम मेरे इश्क़ का सितारा, कभी डगमगाई कश्ती कभी खो गया किनारा। पर तुम्हारे मीर ने कभी मुंह नहीं लटकाया। खुदा का करम है कि उसने जोशे –जवानी को कभी कम नहीं होने दिया। मेरे हमदम मेरे दोस्त मैं तो हमेशा अल्लाहताला से यही दुआ करता हूँ कि लताजी खूब उम्रदराज होकर हमें अपने सुरों से नई हँसती-खेलती ज़िंदगी अता फरमाती रहें।
   मैंने कुछ सिरियस होकर मीरसाहब को कुरेदते हुए कहा ‘मीर भाई इस मामले में अपना देश बड़ा एहसान फरामोश है। काम निकल गया। दुख बिसर गया। आपने तो हुज़ूर बेगम अख्तर से अच्छी तरह वाकिफ होंगे। यहीं इसी शहर में पैदा हुईं। पली बढ़ी हुईं और फिर अपनी दिलकश आवाज़ के जादू से दुनिया को ‘वाह-वाह’ कहने पर मजबूर कर दिया। मगर हैरत यह है कि इसी शहर ने उसे भुला दिया। यहाँ तक कि आज के नए ज़माने के लोग और बहुत से नामी-गिरामी फनकार उनकी याद में कोई मोहल्ला या सड़क का नाम रख कर उस मरहूम फनकारा को खिराजे-अक़ीदत पेश करने की भी नहीं सोचते। अफसोस दर अफसोस होता है मीरसाहब। यहाँ तो मुंह देख कर मोहब्बत में क़सीदे पढे जाते हैं वरना कौन किसको पूछता है यारों ? यही हाल अपनी दिल-अज़ीज़ लता जी का भी हो सकता है।
     जावेद भाई चाय की दो प्यालियाँ हाजिर करते हुए हम दोनों की चोचें लड़ाने का अंदाज़ देख रहें थे। उसी वक्त न जाने कहाँ से अपना लख्तेजिगर रमफेरवा आकर अवतरित हो गया? अपनी टांग अड़ाते हुए बोल पड़ा ‘आप लोग बेकार में ही पुरानी लकीर पीटे जा रहें हैं। जनाब ज़रा हवा का रुख तो देखिये। तेल देखिये तेल की धार देखिये। अब हुज़ूर अब दिल खोल कर गाने का वक़्त आ गया है कि ‘मोहन की मुरलिया बाजे .....’। लता और अख्तरी को अब याद करने से कोई फ़ायदा नहीं। गीत और गज़ल कुछ सिरफिरों को छोड़ कर आजकल कौन समझदार आदमी सुनना पसंद करता है ? अलबत्ता मोहन की मुरलिया की धुने अपने मुल्क से लेकर अमेरिका और बरतानिया तक में धूम मचा रहीं हैं। चचाजान सुना है कि कभी तानसेन और बैजू बावरा के गाने पर आग लग जाती थी, पानी झमाझम बरसने लगता था। पत्थर पिघल उठते थे और जंगल से जानवर भाग कर उनके पास पंहुच जाया  करते थे। जनाब गौर फरमाये तो आज भी वही कमाल अपने मोहन की मुरलिया से निकली धुनों में भी देखने को मिल रहा है। बदलते जमाने के लिहाज़ से उनकी धुनों का कमाल देखिये कि पेट्रोल और डीजल में आग लग रही है और विदेशी गोलगप्पे, मूली-गाजर साग-भाजी वाले जनावर मोहन की मुरलिया की धुन से मोहित होकर इधर कुलाचे भरते चले आ रहें हैं। यह मोहन जी और उनके गोप-गोपियों की करामात है कि अब पश्चिमी डांस बड़े-बड़े कालेजों में सिखाने का फैसला लिया जा रहा है बिलकुल डी आई डी वग़ैरह की तर्ज पर। अफसोस, सर सैयद अहमद खाँ और पंडित मदनमोहन मालवीय के ज़ेहन में कभी यह ख्याल नहीं आया होगा। सब वक़्त-वक़्त की बात है। गाँवों में हाट लगने वाला ज़माना लद गया है अबतो मॉल हर दो कदम पर खुलने की बहार आ गई है। सुना है एक दबंग किस्म के विधायकजी की नीयत मेरे ढहते दाएरे पर गड़ी है कि एक दिन जबरन कब्जा करके एक आलीशान माँल बनवाया जाये। मैं कर भी क्या सकता हूँ ? कहाँ मेरी औकात कि विधायकजी से पंगा ले सकूँ ? ज़माना भारत का नहीं, इंडिया का हो चला है तभी तो आज चीज़ें आसमान छूं रहीं हैं कल मंगल ग्रह को छूने में देर नहीं लगेगी। कहाँ ज़माना गोपी कृष्ण और लच्छू महाराज का था, आज भारत के गीत सुनानेवाले माइकल जैकशन के दीवाने दिखाई दे रहें हैं।   
     सिर पर चढ़े सूरज की तपिश ने आखिर महफिल बर्खास्त करने का अल्टिमेटम दे ही दिया जैसे कुछ दिन पहले बड़े साहब ने कहा था, खैर उन्होने जो कहा उसे कर भी दिखाया। बेगम अख्तर तो अल्लाह को प्यारी हो गईं। रही लताजी की बात तो उन्हे भी जमाने की चाल को भाँपते हुए तानपूरे को नमस्कार करना ही पड़ेगा क्योकि अब ज़माना टीन-कनस्तर को पीटने का आ गया है। 
    यही सब सोचते हुए मै अपने घोंसलेनुमा दाएरे की तरफ लौटा तो देख कर हैरत हुई कि तमाम पुलिस वाले मेरे बंद कपाट खुलवा कर न जाने क्या ढूंढ रहे थे और मीडियावाले अपने पुराने कैमरों के साथ किसी नई खबर की तलाश में भाग-दौड़ मचाए थे। दाएरे के भीतर से एक दरोगा जी बिना आलू के समोसे की तरह मुंह बनाए निकले तो मीडियावालों ने उन्हे घेर कर सवालों की झड़ी लगा दी। परेशान हाल दरोगा जी ने फिर भी पोज देते हुए बताया कि सिर्फ एक अदद टुटही साइकिल और कुछ बेमशरफ अखबार की कटिंगों के कुछ नहीं मिला। मैंने नीली छतरी वाले को लाख-लाख धन्यवाद देते हुए सोचा कि चलो एक फटीचर लेखक की इज्ज़त तो बची। 

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महामतदान का महाकुंभ..!
‘यह ज़िंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे’, हम रहें न रहे पर हमारी आत्मा संसार के सबसे विशाल लोकतन्त्र की छांव मे बैठ कर गुनगुनाती रहेगी ‘जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ..?’ इस लोकतन्त्र के वटवृक्ष की शाखाओं पर विभिन्न रंगों के पंछी जब कलरव करते हैं और नीचे चबूतरे पर जब बुद्ध, ईसा, मुहम्मद जैसी महान विभूतियों को अपने-अपने अनुचरों को दीक्षा के लिए भिक्षा-पात्र प्रदान करते हुए आदेश करते है कि उनकी सारी साधनाओ का केंद्र बिन्दु यही लोकतान्त्रिक वटवृक्ष है। मैं तो बीते हुए महाकुंभ से बढ़ कर इस महाकुंभ की गरिमा को हृदय से मानते हुए सभी से विनम्र निवेदन करना चाहता हूँ की अपने जनपद मे आगामी छ्ह मई को आयोजित होने वाले आम चुनाव रूपी महाकुंभ में सपरिवार अपनी उपस्थिती दर्ज़ कराते हुए अपने मत (वोट) रूपी पत्र-पुष्प अवश्य अर्पित करें। अंत भला तो सब भला । इस संकल्प से प्रसन्न हो कर लोकतन्त्र रूपी महा-महा कुंभ-स्थल से स्वर गूंज उठेगा, “ धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है,यहीं हैं”। तो आइये आप का मतदान केंद्र आप का इस्तकबाल करने को बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है। मतभेद और मनभेद रूपी राक्षस से मुक्ति पाइये।  किसी विषय पर मतभेद होना एक स्वाभाविक क्रिया है। मतभेद क्यों होता है यह मनोविज्ञान का विषय है। हम तो इतना जानते है कि भिन्न-भिन्न जीवों की मानसिक स्थिति अलग-अलग होती है, उसी के अनुसार वह चीजों का आकलन करता है। मतभेद आवश्यक भी है। यदि मतभेद न हो तो विकास की गति रुक जाएगी। नए विचारों की उत्पत्ति रुक जासकती है। सागर मंथन से ही अमृत और विष निकले थे। स्वाधीनता संग्राम की सफलता का कारण यही था कि मतभेद होते हुए भी मनभेद नही था। नरमदल गरम दल होते हुए भी एक ही लक्ष्य था ‘आज़ादी’। इसी तरह आज हमारा लक्ष्य है लोकतंत्र की गरिमा को कायम रखना। इस विशाल देश के विशाल लोकतंत्र की गरिमा तभी अजर अमर हो सकती है जब हम कृत-संकल्प हो कर मनभेद से दूरी बनाए रखते हुए स्वस्थ आलोचना को अपना उद्देश्य बनाये। मर्यादा के दायरे से बाहर निकलेंगे तो कोई रावण सीता-हरण कर सकता है। सिर्फ एक सुनहरी कुर्सी के लिए हम एक दूसरे का टेंटुआ दबाने को तैयार हो जाते हैं तो देश रोता है, लोकतंत्र बिलखता है। विचारों का आदान-प्रदान होना अच्छी बात है किंतु मर्यादा का उलंघन करके नही। हमे सौभाग्य से मताधिकार मिला है, हम उसका सदुपयोग करना सीखें। हमे नही भूलना चाहिए कि अधिकार के साथ कर्तव्य भी जुड़ा है। सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाये तो उसे भूला नही कहते है। इस बार सभी दलों की ओर से जो अमर्यादित टिप्पड़ियों का सहारा लिया गया वैसा शायद यह दिनों नही हुआ था जब हमने लोकतंत्र की झलक भर देखी थी।


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आसनसोल में पहला कदम..!
वर्ष 1982 अक्टूबर। झाझा से प्रिंसिपल पद पर प्रोन्नति पा कर आसनसोल ईस्टर्न रेलवे हाई स्कूल (बंगला माध्यम) रवाना होने पड़ा। यद्धपि मेरे हितैषियों ने मुझे डराया कि आप रिफियूज़ कर दीजिए क्योंकि बंगाली, बिहारी और यू पी वालों को बहुत परेशान करते हैं। लेकिन अयोध्यावासी होने के नाते एक ही जवाब होता था कि बंगाल तो बगल में है जबकि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने श्री लंका तक की निष्कंटक यात्रा कर डाली साथ ही विजय पताका भी फहरा दी।
  आसनसोल पहुंच कर वरिष्ठ कार्मिक अधिकारी श्री ओंकार सिह को रिपोर्ट किया। उनके आदेश से स्कूल पहुंचा। लेकिन वहां एडहॉक पर कार्यरत सज्जन नदारद थे। रजिस्टर भी छुपा दिया था। धीरे धीरे वाइस प्रिंसिपल और उनके साथ एक दो लोग बंगला के कट्टर समर्थक पहुंचे।रेल प्रशासन के साथ मुझे भजो मन में आया वह सुनाया। उनका मकसद  सिर्फ था कि  एक बंगला भाषी कॉलेज में आपको क्यो प्रिंसिपल के पद पर भेज दिया गया? उसमे एक दो  बंगला यूनियन के नेता भी थे। बहरहाल मैं संघ लोक सेवा आयोग से चयनित था इसलिए  ज्वाइन तो कराना ही था।
दूसरे दिन से ही दुर्गा पूजा और दीपावली का अवकाश हो गया। फिर जब एक माह के  बाद कॉलेज खुला तो  मेरा प्रथम संबोधन होना था। बंगला जानता नही था। हिंदी में ही बोलना शुरू किया था तभी बच्चो के पीछे से किसी सीनियर क्लास के छात्र की आवाज़ आई," मास्टर मोशाय एई बंगाल आछे हिंदी चोलबे न"। मैं थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर निडर हो कर बोला ," आप बता सकते है कि आप हिंदी फिल्में क्यो देखते हैं? श्री राम से लेकर अमिताभ बच्चन की फिल्में या सीरियल्स किस भाषा मे देखते हैं?" चारो तरफ सन्नाटा। फिर मैंने कहा मेरे बच्चों, आप सही है। यह ठीक है कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है फिर भी हमे राज्यो की भाषा का आदर करना चाहिए। बंगला भाषा भाषियों के प्रति मेरे हृदय में पूरा सम्मान है लेकिन जन्म लेते ही तो हम बोलना नही शुरू कर देते है। मैंने तो बंगाल में अभी जन्म लिया है। में इस पवित्र विद्यामंदिर के पवित्र मंच से संकल्प लेता हूँ कि ठीक छह महीने का मौका दीजिये। छह महीने पूरे होते ही मैं बांग्ला माध्यम से आपका क्लास लूंगा। यद्यपि मेरा काम बतौर प्रिंसिपल प्रशासन है लेकिन पहले मैं शिक्षक हूँ बाद में प्रिंसिपल। बच्चो ने करतल ध्वनि से मेरे कथन का स्वागत किया। राष्ट्र गान के बाद असेम्बली डिस्पर्स  हुई और सभी छात्र अपनी अपनी कक्षाओं में चले गए। मैं भी अपने चैंबर में चल आया। बैठते ही मैंने उस छात्र को बुलवाया। वह डरते हुए मेरे कमरे में दाखिल हुआ। मैंने उसे बैठने के लिए कहा पर वह अपने प्रिंसिपल के सामने कैसे बैठ सकता था?  मैं उसकी मनोदशा संमझ कर बोला," उत्तम आज से तुम मेरे गुरु और में शिष्य। कोई जरूरी नही कि सब कुछ सब को आवे ही। आज आपने( मैं अपने शिष्यों को इसी तरह संबोधित करता था) मुझे ज्ञान दिया।  अधिक से अधिक भाषाओ का ज्ञान आवश्यक है। आप लोग अपनी भाषा के प्रति इतने जागरूक हो, जान कर मुझे प्रसन्नता ही नही मनोबल भी बढ़ा है। आज से आपलोग मुझसे बंगला में ही वार्तालाप करेंगे।" यही संदेश सभी शिक्षकों को भी दिया। धीरे धीरे बंगला भाषा की ओर रुचि बढ़ने लगी। सचमुच यदि मन मे सच्ची श्रद्धा हो तो कोई भी कार्य मुश्किल नही। बचपन से ही न जाने क्यों उस बंग भूमि के प्रति अपार श्रद्धा रही है। माँ के आशीर्वाद से ठीक छह माह बाद जब मैं राजनीति शास्त्र का क्लास चक और डस्टर के साथ जाने लगा तो लोग आश्चर्य से देखते रहे। कुछ तो मेरे क्लास के आस पास मंडराते रहे। लेकिन क्लास मंत्रमुग्ध हो कर मेरी टूटी फूटी बंगला सुनती रही। यूं ही रोज एक क्लास लेते हुए बंगला भाषा को माँजता रहा। मेरे मन में कंठ कोकिला लता और आशा जी की छवि बैठी थी जो महाराष्ट्रीयन होते हुए भी हर भाषा मे गीत गाये। मन्ना डे बंगाली होते हुए भी हिंदी उर्दू में गीत ग़ज़ल के प्रस्तुतिकरण का जवाब नही। मतलब यह कि यदि सीखनेकी  ललक हो तो कोई चीज़ मुश्किल नही। वही ललक या समर्पण भाव आप को विजेता बना देगी। मेरे साथ भी वही हुआ जिसके कारण आज भी मुझे उन सभी का अथाह प्यार मिल रहा है। इसे मैं मां की कृपा कहूँ या अपना स्वभाव। मुझे उनके बीच जो आदर सम्मान मिला वह हमेशा बना रहे। यही प्रार्थना है।

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दलदल भरे जंगल में दंगल..!
नया साल..। जंगल में जाऊँ कैसे, पिकनिक मनाऊँ कैसे..? क्योंकि दूर तक दलदल ही दलदल हैं और उसमें कीचड़ में रेंगते बड़े-बड़े मगरमच्छों को देख कर खौफजदा हुआ जा रहा हूँ..! बीते चौसठ सालों से पिकनिक मनाने की प्लानिंग करता रहा हूँ पर बदकिस्मती ही समझता हूँ कि वह ख्वाब पूरा नहीं हो पा  रहा है..! कौन उन पालतू मगरमच्छों के बीच अपनी जान गॅवाने जाये..? सचमुच हिम्मत जवाब दे रही है..! 
  इधर अपने अज़ीज़ मीरसाहेब गिलौरी मुह में झोंकते हुए मेरे लख्तेजिगर रमफेरवा और उसकी ललिता  पवार कट माई को यक़ीन दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि अब डरने की कोई बात नहीं है। दिल खोल कर नए साल में पिकनिक मनाओ। समझो कि चुनाव-कमीशन ने पूरी हिफाज़त कर दी है। अब पालतू मगरमच्छों ने भी दूसरे-तीसरे तालाब की तरफ भागने का जुगाड़ कर रहें हैं। अपने बापू की बात छोड़ो बेटा। उसे तो चाहिए सिर्फ एक कच्ची-पक्की दारू की बोतल और एक हरा पत्ता सौ का। फिर उसे चाहे जंगली या पालतू मगरमच्छों से भरे दलदल में ले जा कर वहाँ उससे पिकनिक में मुन्नी मैं तो बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए, आजकल का खूब चालू गाना गवा लो। मुला चचा सुना है कि अगले महीने ऊ दलदल भरे जंगल में अगले महीने बहुत बड़ा दंगल होवे जात है। ऐसे में दलदल में दंगल देखे के जाय? मीरसाहेब एक गिलौरी और चुभलाते हुए बोले“बेट्वा, फीकिर नोट। अब दलदल में चुनाव-आयोग बड़का-बड़का पत्थर डालकर अइसन पोखता ज़मीन तैयार कर रही है कि वहाँ फसकिलास अखाड़ा बनते देर नहीं लगेगी।एक बात ज़रूर है कि लाख दलदल को पोखता बनाने के बावजूद दो- चार मगरमच्छ ज़रूर ऊपर रेंगते दिखाई पड़ेंगे, हाँ खूबसूरत जंगल में चारचांद लगा कर पिकनिक करने वालों को आमंत्रित करने की कोशिश की जाएगी। एक आदमक़द बोर्ड लगा कर यह बताने का प्रयास किया जाएगा कि डरने की बात नहीं है। पिकनिक मनाना आप सब का जन्मसिद्ध अधिकार है। फोटो आई डी कार्ड के साथ आप सब का स्वागत है। मगरमच्छों से सुरक्षा के लिए चप्पे-चप्पे पर गार्डों की तैनाती कर दी गई है। 
   जनाब मीरसाहेब ने एक दूसरी खुशखबरी सुनाते हैं कि उस दलदल में अब अगले महीने एक शानदार दंगल का आगाज किया जा रहा है जिसमे सब लोग दिग्गज पहेलवानों के हैरतअंगेज कारनामे देखेंगे। उनका सभी दलों के दलदल से वास्ता रहेगा। बेटा रमफेरवा, हर दल अपने दिग्गज पहलवानों को खूब पिस्ता-बादाम का हलुआ खिला कर दूध से नहला रहा है और तरह-तरह के दाँव-पेंच सीखा रहें हैं। पुराने सींकिया पहलवानों को जिन्होने अपनी सूखी हड्डियों को खूब मुफ्त का तेल पिला-पिला कर मोटा बनाने के लिए रियाज़ पर रियाज़ मारा उन्हे ऐन मौके पर अखाड़े से खदेड़ कर किसी न किसी केस में लाद  दिया। लोग तो तरह-तरह की बात करते हुए कहते हैं कि सब ड्रामेबाजी है। अपने रमफेरवा कि माई भी कहती है कि दंगल से पहले यही पहलवान दुलरवा बने दलों के बड़े-बड़े भारी गट्ठर ढोते हुए अपनी ताक़त का प्रदर्शन करते नहीं अघाते थे। अपने उस्तादों के इस्तक़बाल में पलक-पांवड़े बिछाया करते थे। पर आज दलों के लिए शायद सियासत के दलदल में वे पालतू पहलवान फिट नहीं बैठ रहें हैं और दूसरी तरफ आउट किए गए पहलवान आंखो के घड़े से आँसू ढरकाते हुए उलाहना देते हुए कहते हैं कि मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं। पहले प्यार जता कर अब नफरत के हम शिकार हो रहे हैं। मंदिर में दिन-रात एक कर के और अपने- परायों के तरह-तरह के ताने सुनने के बावजूद दंडवत कर के पड़ा रहा मगर यही प्रसाद मिला कि हमसब पुराने भक्त अब उनकी नज़र में निकम्मे साबित हो गए हैं। जेल के सीखचों के भीतर रहने लाएक हैं। 
    अपना लख्तेजिगर रमफेरवा भी बचपन से दंगल का शौकीन रहा है। स्कूल और मोहल्ले में उसने कितनों को धोबिया-पाट से चित किया है मगर निहाएत गरीब घर का होने की वजह से किसी दल के बड़े उस्ताद ने उस बेचारे को लिफ्ट नहीं दिया और न तो अपने पास दूध,घी, मेवा- मिष्टान खिलाने की  औकात रही। अब सूबे के इस बड़े दंगल में उसे भी अपना जौहर दिखाने की ललक है पर गरीबी उसके रास्ते में रोड़ा बन गई है जिसकी वजह से उसे कोई दल लिफ्ट नहीं मार रहा है। मोहल्ले के कुछ उत्साही लोग रमफेरवा को दंगल में उतारने के लिए इधर-उधर दौड़-भाग भी करते रहें पर उसकी बदकिस्मती यह कि उसकी ज़ेब में इंट्री-फीस देने के लिए और उसके बाद भी दुनिया भर के खर्च के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है। अपने मीर साहब कभी-कभी ठीक ही फरमाते हैं कि जब घर से पेट भर कर निकलिए तो बाहर भी खाना खिलाने वाले बहुत मिल जाते हैं। भाई मेरे, बाप-दादों के जमाने वाले दंगलों और पहलवानों को भूल जाओ। उस वक़्त मिट्टी को तेल पिलाया जाता था। अब तो अपनी चंदिया मे तेल लगाना नसीब नहीं होता है। 
     मैं रात की खुमारी में अलसाया सा उठा तो सामने अपने फटीचर लख्तेजिगर रमफेरवा को देख कर बोला, बेटवा मैंने रात में मुफ़त में मिली थोड़ी सी पी ज़रूर थी लेकिन यह न समझो कि मैं गुजरे जमाने के दंगलों का अनुभव भूल गया हूँ। उस जमाने में मिली-कुश्ती नहीं होती थी जैसी आजकल दिखाई देती है। पर देखने वाले यह नहीं समझते हैं कि यही सबसे अनोखा देश है जहां टार्च चोरबत्ती हो जाती है। इसी तरह यहाँ अब दंगल नूराकुश्ती बन गई है। साथ ही यह भी काबिलेगौर है कि दंगल भी वहाँ जहां जंगल भरे दलदल में दंगल हो रहा है। रमफेरवा, अखाड़े और दंगल के नाम पर न जाने कितना धन आता है पर सब बड़े उस्तादों से लेकर पहलवानों के घर के पिछले दरवज्जे से किस खोह मे चला जाता है ?कुछ पता नहीं चलता है। हर पाँच साल पर इसीतरह दलदल में दंगल के खेल को कामयाब बनाने के लिए नयी-नयी मशक्कत की जाती है पर फिर वही पहलवान जीत कर नया करिश्मा दिखाने का वायेदा तो करते हैं पर रह जाते हैं वही ढाक के तीन पात। बयान करने वाले कहते हैं कि दलदल को खूब पोखता बना कर इस बार अखाड़ा बनाया जा रहा है पर देखना है आगे-आगे होता है क्या? फिर ख्याल आता है कि जब गाँव-मोहल्ले की नाले-नालियाँ नहीं पोखता बन पाई तो दलदल की बात ही अलग है। कोई मज़ाक नहीं है, माना कि बड़े-बड़े जाने-माने वैज्ञानिक जूझते हुए अपना कमाल दिखा रहे हैं। भगवान करे वे अपने मिशन मे सफल हों और दलदल के जंगल में होनेवाले दंगल में प्रजातन्त्र रूपी ग्रेट पहलवान का शरीर धूल-धूसरित हो, हाथ मे जीत का परचम लहराता नज़र आए। मीरभाई के और करीब जाते हुए बोला कि भाई मुझे तो शक हो रहा है कि पत्थरों का जंगल भी ऐसा जहां पिंजड़े वाली मुनिया चहचहाने से डरती हैं क्योंकि न जाने कब कौन सा पत्थर दलदल में धंस जाए। अपने समझ में तो यही आता है भाईजान कि दलदल आखिर दलदल है। उसका कोई भरोसा नहीं हो होता है। अलबत्ता बम्बू खूब गहराई तक धंसा कर उस पर लोगों को मुख़ातिब करने के लिए वादों का परचम लहराया जा सकता है,पहले भी लहरा कर लोगों को कुछ देर के लिए खुश कर दिया गया पर बाद मे न बम्बू रहा, न वायदे और न परचम। ऐसे में हम हकीरों-फकीरों को कुछ देर के लिए बहलाया तो जा सकता है लेकिन कुछ पल के बाद हमे उसी हिकारत की नज़र से देखना शुरू कर दिया जाता है जैसे बीते चौसठ सालों से वे दिग्गज पहलवान और उनकी पीठ थपथपाने वाले हम हकीरों-फकीरों को देखते रहे हैं। उस दलदल से हमे उबारना उनके लिए टेढ़ी खीर बन जाती है। क्योंकि दंगल के अखाड़े की मिट्टी से सने पहलवान तेज़ धार वाली टोंटी से अपना हाथ-मुंह साफ करने में लग जाते हैं,हमे देखने की किसको फुर्सत? अखाड़े में उतरने वाले पहलवान इस बार भी हम जैसों की दुआएँ लेने के लिए हर तरह से मान-मनौवल कर रहे हैं। इतना कहकर मैं चुप हो गया। मीरभाई ने ही बात पूरी करते हुए कहा कि आगे का खुदा हाफ़िज़।

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अपने हाल पर बिलखती रेलवे कॉलोनी..!
 
अब मैं रेलवे कॉलोनी की बात कर रहा हूँ तो आप पूछेंगे कि कैसी रेलवे कालोनी, कहाँ की रेलवे कालोनी, कौन सी रेलवे कालोनी..?? भई मुझे बेफिजूल की बात करने की आदत तो है नहीं..l समझने की बात तो यह है कि मैं अपने इकलौते शहर मे पैदा हुआ हूँ, इसी के आँगन मे पला बड़ा हुआ हूँ, जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ..? अब मेरी दूसरों के घर की खिड़की झाँकने की आदत तो है नहीं..। इसलिए समझना चाहिए कि मैं अपने शहर की बर्बाद रेलवे कालोनी के अलावा किसकी बात करने बैठा हूँ..? इतना मेरे पास टाइम नहीं है..। तो चल मेरी धन्नो अपनी रेलवई कॉलोनी..। देखो मुझे बेफजूल बातें करने की आदत तो है नहीं..। बात यह है कि कभी जमाना था जब कॉलोनी चाँदी कि तरह चमका करती थी..। बड़े सबेरे नाले-नालियों को भिश्ती के साथ सफाई करने वाले साफ किया करते थे..। अब पूछोगे कि यह भिश्ती क्या बला थी..? मैंने पहले कह दिया न कि मुझे बेकार की बकबक करना अच्छा नहीं लगता है पर पूछते हो तो बताना ही पड़ेगा..। मशक में पानी भर कर एक आदमी पानी डालते हुए चलता था, उसे भिश्ती कहा जाता था..। अब पूछोगे कि मशक क्या होता है..? पूछना भी चाहिए क्योंकि आजकल के पढे-लिखे लोग भी नहीं जानते हैं..। इस मामले मे मेरी जानकारी का लोग लोहा मानते हैं..। अब बताना तो पड़ेगा ही..। मरे हुए जानवर की खाल को इस तरह बनाया जाता था कि उसमे ढेर सारा पानी भरा जा सके..। उसी को मशक कहा जाता था..। खैर किसी तरह उसकी बातें सुनता और उसकी धन्नो पर टकटकी लगाए रेलवई कालोनी पहुँच गया..। जितना मज़ा धन्नों की सवारी में आया उससे ज्यादा दुख रेलवे कालोनी को देख कर हुआ..। यहाँ देखा कि वह शाख ही न रही जिस पर कभी आशियाना था..। अपने अज़ीज़ मीरसाहब को जैसे अभी मकबरे और गुलाबबाड़ी की दुर्दशा देख कर रोना आता है उसी तरह मुझे रेलवे कालोनी को देख कर आया..। लोग क़हते हैं कि आजकल रेलवे क्वाटर नाम किसी के, रहता है कोई और बंदा जिसका रेल से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। कितनों के दरवाजे चौखट-बाजू सब नदारद। यही नहीं फिर भी फ्री बिजली पानी का मज़ा लेते हुए लोग ऐश कर रहे है। परभूजी की ऐसी माया है कि पहले मोहीं-जुदाड़ो के बारे मे सिर्फ पढ़ा करते थे पर अब साक्षात रेल्वे-कालोनी में देखा जा सकता है। गुड-फ़ील होता है कि अपने शहर में रेल-अधिकारी कितने दरियादिल जमींदार हैं कि अपने सामने अपनी सम्पत्ति को लुटता हुआ देख कर भी महात्मा बुद्ध बने हुए हैं। यही हाल रहा तो दिन दूर नहीं कि जब रेलवे कालोनी पर दबंग टाइगर-टाइप लोग क़ाबिज़ होते दिखते हैं। रोना तो यह है कि बड़े-बड़े अफसर आते है,इधर झाँकने तक की ज़हमत नहीं करते हैं। इनकी टोपी उनके सिर पर और उनकी टोपी उनके सिर पर। उधर प्रभु जी अपनी सम्पत्ति पर फूले नहीं समा रहे हैं। जागो रेलवालों। जागो रेल के हमदर्द यूनियन वालों। रेल की ज़मीन पर कब्जे पर कब्जे होते जा रहे हैं पर किसी को कोई फिकर नहीं। जब वहाँ पूरी आबादी बस जाएगी तो बुलडोजरो के काफिले मार्च करेंगे।

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विकलांग शहर की विकलांग कहानी..!
भैया यह तो जग-ज़ाहिर है कि कोई भले मानुष अपनी दही को खट्टी नहीं कहता है। अब आप मुझे चाहे जिस पाले में रखिए जो मैं अपने शहर को विकलांग कह रहा हूँ। हाला कि आज के जमाने में विकलांग को विकलांग कहना गाली देना समझा जाता है। ज्ञान,विज्ञान और मनोविज्ञान का ज़माना है। पर शहर से सटे गाँव का आदमी हूँ। मुँहफट्ट हूँ। ज्ञानी होता तो किसी जगह प्रवचन करता होता, विज्ञानी होता तो किसी आइंस्टीन की मज़ार पर फातिहा पढ़ता होता और अगर मनोविज्ञानी होता तो मुँहफट नहीं होता। बहरहाल मैंने अपने शहर को विकलांग होने की सिद्धि प्राप्त कर लिया है। इसीलिए विकलांगो के विकास का दंभ भरने वालों से गला फाड़-फाड़ कर सुना रहा हूँ अपने विकलांग शहर की विकलांग कहानी। मानिए चाहे न मानिए मगर इसमे कोई शक नहीं है की अपना शहर दो पैरों पर खड़ा है। एक गंदे गाँव के कीचड़ भरे पोखर मे धंसा है तो दूसरा शहर की पक्की सड़क पर। पहला वाला पैर तो बिलकुल बेकार हुआ जा रहा है। कोई देखने वाला नहीं, जबकि ज़िला परिषद मे बड़ा अस्पताल और उसके भीतर तमाम ब्लाकों मे छोटे अस्पताल खुले हैं। एक से बढ़ कर एक डाक्टर कमपौडर नर्सें वगैरह तैनात हैं पर सब सिर्फ कागज़ की नावें बनाने में लगे हैं। कोई ये नहीं देखता है कि नहर या पोखरे में पानी है भी या नहीं। नाली-नाले कि सफाई निरंतर होती है या नहीं? कहने को खूब इटिंग-मीटिंग होती है और डाक्टर वगैरह के नाम भी खूब हैं : ए डी ओ, बी डी ओ, सी डी ओ आदि-आदि। एस लगता है जैसे स्वच्छ-भारत अभियान से गाँवो का कोई लेना-देना नहीं। गांधी विनोबा कहते कहते अल्लाह को प्यारे हो गए कि भारत गाँव का देश है पर इनकी नज़र मे भारत संगेमरमरी चट्टानों पर खड़ी इमारतों के बीच बसता है। दूसरा पैर नगरपालिका के नकली अँगने में है। जहां स्वच्छ-भारत के माने-मतलब समझने और समझाने वालों कि भीड़ लगी रहती है। हाला कि दशा यहाँ भी बहुत अच्छी नहीं है पर दिल बहलाने के लिए किसी तरह ठीक ही कही जा सकती है। इसीलिए अपना रमफेरवा और उसकी साध्वी माई गाँव में एक मिनट भी नहीं रहना चाहते हैं अब इसे चाहे पलायन कहिए या और कुछ पर हम तो कुल मिला कर यही कहते है कि सबकुछ ‘विकलांग शहर की विकलांग कहानी’ की वजह से है जिधर कोई ध्यान नहीं दे रहा है।

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चड्ढी पहने अपना बस-अड्डा..!! 
अपने लख्ते-जिगर रमफेरवा के बचपन मे पहनी चड्ढी को देख अपने शहर के बेचारे फटीचर बस अड्डे का भोला चेहरा याद आ रहा है। हँसी आ रही है। उससे रूबरूह हो कर कहता हूँ बाबू अब तो बड़े बन जाओ। यहाँ पूरा शहर स्मार्ट बनने की वर्जिस करने में लगा है और एक तुम हो कि अभी भी नादान बच्चे बने चड्ढी पहन कर जग हँसाई करा रहे हो। अमा इसमे तुम्हारा कसूर नहीं है,सब तुम्हारे गार्जियन लोगों का कसूर है जो खुद तो सूट-बूट मे झकझक दिखते हैं और तुम्हें चड्ढी-बनियाइन पहना कर गोद में लिए घूम रहे हैं। भाई लोगों को इतनी भी शर्म नहीं कि सामने सर्किट-हाउस में टँगड़ी पसार कर सरकंडे की कलम से लिखते भलेमानुस लोग क्या कहेंगे। अरे भाई तुम्हारे उन ओहदेदार अभिभावकों को क्या कहें जो फटी चड्ढी पहना कर तुम्हें मेन सड़क किनारे खड़ा कर दिया, वह भी सिविल लाइंन जैसे अपटुडेट मोहल्ले में जहां स्मार्ट बनने की क्लास चलती है। नाम बड़े और दर्शन छोटे। अचरज हो रहा है कि इन दिनों मुल्क में बीफ को लेकर बड़ी हाय-तौबा मच रही है मगर अपने शहर से राजधानी तक वालों के कानों पर जरा भी जूं नहीं रेंगने का नाम नहीं ले रही है कि अपना चड्ढी पहने बस-अड्डा आधी से ज्यादा सड़क का मांस भक्षण कर चुका है, बाक़ी की हड्डी टैक्सी-टेम्पो वाले चिचोड़ रहे हैं। तौबा-तौबा। अरे शहर की सरज़मीं पर शान की बखिया उधेड़ने वाले माँ-बापों अबतों अपने बच्चे बने बस-अड्डे को बड़ा बनाकर चड्ढी उतारो, पैंट-पायजामा पहना दो।

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दोहराना इतिहास का अपने..!

आज की बहती हवा देखकर अपने तंग दाएरे में बैठा सोचने पर मजबूर हूँ कि वह कहाँ हैं..?? कहाँ हैं जिन्हे नाज़ था हिन्द पर, वह कहाँ हैं..? अपने स्टूडेंट लाइफ में अक्सर ‘हिस्ट्री रिपिट्स इट्सेल्फ’ यानी इतिहास सदा अपने को दोहराता है, की बात बड़ों-बड़ों से सुना करता था। तब तो सुना भर करता था, लेकिन ऊपर वाले के रहमोकरम से आज देखने को मिल रहा है। अपने हिस्ट्री के मास्साहेब बताया करते थे कि आदमियों के जंगल जब सबसे पहले धरती पर उगे तो उसी तरह क़बीलों या समूहों में यहाँ-वहाँ रहा करते थे जैसे आजकल कहीं गन्ने के खेत, कहीं गेहूँ या सब्ज़ी और कहीं अरहर के खेत अलग-अलग नज़र आते हैं। कहते थे कि कुस्तुंटूनिया से लेकर टिंबकटूँ तक वे क़बीले फैले थे जो आपस में कभी-कभी अपने को दबंग बताने के लिए एक दूसरे कबीलेवालों से उठापटक किया करते थे। जो जीतता था वही सिकंदर कहलाता था। 
   इसी संदर्भ में अपने तंग दाएरे कि दरो-दीवार पर उसी ज़माने में जन्मे मशहूर हाब्स,लॉक और रूसो की बहुचर्चित फिल्म सामाजिक समझौते के सिद्धान्त की खुशनुमा सीने देखते हुए खुश हो रहा था। साथ ही यादों की रोशनी में अखण्ड भारत का नारा बुलन्द करनेवाले आज के दिग्गजों की आदमक़द आकृतियाँ देखने की कोशिश कर रहा था। सोच रहा था कि उस अखण्ड भारत को जब सात समन्दर पार वाले फिरंगियों ने दो हिस्सों में बांटा था तो लोगों ने बड़ा हो-हल्ला मचाया था। तभी अपने लंगोटिया यार मीर साहब ने धीरे से चपत लगाते हुए पूछा‘अमॉ ज़रा अपनी उम्र का तो ख्याल करो। देवदास बने किस पारो की याद में खोये हुए हो मियाँ ? भाई कम से कम इस बुढ़ापे में अपने लख्तेजिगर रमफेरवा की बूढ़ी माई का तो ख्याल करो। 
  मीरसाहब रमफेरवा की माई का नहीं तो किसी न किसी माई के ख्याल में गुम हो रहा हूँ जो सिर्फ किसी एक की माई नहीं पूरे हिंदोस्तानियों की माई है। इज़हारेख्याल के साथ सबकुछ उन्हे बताया तो मीरसाहब ने ऐसा ठहाका लगाया कि उनके चुचके गालों के गड्ढे यूं दिखे जैसे आजकल सरेराह गली-मोहल्लो की सड़कें गड्ढों से भरी दिखाई देतीं हैं। मियाँ किस जमाने की बातें कर रहे हो? ज़माना बदल चुका है। हक़ीक़त सामने है। रोज़-ब-रोज़ मिडियावाले खबरें सुनाते हैं कि फलां गाँव-मोहल्ले में अपने स्वार्थ में अपनी ही माई के टुकड़े-टुकड़े कर के कभी गन्ने के खेत में फेंक देते हैं तो कहीं किसी लावारिस नाले में छुपा देते हैं। मेरा कहने का मतलब वह नहीं है मीरसाहब। मैं तो अपने मुल्क और प्रदेश की बात कर रहा हूँ जहाँ आस्था रखने वाले लोग गंगा-जमुनी तहज़ीब को एक मुक़द्दस माँ की तरह मानते थे। आज वही उसके टुकड़े-टुकड़े करने पर तुले हैं सिर्फ विकास और व्यवस्था के नाम पर। मीरसाहब सुनकर काफी सीरियस हो उठे। कहने लगे मैं हालिया हालात पर तुम्हारे जज़बात को खूब समझता हूँ मेरे दोस्त, पर किसी सिक्के के दोनों पहलुओं को बदलना अपने बस की बात नहीं है। नया इतिहास लिखने की उनकी पुरानी आदत है। वैसे आदत बुरी नहीं है क्योंकि हर बादशाह की अपनी ख़्वाहिश होती है कि वह कुछ ऐसा कर जाये जिससे उसके बाद उसे याद रखा जाये। नाम न सही, बदनाम ही सही। 
  मुझे अच्छी तरह याद है मियां कि कभी इसे गंगा-यमुना का बड़ा मैदान कहा जाता था। सहारनपुर से सकलडीहा तक संयुक्त प्रांत आगरा व अवध कहलाता था। उसके बाद इसे यूनाइटेड प्राविन्स यानी यू०पी० के नाम से नवाज़ा गया। आज़ादी मिली तो इसे उत्तर प्रदेश कहा गया। इसकी खूबसूरती पर रीझ कर लोगो ने इसे उत्तम प्रदेश तक कह कर अपनी पीठ खुद थपथपाने की कोशिश कर डाली और गड्ढामुक्त सड़क व अपराधमुक्त समाज का दावा ठोकना शुरू कर दिया। बहरहाल किसी ने इस उत्तम-प्रदेश को एक दिल के टुकड़े हज़ार हुए,कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा की बात ख्वाब में भी नहीं सोचा। मैं भी सोचने पर मजबूर हो रहा हूँ कि उत्तर प्रदेश, उत्तंम प्रदेश के बाद अब यह नौबत आ गई कि अब इसे नये नाम उखड़ा प्रदेश से नवाजा जाए। चलिये दिल को बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है कि चलते-चलते सात समंदर पार वाले फिरंगियों ने एक अज़ीमुश्शान मुल्क को दो हिस्सों में तक़सीम कर दिया। हम आह करके रह गए। उसके बाद अपने ही बिरादरी के नामी-गिरामी लोगों ने सोने की चिड़िया कहलाने वाले इस प्रदेश का सर (उत्तराखंड) ही धड़ से अलग कर दिया तो भी हमने अपना समझ कर उफ तक नहीं किया मगर उस धड़ को भी जब टुकड़ों-टुकड़ों में काटकर अपने मुंह के नेवाले का इंतजाम किया जा रहा है तो रामकसम कलेजा मुंह को आ रहा है।
  मन से मजबूत लेकिन दिल से दिवालिया अपने लख्तेजिगर रमफेरवा की माई बीच में टपकते हुए बिना कुछ बके कहाँ रह सकती थी ? आखिर बोलना शुरू किया कि तबै तो एक-एक परिवार में कहाँ एकै चूल्हा पर घर के पूरे परानीन के खाना बनत रहा, कहाँ अब एक-एक घरे मा चार-चार चूल्हा जलत बाटे। हे भगवान कौन बखत आये गवा? सत्ते पे सत्ता लगावे वाले ई अलगाव-बिलगाव के खेल समझत बाटेन तो हमरे सब के कवन कसूर है मीर चच्चा? रसतवा तो वही दिखाये रहें हैं। अपनी मगज़मारी माई की लाइन पर चलते हुए रामफेरवा बोल उठा कि हमको तो सबसे अधिक अफसोस यह सोच कर हो रहा है कि वे समझदार लोग भगवान कृष्ण, श्री राम और काशी के शिव को अलग-थलग कर के हमारी आस्था के साथ खिलवाड़ करने पर तुले हैं। उन सब की बातें सुन कर मेरी छठी इंद्री ने समझाया कि मियां इसमे क़सूर किसी का नहीं है बल्कि उस इतिहास का है जो केचुल बदल-बदल कर हमारे सामने आता है। वही ज़माना याद करो जब हमसब छोटे-छोटे क़बीलों या समूहों में रहा करते थे और अपनी दबंगई दिखाया करते थे। पर उस जमाने में हम लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर थे। असभ्य कहलाते थे। पर आज तो हमलोग तालीम के तराजू पर खूब भारी साबित हो चुके हैं। चौराहों पर खड़े हो कर दुनिया एक परिवार है का उपदेश सुनते-सुनाते हैं पर खुद जहां बस्ते हैं उसी को छोटे-छोटे क़बीलों में बाँट कर एकता का मज़ाक उड़ा रहें हैं सिर्फ कानून और व्यवस्था के झूठे सब्ज़बाग के नाम पर। कोसने को जी चाहता है उस कमबख्त इतिहास को जो बार-बार लौट कर हमे पीछे ढकेल रहा है। लेकिन  एकता का ढ़ोल बजाने वालों को तो अक़्ल का दरवाज़ा खोल कर हक़ीक़त देखना चाहिए। अंजाम सोचना चाहिए। अबआज तो कोरौना की काली सूरत से डर लग रहा है कि कही भूल से ऐसी कोई बात न निकल जाए जिससे वह कलमुहाँ कांख में दबा कर काला पानी  न पहुंचा दे। रेलगाड़ी भी बंद जो कही भाग जाए। कही भी तो अच्छे दिन का सूरज नही चमक रहा है जो जान बचाने के लिये भूखे प्यासे निकल भागे। अलबत्ता गुरुजी लोगो ने अपने लिए पुष्पक विमान फिट कर रखा है। इस मामले में माल्या भाई ने कमाल की हिम्मत दिखाई जब कि हम जंगल मे मंगल मनाते हुए अच्छे दिन का सपना देखते रह गए।
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मनरेगा या मन रे गा...
अपना लख्ते जिगर रमफेरवा और उसकी महंगाई से भार खाती माई इन दिनों गरीबी और बेरोजगारी दूर करने के लिए ‘मनरेगा’ की माला जपते नहीं थक रही हैं। दूसरी तरफ तीन चार महीने से पगार न मिलने की वजह से समीक्षा बैठकों के बाइसकोपों की उड़न छू सीन मे श्रमिक रोना रोते भी दिखते हैं। सरकारी हथियों पे लदकर आए अफसरों के स्वागत मे विराजमान परधान जी और उनकी पीठ थपथपाने वाले पालिस्ड मूंछों को ऐंठते हुए इशारे ही इशारे में रमफेरवा और उसकी फटी साड़ी पहने माई जैसों को समझा देते हैं की खबरदार पगार के बारे में जुबान मत खोलना। हकीमों के सामने मनरेगा को मन से गाना। उनकी हालत देखकर मैं भी अपने दायरे में मन को समझा रहा हूं यदि इज्जत बचाना हैं तो मन रे गा जिसमे सल्तनत के सा रे गा मा का अच्छी तरह से ताल से ताल मिल जाए।
उसी वक़्त छुपते छुपाते अपने लंगोटिया यार मीर साहब मुंह लटकाए न जाने कब दायरे में दाखिल हुए कुछ पता नहीं चला।     
नोट :- (10/02/2011 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)



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आइए तारापीठ चले..!
जी बात सहिबगंज झारखंड की ही है। उस समय मैं वहां रेलवे इंटर कॉलेज में प्राचार्य था। तारापीठ और बामा खेपा के बारे में बहुत सुना था। सुप्रसिद्ध शक्तिपीठ है। कहते है कि क्रोधावेश में भगवान शंकर जब पार्वती जी के मृतक शरीर को लेकर चले तो उनके तांडव से दिग दिगंत कांप उठा। देवताओं ने विष्णु जी के पास जा कर त्राहि माम् करना शुरू कर दिया। विष्णुजी ने अपने सुदर्शन चक्र से सती का अंग अंग काटना शुरू किया। जहां जहाँ उनके जो अंग गिरे वही वही एक शक्तिपीठ की स्थापना हो गई। बताते है कि रामपुर हाट के पास देवी की आंख गिरी थी इसलिए वहां तारापीठ की स्थापना कर दी गई। वहां मां काली का मंदिर है। पास में ही शमशान है और काली भक्त औघड़दानी बामा खेपा की समाधि है। सुना है सुबह कोई न कोई अर्थी गुजरती है तभी देवी का पट खुलता है। तारापीठ का बहुत महत्व है।
कई बार सपरिवार जाने के लिए किन्तु संयोग ही नही बैठ रहा था। अंत में संतोष करके बैठ गया कि मां को मेरा आना मंजूर  नही। जैसा लोगो से सुनता रहा हूँ। यही नही हमेशा वैश्णव देवी जाने के लिए पास लिखाता हूँ किन्तु  कोई न कोई अड़चन आ जाती है। जबकि बिना किसी प्रोग्राम के दतिया मध्य प्रदेश दो बार जा चुका हूँ।
 बहरहाल,  जब सहिबगंज में था उसी समय मालदा डिवीजन के  स्काउट कैम्प करने तारापीठ भेजे गए थे। मैं सहायक स्काउट कमिश्नर था इस लिए मुझे विजिट करने का आदेश मिला। बहुत खुश है कि  मां तारा ने मेरी अर्जी  मंजूर कर ली.। सुबह  सहिबगंज से ट्रेन खुलती है। दो दिन सोने के कारण ट्रेन मिस हो गई। बड़ा पछतावा हुआ। तीसरे दिन  जाग खुली और बिना चाय पानी के स्टेशन पहुंच गया। रामपुर हाट  पहुंच कर सीधे ब्रीफकेस लिए दिए स्टेशनसुपरिंटेंडेंट  के ऑफिस में पहुंच गया। अपना परिचय दिया और तारापीठ का रास्ता पूछा। उन्होंने भी एक कर्मचारी को साथ भेजने की पेशकश की किन्तु मैंने मना कर दिया। खैर, मैं स्टेशन गेट के बाहर निकला तो तमाम  टेंपो, टैक्सी और बस वाले तारापीठ चलने के लिए हॉक लगा रहे थे।  इसके पहले की मैं किसी को बुलाता एक टेम्पो मुड़कर मेरे पास आ कर तारा पीठ चलने के लिए पूछा। जबकि किसी बंगाली परिवार ने उसे बुक कराया था और बैठे भी थे। यद्द्यपि ड्राइवर का मुझे बैठाना अच्छा नही लग रहा था।किसी बुक कराने वाले को अच्छा नही लगेगा। टेम्पो वाले ने उन्हें समझाया।  खैर मैं बैठ गया। सीधे तारा पीठ चौराहे पर उतारा। किराया देने लगा तो उसने मुस्कुराते हुए कहा"मिल गया सर।" उसने टेम्पो स्टार्ट किया और मैं खड़ा खड़ा ग़ुबार  देखता रह गया। उहापोह की स्थिति में मैंने मंदिर की तरफ की राह पकड़ ली। हालांकि मुझे राह अंदाज़ से ही पकड़ी थी। चलता चला जा रहा था बिना किसी से पूछे। मुझे ऐसा लगा जैसे में इसके पहले इस रास्ते पर आ चुका हूं। एक स्थानपर रुका और  प्रसाद की दुकान वाले से पूछा कि भाई साहब अभी मंदिर कितनी दूर है? उसने हंसते हुए कहा बाबू जी आप मंदिर के सामने ही खड़े है। पीछे देखिये। सचमुच वहीं मंदिर का भव्य द्वार था। लोग नही विश्वास करेंगे पर अपनी बीती बिना लाग लपेट के बता दिया। अब इसे इत्तिफाक कहिये या देवी की कृपा।


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या गरीब नवाज…
मैंने कई बार कहा है कि मैं नास्तिक नही हूँ पर अंध आस्तिक भी नही हूँ बल्कि वास्तविक होने की कोशिश करता रहा हूँ। अब मेरे जीवन का एक अनुभव है उसे बांटना भी जरूरी है।
उन दिनों मैं मुग़लसराय (दीन दयाल नगर) के रेलवे ए टी पी स्कूल में पोस्टिंग थी। यही कोई 1964-65 की बात होगी। उस समय मेरे बड़े साढू आई ए एस मथुरा थे। अचानक आ गए। उन्होंने किसी सज्जन से मेरा परिचय बड़े अनमने भाव से कराया कि यह मेरे छोटे साढू रेलवे के एक छोटे स्कूल में टीचर है। मुझे बड़ी शर्म महसूस हुई। खैर वह चले गए क्योंकि उनकी पोस्टिंग और ट्रांसफर ए डी एम सिटी कानपुर के पद पर हो गई थी।
उस रात मैं इन्फियारिटी कॉम्प्लेक्स के कारण सो नही पाया। रात भर रेलवे क्वार्टर के आंगन में लेटा हुआ तारों को गिनता रहा। आंखे भींगती जा रही थीं। अचानक मेरा ध्यान अजमेर शरीफ की ओर चला गया। मैं इसके पहले कई बार बता चुका हूं कि मेरा जन्म लखनऊ की एक मुस्लिम बस्ती में हुआ था। दो भाइयों की मौत के बाद मेरा जन्म हुआ था इसलिए सभी के गले का हार जैसा था। उस समय आज की तरह ज्यादा भेदभाव भी नही था। उन सब से अजमेर वाले ख्वाजा के बारे मे सुन रखा था। तभी मुग़ले आज़म का वह डायलॉग याद आ गया-
" ऐ शहंशाहो के शहंशाह तूने इस हक़ीर बंदे को सब कुछ दिया मगर बाप कहने वाली वह आवाज़ न दी जिससे खानदाने मुग़लिया का चिराग रोशन हो सके।"
बहरहाल यह तो मैं दावे के साथ नही कह सकता कि किसकी दुआ से एक महीने में ही मेरा डबल प्रोमोशन हो गया। अब मैं झाझा बिहार में हेड मास्टर पद पर था। जो भी हो यकीन ऐसे ही बनता है। मैंने तय किया कि सपरिवार अजमेर जाऊंगा। आरक्षण भी करा लिया। चल भी पड़ा ग़रीब नवाज़ को याद करते।
कानपुर जब ट्रेन पहुंची तो देखा ए डी एम साहब यानी वही मेरे साढू साहब मय लाव लश्कर के साथ स्टेशन पर सपरिवार हाज़िर थे। उन्होंने मुझसे लाख कहा उतर जाइये कल चले जायेगा। मैंने इनकार कर दिया। बच्चो को उनलोगों ने उतार लिया। मैंने साफ कह दिया कि पहले मुझे अपने लक्ष्य तक पहुंचना है। वापसी में देखा जाएगा।
जी तो सुबह करीब साढ़े सात बजे अजमेर पहुंच गया। स्टेशन पर पहुंच कर संमझ में नही आया कि अब किधर जाऊ? स्टेशन मास्टर के ऑफिस में जा कर अपना परिचय दिया तो उन्होंने बहुत सम्मान देते हुए अधिकारी विश्राम गृह में एक कमरा एलॉट करने की पेशकश की मगर मैंने उन्हें कहते हुए इनकार कर दिया कि मैं सरकारी डियूटी पर नही आया हूँ। उनसे कई तरह की वहां के लोकेशन के बारे में बाते हुई। फिर उन्हें धन्यवाद कह कर गेट के बाहर निकल गया। लेकिन वहां के कर्मचारियो की कार्य प्रणाली और व्यवहार देखकर बड़ी खुशी हुई जबकि अन्यत्र देखने को नही मिलता है।
बाहर निकल कर सोचने लगा कि किधर जाऊं? अपने आप उत्तर की तरफ कदम बढ़ गए। चलते चलते एक सैलून के पास पड़ी बेंच पर बैठ गया।
एक बुजुर्ग नाई किसी का शेव बना रहे थे। मैंने उनसे उसी लखनवी अंदाज़ में पूछा," हुज़ूर आसपास में कोई सस्ता और अच्छा होटल आप  की नज़र में है ?" उन्ही तब तक शेव बना लिया था । वह मेरे पास आ कर पूछने लगे ,"जनाब कहां से तशरीफ़ ला रहे हैं? "मैंने लखनऊ बता दिया। वह हंसे और बोले "तभी तो ज़ुबान  इतनी साफ है।" उन्होंने फौरन दो प्याली चाय मंगा ली। मैने उन्हें मना भी किया पर वह कहने लगे जनाब आप मेरे मेहमान है। मैंने चुपचाप प्याली पकड़ ली। फिर वह बुजुर्ग ने पास के एक होटल को बता दिया । बस वही से सीधी सड़क ख्वाजा साहब की  दरगाह शरीफ तक जाती है। बमुश्किल एक  फर्लांग का रास्ता होगा। मैंने उन्हें शुक्रिया कह कर उनकी ज़हमत के लिए माफ़ी  मांगी। चलते चलते उन्होंने मेरा नाम पूछा तो जब अपना नाम बताया तो वह मुझे देखते रह गए। तो जनाब आप हिन्दू है?  माशाअल्लाह क्या मिठास है। तभी तो उसे लोग नवाबों का शहर कहते हैं।
मैं बिना कोई जवाब  खुदा हाफिज कह कर अपने होटल की ओर चल पड़ा। आगे जरा ध्यान से घटना पर ध्यान दीजिएगा। उस बुजुर्ग के बताए होटल में पहुंच कर थोड़ा आराम किया। फिर नहा धो कर मज़ार शरीफ की तरफ चल पड़ा। बमुश्किल करीब 40-45 कदम गया होऊंगा कि एक निहायत मासूम और गोरा चिट्टा खेलता कूदता बच्चा मेरे पास मेरी उंगली पकड़ कर बोला मज़ार शरीफ चलिएगा? रास्ता भी संकरा है। उस बच्चे का नूरानी चेहरा और मासूमियत आज भी जब याद करता हूँ तो रोमांचित हो जाता हूँ। उम्र यही करीब 7-8 के बीच।  
मैं फिर गुजारिश कर रहा हूँ कि ख़ुदारा कोई अफसाना न समझे ।मेरा अनुभव है। मैंने सुन रखा था कि मज़ार के खाविंद लोग ऐसे बच्चों को रखते है जो लोगो को पकड़ का ले जाते हैं। 
इसीलिए उससे पीछा छुड़ाने के लिए कह दिया,"अरे बेटा जाओ अपना काम करो। हम रेल वाले हैं रोज आते जाते रहते है। बस उसने बिन कुछ बोले मेरा हाँथ छोड़ दिया और खेलते कूदते भीड़ में न जाने कहाँ गुम हो गया।
पर जैसे ही मज़ार के मेन गेट पर पहुंचा उसी बच्चे ने न जाने कहाँ से आ कर मेरा हाँथ पकड़ लिया और कहने लगा कि चलिये मैं आपको सब कुछ दिखाता हूँ पर किसी को एक पैसा भी मत दीजियेगा क्योंकि ख्वाजा गरीब नवाज तो खुद देने वाले हैं। उस बच्चे ने उंगली पकड़े पकड़े सब घुमा दिया। बाद में बाहर साथ साथ आया।मैंने सोचा कि इस बच्चे ने इतनी मदद की चलो इसे चाय पिला दें और दो तीन रुपये देदें। गेट के सामने मुस्लिम होटल था उसी में हम दोनों गए उसे एक कुर्सी पर बैठा कर मैं काउंटर पर दो कड़क चाय लेने चला गया। दोनों चाय ले कर लौटा तो देखा जनाब गायब थे। काफी देर तक इंतजार करता रहा पर वह गायब हुआ तो गायब ही हो गया।
तब से चार दिन मैं रहा और मेरा नित्य का प्रोग्राम रहा कि होटल में सुबह ही नहा धो कर मज़ार चला जाता और दोपहर लौटता। इसी तरह शाम को भी निकल जाता। चार पांच दिनों तक रहा और रास्ते मे कई बच्चों को खेलते कूदते देखता रहा पर वह बालक नहीं मिला। तब से हर साल जाता रहा लेकिन वह नही मिला। लोगो ने बताया ,जो लोग सच्चे दिल से पहली बार यहां आते है उनकी मदद के लिए गरीब नवाज किसी न किसी को भेज देते है। अब यह नहीं मालूम कि यह किवदंती है या हक़ीक़त। अपने अपने विश्वास की बात है। लौट कर आया झाझा तो एक हफ्ते बाद फिर आसनसोल के  प्रिंसिपल पद पर प्रोन्नति मिल गई। मैंने निष्कर्ष यही निकाला कि सच्चे मन से अगर फरियाद की जाय तो पाषाण हृदय भी पिघल जाता है। इसमें  विश्वास अविश्वाश की कोई बात नही। संभवतः मूर्ति पूजा का उद्देश्य यही रहा है। बैजू और तानसेन के संगीत का उदाहरण आज भी याद किये जाते है कि उनके कंठ से निकले मधुर स्वर पत्थर को पिघलने और अग्नि प्रज्वलित होने पर विवश कर देते थे। धर्म अधर्म के चक्कर मे बिना पड़े हुए एक मन एक विश्वास पर केंद्रित होने से उसका वांछित फल जरूर मिलता है। दूसरी बात किसी भी छोटे से छोटे कार्य करने वालों को कभी हेय दृष्टि से मत देखिये। न जाने किस भेष में बाबा मिल जाये भगवान रे।


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पुरुष मानसिकता से जूझती महिलाएँ..!
उस दिन ‘विश्व महिला दिवस’ के मुबारक मौके पर अपने मुल्क के जाँबाज पुरुषों ने फिर एक बार द्रौपदी के चीरहरण का इतिहास दुहराया। शाबाश अपने देश के इतिहास-लविंग लोगों। कमाल की पुरुषत्व पर नाज़ करने वाली बात है कि ऐसे विशाल और आध्यात्मिक देश के सबसे बड़े सदन में विद्वान एंव वरिष्ठ जनप्रतिनिधियों की काया में दुशासन की रूह घुस गई और उन्होनें अट्टाहासी मुद्रा में महिला विधयेक का चीरहरण कर दिया। यहाँ भी पाण्डव सिर झुकाए सब कुछ देखते-सुनते रहे कि कहीं उनका सिंहासन डोल न जाए। उधर देश भर में ‘महिला दिवस’ पर डुगडुगी बजा कर ‘नारी तुम केवल श्रद्धा’ गाते-बजाते जुलूस पर जुलूस निकाला जा रहा था। अखबारों ने अन्य खबरों को दरकिनार कर सोनिया गाँधी, सुषमा स्वराज, सानिया मिर्ज़ा, ऐश्वर्या राय वगैरह-वगैरह की फोटो छाप कर नारी-बिरादरी को दुनिया के सर्वोच्च शिखर पर बैठाने की कवायद की। मगर राज्यसभा यानी इण्डियन हाउस ऑफ लॉर्डस में दुशासन की शैतानी रूह घुस कर विधयेक की धज्जियां उड़ा रहा था। उसी अखबार के ठीक नीचे बतौर तोहफा भेंट किया गया कि एक दलित महिला को बलात्कार का शिकार बनाने के बाद जला दिया गया। कभी किसी ने सोचा कि आखिर वह सीन देखकर दुनिया के लोग क्या कहते होंगे?
दूसरे दिन वही विधयेक किसी जादू कि छड़ी घुमा कर पास करने कि खबर आई तो पटाखों पर पटाखें छुड़ाये जाने लगे। पहले ना-ना फिर हाँ-हाँ। चलिये देर आयद दुरुस्त आयद। जरूर खुशी कि बात है। मगर अफसोस तो होना लाज़मी है कि जिस देश में रज़िया सुल्तान और झाँसी कि रानी की दुहाई दे कर सदन को सुशोभित करती महिलायें उस वक़्त मूक दर्शक क्यों बनी रहीं जब कुछ लोग विधयेक को चिंदी-चिंदी कर के हवा में उड़ा रहे थे? मतलब साफ है कि इस देश कि जागरूक महिलाओं के संघर्ष से नहीं बल्कि पुरुष प्रधान समाज के अलम्बरदारों की कृपा से विधयेक पारित किया गया और शायद ही नाटक के बाद लोकसभा भी पारित कर दें।
अब एक सवाल जेहन में उठा करता है कि महिला आरक्षण विधयेक महिला राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून का जामा पहन लेता है तो क्या गारंटी है कि यह पुरुष प्रधान समाज उसे बिना किसी पैतरेंबाजी के स्वीकार कर लेगा? क्योंकि इसके पूर्व भी बाल विवाह, दहेज उन्मूलन और सती प्रथा से सम्बन्धित विधेयकों ने कानूनी जामा पहना। प्रगतिशील समाज की तस्वीर उभरी लेकिन क्या उसे लागू करने में हमारे रहनुमा खरे उतर रहे हैं आज भी सुदूर गाँव में बाल विवाह का चलन जारी है देश के कई इलाकों में आज भी सती प्रथा चल रही है और दहेज... क्या कहने हैं इसके? इस दानव ने तो क्या गाँव क्या शहर, क्या शिक्षित और क्या अशिक्षित सब पर हावी दिखाई दे रहा है? यहाँ तक कि कानून बनाने वालों से लेकर कानून का कठोरता से पालन कराने वालों को दहेज की बीमारी ने बुरी तरह जकड़ रखा है। ऐसे कानून से क्या फायदा? क्योंकि मानसिकता वही है। आज का पुरुष अपने पुरुषत्व के मंच पर ‘नारी सशक्तिकरण’ के नाम पर पत्र-पुष्प चढ़ाते हुए रोज मंत्र बांचता है “या देवी सर्वभूतेष शक्ति रुपेण संस्थिता नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमोः नमः” का नाटक करते देखा जा रहा है। उसी नाटक की तमाशबीन बनी देश में सर्वोच्च शिखर पर गिनी-चुनी नारियां फुले नहीं समा रही हैं मगर अपने प्राणमित्र रमफेरवा कि फटी साड़ी में लिपटी माई को अभी भी नहीं पता कि विश्वमहिला दिवस क्यों और कब मनाया जा रहा है? अपने देसवा मा ऐसन कानून बने के बादो का गारंटी है कि उसके खेत किसी दबंग द्वारा काटे जाने के बाद जब वह दारोगा जी के पास रपट लिखाने जाएगी तो वह पहले किसी विलेन कि तरह हँसेंगे फिर भगा देंगे। जुम्मन मियां तो समझदार मुसलमान हैं। अक्सर सुनाया करते हैं कि माँ के कदमों के नीचे जन्नत होती है। पर जब उनकी मोहतरमा प्रधान बनीं तो वह सिर्फ कागज़ तक सिमट कर रह गयीं। गाँव में हुकुम जुम्मन मियां का ही चलता रहा। जैसे निकाह के बाद मोहतरमा नकाब में पीछे-पीछे चलती रहीं, आज भी दो बच्चों कि माँ बन जाने के बाद और परधानी का ओहदा सम्भालने के बाद उसी तरह पीछे-पीछे चलती रही और जुम्मन मियां बीवी के आगे-आगे खुद परधानी का शाही ख़िलत में सजे-सवरें शान से ए॰डी॰ओ॰ बी॰डी॰ओ॰ पर रोब झाड़ते रहे।
मतलब यह कि लाख महिला आरक्षण विधेयक कानून का रूप ले ले मगर पुरुष प्रधान समाज का वर्चस्व जैसे का तैसा रहेगा क्योंकि मानसकिता जब तक रहेगी तब तक यूं ही नाटक चलता रहेगा। पौराणिक युग की विदुषियों के समय कहाँ विश्व महिला दिवस और कहाँ महिला आरक्षण के लिए शोर-गुल मचाया जाता था। प्रश्न है पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता बदलने की और नारी समाज को स्वयं बदलने का साहस करना होगा ।

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बात ही में बात ..!

सचमुच सरकार की आंखें बड़ी खूबसूरत है। बिल्लौरी जैसी आंखें-कंचे जैसी बड़ी-बड़ी आंखें-चमक ऐसी की हर किसी का दिल धड़क उठे। यही वजह है कि हम जैसे आशिक उसके दीवाने बने घूमते हैं। बात-बात में सरकार की आंखों में झांक कर देखने की हसरत बनी रहती है। 
खासतौर से इस हाड़ कंपाने वाली ठंडक में उसकी आंखों में अंगारे दहकते हुए दिखाई देते हैं जिसे मैं फटी कथरी पर लेट और किसी मेहरबान द्वारा बाटें गए कम्बल में से एक अदद अपने ठंडे शरीर पर डाले आंखों के उन अंगारो को देख-देख कर बहुत तो नहीं थोड़ी गर्मी जरूर महसूस कर रहा हूँ। सोच रहा हूँ, अपने दायरे में कि सरकार तुम्हारी आँखों में दहकते हुए अंगारे काश सीधे मुझ पर पड़ते तो मेरे जैसे फटेहाल आशिक क्यों जगह-जगह अलाव जलाने के लिए चीखते-चिल्लाते?
अलाव की बात पर चुप्पी साधे हुए शासन-प्रशासन और विपक्षी  दलों की चुप्पी पर जब लोग उंगली उठाते हैं तो जी में आता है कि कहूं ‘ताली दोनों हाथ से बजाई जाती है’। मोहब्बत में तो कहा जाता है कि एक और एक मिलकर एक हो जाते हैं। सरकार की आंखें माशूक हैं और हम जैसे फटीचर फटेहाल आशिक। दोनों की आंखें जब चार होती हैं तो मोहब्बत शबाब पर पहुंचती है। 
अपने भाई मीरसाहब जिनका आशिक मिज़ाजी में कभी डंका बजा करता था। या यूं समझिए कि उन्हें इस मामले में डाक्ट्रेट की मानद उपाधि हासिल थी। बड़े इत्मीनान से कई दिन की सूखी गिलौरियां मुंह में दबाये कहने लगे‘अमाँ भाई जिसे देखो बस सरकार की आंखों में झांका करता है। पर खुद की  आंखें छुपाये रहता है। अरे भाई आंखें चार करोगे तब न मोहब्बत परवान चढ़ेगी। यह भी कोई बात हुई कि बात-बात पर सरकार की आंखो मे ‘चोरी-चोरी चुपके-चुपके’ झाँकने की कोशिश कीजिये। अब इसी सिलसिले मे अलाव जलने-जलाने कि बात ले लीजिये। माना कि इस कड़ाके की ठंड में सरकार तुम्हारी आंखो में अंगारे दहक रहे हैं जिससे सत्ता के गलियारे मे शिद्दत की गर्मी महसूस की जा रही है। इसी तरह लोगो की चाहत होती है कि हमारे हर गली-चौराहों पर उन्हीं दहकते अंगारों से अलाव जलते रहें। हसरत तो हसीन है पर आशिकों, अपनी-अपनी आंखो में वही तपिश पैदा क्यों नहीं करते हो? 
मसलन हर मोहल्ले मे करीब तीन-चार सौ घर तो होते ही हैं। होलिका-दहन के लिए हम खुशी-खुशी मुहल्ले के लड़को को लकड़ी खरीदने के लिए पाँच-सात रुपये थमा देते हैं जिससे आठ दिनों तक आग जला करती है। अब इस ठिठुरती ठंड में जब सूरज ठंड से बचने के लिए छुपा रहता है तो क्यों नहीं घर पीछे सिर्फ एक रुपये देकर अलाव का इन्तजाम किया जा सकता है? सरकार की आँखों में झाँकने से क्या फायदा? वहां तो आज कल मोतियाबिन्द के सिवा कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। मीर साहब की बात मेरे भी समझ मे सेंध लगा कर घुसने लगी है। 
बात-बात मे सिर्फ उनकी आँखों मे झांकना ठीक नहीं है। मेरे ही मुहल्ले मे करीब पाँच-सात सौ घर हैं। घर पीछे अगर लोग एक-एक रुपैया बतौर चंदे के दे दें तो चौराहों पर गरीब-गुरबों के लिए अच्छे खासे अलावों की व्यवस्था हो सकती है। मोतियाबिंद वाली सरकार पर रहम करने के लिए खुद आगे बढ़ना चाहिए। इसी को कहते हैं सच्चा प्रेम, सच्ची मोहब्बत। समझ लीजिये गुटखा खा लिया या जाड़े भर होलिका जल रही है। इससे कई समस्याएँ हल हो सकती हैं। गर्मी तो गर्मी और जाड़ें की मार से भी मुक्ति। सूरज देवता भी समझेगें कि जाड़े कि मार से लड़ने वाली हमारी फौज में अभी काफी दम है।

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उनके अंगने में तुम्हारा क्या काम..!
दो सितारों का मिलन शायद आज की रात हुआ है तभी तो अपना लख्ते जिगर रमफेरवा धूनी रमाए किसी मंदिर के खंडहर में खंजड़ी बजा-बजा कर गा रहा है ‘तू राम भजन कर प्राणी, तेरी दो दिन की ज़िन्दगानी’। उधर किसी मस्जिद से अज़ान की सदा सुनते ही पास बैठे लोगों से कहता है। खुदा के वास्ते इनकी-उनकी बातें बंद करके यकीन करो ‘सबका मालिक एक है’। अल्लाह वालों ईमान लाओ। कहीं उसने किसी प्रवचन में सुना था राम-रहीम सब एक हैं बशर्ते दिल से आस्था के समन्दर में बेखौफ होकर डुबकी लगाओ।
मगर ताज्जुब हुआ सुनकर की अपने रमफेरवा की मीराबाई बनी माई आजकल सबकुछ भूल कर सियासती गलियारे का इरादा बना रहीं है। यही हालत अपना लंगोटिया यार मीर साहब के उस्ताद आला दर्जे के मौलाना जो अपनी तकरीरों से दुनिया भर की नसीहतें देते थे, वह भी उन संगमरमरी दीवारों के बीच चलते-फिरते फितरत बाजों के बीच कोई टुटही कुर्सी हथियाने के चक्कर में पड़े नज़र आ रहे हैं। समझ में नहीं आता है कि हमारी ज़िन्दगी कि गाड़ी लाइन बदलते हुए किस नंबर के प्लेटफॉर्म पर रुकने वाली है?
अक्सर बड़े लोग जिन्होने मनोविज्ञान का थोड़ा सा भी घोल पीया है बच्चों को बताया करते है कि कोई एक क्षेत्र चुन कर उसमें पिल पड़ो। फिर ज़रूर एक दिन सफलता कदम चूमेगी। देखा भी यही गया है। शायद ऐसी ही रुचियों को देखकर अपने यहाँ चार वर्णों की अवधारणा को मूर्त रूप दिया गया था। यह तो बाद में लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए उसमें घालमेल कर डाला और किरकिट खेलने वालों को हॉकी थमा दी, हॉकी में हँगामा करने वालों को बेसबॉल थमा दिया। फुटबाल के शौकीन लोगों को जबरन गिटार के तारों में उलझा दिया। बात ठीक हो सकती है कि ऐसे भी लोग हो सकते हैं मगर सौ में कहीं दो-चार। लीजिए, मैं भी कितना अहमक़ हूँ कि निकला था खूबसूरत बगीचे में सैर-सपाटे के लिए लेकिन पहुँच गया बीहड़ों में। आदत से मजबूर हूँ क्योंकि पढ़ने-लिखने की बुरी लत जो लग गयी है।
आज शायद भरत जी होते तो रामजी के वनवास चले जाने पर फौरन अपने को ख़ुद मुख़्तार बनाने के लिए किसी दीवानी न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने में जुट जाते। अब देखिए न अपने यहाँ साधू-संतों को ही देख लीजिए। कहने को तो उन्होने धर्मध्वजा फहराने का संकल्प लिया है मगर नज़र उनकी किसी संगमरमरी अहाते में इस भीषण गर्मी में ठंडी हवा पर रहती है। उन्हें भी चाहत होती है ढेर सारे अंगरक्षक उनके आगे-पीछे चलें और कोई न कोई पार्टी उनके नाम का टिकट छाप दे।
इस कलयुग में दोहरा फायदा किसे नहीं रास आएगा? भक्त जनों की भीड़ से चढ़ावे का फ़ायदा अलग मिलेगा और उधर सत्ता के गलियारे में बर्फ के ग्लेशियर अलग मज़ा देंगे। एक जगह की बात नहीं है भाई। सब जगह यही हाल देखने को मिलता है। अपने मीर साहब के उस्ताद मोहतरम कई-कई बार हज करने की खुशनसीबी हासिल कर चुके हैं। उनकी तकरीर सुनने वाले ‘सुभान अल्लाह’ कहते हुए अल्लाह वाले बन गए मगर हाजी मियाँ के एक हाथ में पाक तस्वीर होती है तो दूसरे हाथ में किसी सियासती पार्टी का मेनीफेस्टो। इसी तरह इधर भी एक मोहतरमा गेरुआ वस्त्र में बहुत अच्छी लगती हैं पर हमेशा उनकी हसरत सियासतदानों के काफिले के आगे चलने की रहती है। कमज़ोरी यह है की धार्मिक होने का रोल अदा करने में बेचारी फ़ेल हुई जा रहीं हैं। इन सब मंज़र से से दो-चार होने पर वशिष्ठ, विश्वामित्र और नानक पर कभी-कभी बड़ा ग़ुस्सा आता है कि नाहक किसी ‘रब’ की चौखट पर माथा रगड़ते रहे। उन्हें तो बिना कहे राजभवन में बढ़ियाँ सा बंगला मिल जाता। ताज्जुब तो यही है कि वही लोग माया-मोह का चक्कर छोड़कर आम लोगों को पूजा-नमाज़ में रम जाने का सबक देते हैं पर ख़ुद...। समझ ही गए होंगे मेरा मतलब। साफ सुनना चाहते हैं तो सुनिए स्वामी जी, साध्वी लोगों और आला काबिल मौलानाओं को सियासत में इतना मज़ा क्यों आ रहा है? उनको तो सबका ‘रब’ एक है में दिलोजान से फिट रहना चाहिए। न कि एयर कंडीशन्ड गाड़ी और बंगले के पीछे भागना चाहिए। गुस्ताखी माफ यहाँ तो वही मुँह में राम बगल में छुरी वाली बात हो रही है।
अब पूछने वाले ज़रूर पुछेंगे कि माफ़ियाओं को क्यों सियासत में लाकर आवभगत कि जा रही है? वहाँ तक तो बात किसी हद तक समझ में आती है की हो सकता है उनके हृदय परिवर्तन हो जाएँ जैसे बीहड़ों में बसे खूंखार लोगों का दिल विनोबा जी के संपर्क में आने से बदल गए थे। लेकिन सवाल यह भी है कि विनोबा जी अब रहे कहाँ?
कोई माने या न माने राम के नाम कि धूनी जमाने वाले और अल्लाह के सदके में सज़दा करने वाले वहीं अपने दिलों-दिमाग को लगाए रक्खेँ। उससे बढ़कर कुछ नहीं है। सियासत में मिलेंगी माया और मोह या कोई सोन चिरैया जो आज हैं कल नहीं रह सकते हैं। बाबा और बड़े मियाँ ‘उनके अँगने में तुम्हारा क्या काम’? आप लोगों को तो बस उसी‘रब’ की चौखट का आशिक रहने में ही मज़ा आना चाहिए।

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ऑनलाइन इलेक्शन..!
बैठे ठाले आज मेरे दिमागे शरीफ में एक आइडिया अचानक आ गया। आजकल के बी सी के हॉट शीट से बच्चनजी कहते सुने जाते हैं कि आप लोग जिओ ऐप्प पर घर बैठे करोड़पति खेलिए और अपना सपना पूरा कीजिये। देवियो और सज्जनो बहुत बढ़िया आइडिया है। सरकार भी ऑनलाइन ज्यादा से ज्यादा काम करने का दबाव बना रही है। तो भी इस ग्रेट आइडिया को आने वाले लोकसभा चुनाव में क्यो न अपनाया जाए। बांस बल्ली गाड़ने , सुरक्षा के नाम पर पुलिस और अर्ध सैनिक बलो को ज़हमत देने के साथ जनता को बूथ तक जाने की तकलीफ न दे कर घर बैठे बटन दबा कर अपने वोट देने का प्रयोग किया जाए। वहां देश की राजधानी में बैठे चीफ इलेक्शन कमिश्नर के पास सुपर कंप्यूटर रखा जाए जो ताली पीटता हुआ पल पल का नतीजा बतलाता रहे। इसे लोग सच्चे मानो में अपनी जीत या हार स्वीकार करेंगे । न कोई झगड़ा और न कोई झंझट। भई अपना ख्याल तो यही है। अब पसंद और नापसंद अपने भाई लोगों पर निर्भर करता है। अपने रम फेरवा और उसकी फटीचर माई ने तो लाइक किया है  आगे राम जानें।

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मेरा पत्र अपने पुत्र के नाम..!

प्रिय पुत्र नरेन्द्र,
                    मुझे हार्दिक प्रसन्नता यह सोंच कर हो रही है कि तुम्हारे दिवंगत दादाजी यानी मेरे पिता जी ने तुम्हारा नाम ‘नरेन्द्र’ रखते समय हसरतों की कितनी बुलंदियाँ छुई होंगी। आस्था की स्वर्णिम शिला पर उन्होने ज़रूर किसी ‘नरेन्द्र’ की अलौकिक छवि देखी होगी जिसने एकदिन स्वामी विवेकानन्द के रूप में विश्व को भारतीय-अध्यात्म का अमर-गीत सुना कर घोर आश्चर्य में डाल दिया होगा। आज भी वह अमर संगीत वातावरण में तिरोहित होकर भारत का मस्तक ऊँचा कर रहा है ‘भारत का रहने वाला हूँ,भारत का गीत सुनाता हूँ’। शायद तुम्हारे दादा मरहूम की दिली ख़्वाहिश रही होगी कि उनका लाड़ला पोता भी उसी ‘नरेन्द्र’ के नक्शे- कदम पर चल कर एकदिन अखिल विश्व में भारतीय दर्शन की पुनीत पताका फ़हरायगा । उनका सोचना गलत नहीं रहा होगा क्योंकि हर पिता या पितामह की यही महत्वाकांछा होती है । 
     नरेंद्र , तुम्हारे दिवंगत दादाजी ने भी उसी स्वाभाविक प्रक्रिया के अनुरूप सोंचा होगा क्योंकि उन्हे भविष्य का भान नहीं रहा होगा,किसी को नहीं रहता है । वक्त के बदलते मिजाज़ को कौन जान सका है? बदलती परिस्थितियों की इबारत को पहले से कौन पढ़ सका है? तुम्हारे दादाजी मेरे पिताजी भी थे पर मैं बड़ी बेबाकी से कहना चाहता हूँ कि संभवतः उन्होने यह नहीं सोंचा होगा कि आने वाले युग में उनके नरेन्द्र को कोई रामकृष्ण परमहंस नहीं मिलेगा । किसी कबीर को घाट की  सीढ़ियों पर कोई गुरु रामानंद के रूप में नहीं मिलेगा । इतिहास गवाह है कि नरेन्द्र को ‘विवेकानन्द’ बनाने में स्वामी रामकृष्ण परमहंस की और कबीर को ‘संत कबीर’ बनाने में रामानंदजी की क्या महत्वपूर्ण भूमिकाएँ थीं। यह ठीक है कि नरेंद्र और कबीर में भी कहीं न कहीं एक ललक पल रही थी किन्तु उसे मूर्त रूप देने का कार्य उन गुरुओं ने ही किया था। 
      मेरे विचार से इन बदली हुई परिस्थितियों में अगर वही ‘नरेन्द्र’ और ‘कबीर’ भारत की भूमि पर जन्म लेते तो ताउम्र भटकते रह जाते । रामकृष्ण परमहंस और रामानंद के बिना उनके व्यक्तित्व का अभूतपूर्व विकास सम्भव नहीं हो पाता। इस बात को तुम स्वयम समझ रहेहोगे। प्रिय पुत्र, मुझे इसका कतई मलाल नहीं है कि इतनी हसरत से रखे गए नाम को तुमने सार्थक नहीं किया क्योंकि तुम चाह कर भी नहीं कर सकते हो । आज के भारत महान की  परिस्थितियाँ कुछ ऐसी ही दिखती हैं।
       तुम अपने चारों ओर ऐसा भयावह जाल बुना देखते होगे और उसके उस पार ऐसे हिंसक पशुओं की धमाचौकड़ी देखने को मिल रही होगी कि कलेजा मुँह को आ जाता होगा। तुम सोच रहे होगे कि अध्यात्म और दर्शन के पवित्र संगम-स्थल पर शोषक-शोषितों के बीच झूलती राजनीति की भूलभुलैया कैसे तामीर कर दी गई जिसमे हर तरफ बेसुध पड़े लोग झूठे रिश्तों की दुहाई दे रहें हैं। अपना उल्लू सीधा करने के लिए वो ज़लालत की किसी हद तक जा सकते हैं । ऐसे में  मेरे नरेन्द्र, तुम्हारा किं कर्तव्य विमूढ़ हो जाना स्वाभाविक है । 
        चिंता मत करो मेरे पुत्र, मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम्हें विवेकानन्द न बन पाने का और अपने बाप-दादों के स्वप्न साकार न कर पाने कि पीड़ा होगी परंतु करोगे भी क्या ? नक्कारखाने मे तूती की आवाज़ भला कौन सुनने वाला है? देश की गंदी राजनीति की सुनामी लहरों के बीच भला अध्यात्म और दर्शन की हसीन वादियाँ अपना वजूद काएम रख सकती हैं ? इसलिए कोई ग्लानि नहीं, कोई पछतावा नहीं।  क्योंकि समय तुम्हारे वश में नहीं है ।  लोग तो कहते हैं कि समय की शिला पर इंसान अपनी मनचाही इबारत लिख सकता है पर वह सब सिर्फ किताबी बातें हैं । मेरे विचार में तेज़ तूफान आने पर उसके गुज़र जाने तक मनुष्य को इंतज़ार कर लेना चाहिए । इसलिए मेरे बेटे, मेरी सलाह यह है कि इस तेज़ तूफान में तुम अपनी कश्ती का पाल मज़बूती से पकड़े रहो और उस ‘विवेकानन्द’ का यह मंत्र याद करते रहो ‘उठो,जागो और आगे बढ़ो’। सब ठीक हो जाएगा। परिस्थितियाँ बदलेंगी, तूफान गुज़र जाएगा और एक चमकता हुआ सूरज तुम्हें तुम्हारी मनचाही मंज़िल तक अवश्य पहुचाएगा पर मन में हो विश्वाश । 
      मेरा और तुम्हारे दिवंगत दादाजी का आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। 
                                                                  तुम्हारा पिता
                                                                  सुदामा सिंह 


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मेरे साथ देवदास का सफर..!!
दुनिया की खाक़ छानते हुए कभी इंसान ऐसी जगह पहुंच जाता है जहां उसे मांगी मुराद मिल जाती है। कहने वाले कुछ तो इसे कपोल कल्पित कहानी कह के कचरे के डिब्बे में डाल देंगे और कुछ को मज़ाक के लिए गर्म मसाला मिल जाएगा। अच्छो को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी आदत है। 
 बात 1963 की है । मैं शिक्षक पद के लिए कोलकाता स्थित रेलवे मुख्यालय गया हुआ था। उसके पहले कभी कोलकाता देखा सुना नही था। मगर सवाल नौकरी का था। कहते हैं न कि जब चाह होती है तो राह मिल ही जाती है। इत्तिफाक से मेरे गाँव का लल्लन टैक्सी ड्राइवर मिल गया। शायद उसे मेरे किसी संबंधी ने पत्र द्वारा सूचित कर दिया होगा। जहां मेरा साक्षत्कार होना था एक से एक अभ्यर्थी पहुंचे थे बड़े बड़े डिग्री होल्डर। मेरी बारी आई। तो उन सीनियर अभ्यर्थियों के सामने अनमने भाव से उस कमरे में दाखिल हुआ। 5 लोग इंटरव्यू कमेटी के सदस्य बैठे थे। मुझे सामने बैठने के लिए कहा गया। लेकिन एक बात थी कि न जाने कहाँ से साहस आ गया वरना इंटरव्यू फेस करने में अच्छो अच्छो के पसीने आ जाते हैं। मैं तो माँ की कृपा ही मानता हूं। नियम नुसार एक दो सदस्य मेरे प्रमाणपत्र देखने लगे। तबसे चेयरमैन साहब जो हिंदी भाषी और विद्वान लगते थे पूछ लिया कि मिस्टर सिंह आप के प्रमाणपत्र बताते है कि आप को साहित्य में काफी रुचि है। बता दूँ कि कहानी और लेखादि पहले से लिखा करता था किंतु कही छपने लायक नही होती थी। तबसे दूसरे मेम्बर ने सवाल दागा,"अच्छा सिंह आप को कौन सा कवि सबसे अधिक पसंद है?"
मेरा उत्तर- सोहन लाल द्विवेदी।
प्रश्न- आपने प्रसाद ,निराला और पंत वगैरह का नाम नही लिया। सोहनलाल जी तो कोई प्रसिद्ध कवि हैं नही।
उत्तर- सर आपने मेरी पसंद पूछी। मेरी जो पसंद थी बता दिया।
चेयरमैन- अच्छा उनकी कोई कविता याद हो तो कुछ पंक्तिया सुनावे।
उत्तर- निडर हो कर पूछा सर तरन्नुम में या तहतुल में।उर्दू के ये शब्द सुनकर मेम्बरान एक दूसरे का मुंह देखने लगे। हालांकि चेयरमैन साहब समझ गए क्योंकि बाद में मुझे पता चला कि वह डॉ कुलश्रेष्ठ थे जो पश्चिमी उत्तरप्रदेश के रहने वाले थे। उन्होंने कहा आप तरन्नुम में सुनावे। आदेशानुसार कवि सोहन लाल द्विवेदी की कुछ पंक्तियां सुना दी। तारीफ मिली। 
चैयरमैन साहब ने अगला सवाल किया कि फिल्में तो आप जरूर देखते होंगे? क्योंकि आप एन एस डी से डिप्लोमा करने के बाद थियेटर से भी जुड़े रहे। तो कौन सी फ़िल्म आपको सबसे अच्छी लगी? मैंने सोचा कि यह बंगाल है इसलिए बंगला फ़िल्म बताना इम्प्रेसिव करेगा। मैंने झट से देवदास का नाम ले लिया। उन्होंने क्रॉस क्वेश्चन कर दिया कि कौन सी देवदास फ़िल्म?  सहगल और हेम बरुआ वाली या दिलीपकुमार और सुचित्रा सेन वाली? यहां मैं चकरा गया। तुरंत उत्तर दिया, " सहगल वाली देवदास जब बनी थी तो शायद मुझे ज्ञान भी नहीं था। पर विमल रॉय कृत देवदास को देखा है। दिलीप साहब और सुचित्रा सेन का रोल गज़ब का था। देवदास जब रेल गाड़ी में  पारो के सुसराल जा रहा होता है और गाड़ी में दारू पीता है तो उस समय विमल दा का निर्देशन सराहनीय दिखा।उधर वह दारू पिता है उधर चलती हुई ट्रेन की कपलिंग इतने जोर का झटका देती है और इंजन के फायर बॉक्स की धधकती आग देवदास के जीवन की श्रृंखला को दर्शाती है। उस दृश्य ने मुझपर गहरा प्रभाव डाला। विमल दा ने अपने कुशल निर्देशन में बहुत कुछ कह दिया। फिर
प्रश्न किया गया कि उस फिल्म का कोई डायलॉग जो याद हो सुनाए। अब मैं  उहापोह में पड़ गया कि यह साक्षात्कार है या मज़ाक? करब एक घंटा हो रहा था। बाहर दूसरे लोग कनफुन्सी जरूर कर रहे होंगे। विषय और रेल संबंधी कोई बात नही। इतने में चेयरमैन ने फिर कहा कि आप सुनाइये। समझ लीजिए कि आप इस समय एक्टर हैं और हम सब ऑडियंस। मां ने साहस दिया। फिर मैंने उनके सामने पानी से भरा गिलास एक्सक्यूज़ मी कहते हुए उठाया और बेझिझक वही डायलॉग  बोलना शुरू किया ,"कौन कमबख्त कहता है कि मैं बर्दाश्त करने के लिए पीता हूँ, जो पीते भी नही यहां आते क्यों है……." सभी मेम्बरान ने ताली बजाई। लेकिन उनमें से एक मेम्बर ने बड़ी बेबाकी से कहा, ' आप गलत जगह आ गए। आपको तो फिल्मों में ट्राई करना चाहिए।' बिना रुके मैंने उत्तर दिया ," सर, टीचर को भी एक कुशल अभिनेता होना जरूरी है। उसके बॉडी लैंग्वेज और पढ़ाने के अंदाज एक सीन क्रिएट कर दे जिसमे छात्र किसी चलती हुई फ़िल्म का एहसास कर लें। सर, दृश्य जल्दी समझ मे आता है जबकि श्रव्य में सुनते हुए कभी कभी बोरियत महसूस होती है। मेरा अपना अनुभव है कि एक कुशल शिक्षक को अपने उच्चारण और वाणी पर अधिक ध्यान देना चाहिए। इसके लिए उसे किसी अभिनेता की तरह होमवर्क करना जरूरी है।" उन लोगो ने थैंक यू कह कर मुझे विदा किया। बाहर आया तो उत्सुकता से सभी अभ्यर्थियों ने मुझे घेर लिया। चला तो रास्ते भर सोंचता रहा कि वह शिक्षक पद के लिए इंटरवियू था या मेरा मज़ाक? खैर चला आया निराश हो कर। बस एक बात का संतोष जरूर था कि कोई झिझक नही और न कोई घबराहट। एक वर्ष के बाद जब सफल लोगो की लिस्ट आई तो मेरा नाम सब से ऊपर था। आउट स्टैंडिंग । सर्व प्रथम पोस्टिंग लिलुआ में मिली। 
इस आलेख को लिखने का मक़सद कतई न समझें कि मैं अपनी तारीफ के लिए लिख रहा हूँ। बल्कि एक संदेश देना चाहता हूं कि किसी भी इंटरव्यू को हौव्वा न समझ कर बेझिझक देना चाहिए। हां विषय का ज्ञान भी जरूरी है। समझ लीजिये की आप का स्क्रीन टेस्ट हो रहा है। कांफिडेंस जरूरी है। जितना पूछा जाए उसका मर्यादित भाषा मे उत्तर दे। आशा है मेरे मित्र इसे अहम भाव से नही जोड़ेंगे बल्कि मेरी आत्मकथा का एक अंशमात्र समझेंगे। आभार आप सबका।

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एक बेनाम नाटक..!
( पात्र :- 1. निर्देशक, 2. नेताजी, 3. दर्शक नंबर एक, 4. दर्शक नंबर दो, 5. दर्शक नंबर तीन, 6. महिला )
(नाटक के प्रस्तुतीकरण की उद्घोषणा होती है। सभी पात्र प्रेक्षागृह मे दर्शकों के बीच बैठे हैं । मंच पर प्रकाश होता है। निर्देशक मंच पर आ कर लाइट मैन को आवश्यक निर्देश देता है।  तभी ग्रुप का कोई व्यक्ति  मंच पर आ कर निर्देशक के कान मे कुछ कहता है। निर्देशक एकदम से गंभीर हो जाता है । उसे नेपथ्य मे कुछ बुदबुदाते हुए ले जाता है। इधर नाटक शुरू होने मे विलंब के कारण हॉल में सीटियाँ बजानी शुरू हो जाती है।)

(भरी और उदास मन लिए निर्देशक वापस मंच पर लौटता है। स्टैंड-माइक  को दुखी मन से पकड़ता है। हॉल मे कुछ देर के लिए सन्नाटा हो जाता है ।)

एक दर्शक -     (सन्नाटे को तोड़ते हुए)  इतना सन्नाटा क्यों है भाई?  अरे कुछ तो बकिए। 

दूसरा दर्शक -  हाँ-हाँ  भाई  वैसे ही बड़ी देर कर दी जनाब आते-आते डाइरेक्टर साहब । 

तीसरा दर्शक-  कोई गल्ल नहीं बादशाओ , चलेबुल होंदा।  अप्णे नेता लोगां भी तो देर से आते हैं ।ओय  काके चल शुरू कर अपना नाटक। 

निर्देशक-       (उदास मन से)  क्या कहूँ ,कुछ कहा भी नहीं जाता मगर कहे बिना रहा भी नहैं जाता भाइयों और बहनो। 

एक दर्शक -    नहीं-नहीं कह डालिए। आखिर हम देखने सुनने ही तो आए हैं बंधु । 

दूसरा दर्शक-   हाँ -हाँ  वह कहते हैं न , दिल का हाल सुने दिल वाला .... । 

 निर्देशक-    बात यह है कि  मुझे आप लोगों को आज निराश करते हुए हार्दिक दुख हो रहा है। 

नेताजी -    उसके तो हम आदी  हो चुके हैं भैया। हमारी सरकारों ने आस-निराश के दो रंगों के बीच हमें खूब नाटक दिखाया ,अब आप दिखाएंगे  तो कौन सा कमाल कर देंगे? 
 निर्देशक-   अत्यंत खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज हम अपने नाटक का मंचन करने में असमर्थ  हैं। 

 दर्शक दो-   अमां यह तो सरासर  गैर-इंसाफ़ी है। हम लोगो के वक्त की  जैसे कोई कीमत ही नहीं है। 

नेताजी-     हम लोगों को ऐसे लापरवाह आयोजकों के खिलाफ आंदोलन करना होगा जो मोटी रकम लेकर नाटक के नाम पर हमारा शोषण कर रहे हैं।
                                                                                       यह तो उपभोक्ता के अधिकारों का सरासर हनन है।
(सभी एक स्वर में )-  बिलकुल सही कह रहे हैं नेताजी। तमाशा देखने आए थे ,खुद यहाँ तमाशा बने जा रहे हैं। क्या मज़ाक बना रखा है इस डाइरेक्टर के दुम ने ?

निर्देशक-   नगर के कला प्रेमियो, ईश्वर के लिए ऐसा  मत कहिए। याद कीजिये हमारे कलाकार पिछले लगभग 70 वर्षों से इस रंगमंच पर आपसब का मनोरंजन करते चले आ रहे है। 

दर्शक 3-  ओय काके तो आज क्या  हो गया? कहीं मामला जी एस टी या नोटबंदी का तो नहीं होंदा ? 

निर्देशक-  ऐसा कुछ भी नहीं है। 

दर्शक एक-  अमा तो हुआ क्या ? प्रशासन ने परमिशन  नहीं दिया होगा? कुछ तो बताइये । 

नेताजी -       परमिशन तो चुटकी बजाते दिला सकता हूँ। जब कलेक्टर का तबादला करा सकता हूँ तो परमिशन मिलना कौन सा एवरेस्ट विजय करना है ?मज़ाक है, अपनी सरकार है। 

निर्देशक-   आप सब गलत समझ रहे हैं। 

 सभी-   (एक साथ)   अरे भाई तो सही आप ही      समझा  दीजिये। मान लेते है हमही लोग बेवकूफ हैं।
                                                                                                                                                   निर्देशक-  प्रिय कला-प्रेमी दर्शकों, ऐसा मत कहिये। आप तो प्रणम्य हैं मेरे लिए। वास्तव में मेरे जीवन में कभी ऐसी दुखद घटना नहीं घटी। 
सब दर्शक  -   लगता है बेचारे का कोई भाई भतीजा पुलवामा हमले मे शहीद हो गया  है? अगर ऐसा हुआ है तो भाई  हम सब इस दुख की घड़ी मे आप के साथ हैं और उस शहीद को सलाम करते है। 
निर्देशक- महोदय, यदि ऐसा होता तो अपने को खुशकिस्मत समझता कि  चलो हमारे किसी करीबी ने राष्ट्र-हित में अपने प्राणो की आहुति दी। याद होगा आप सबको कि पिछले पाकिस्तान-युद्ध  मे जब मेरा भाई शहीद हुआ था तो भी मैंने श्रद्धांजलि स्वरूप  अपने नाटक का मंचन किया था । 
दर्शक 3- -   ओय काके फिर आज कौन सा आसमान टूट पड़ा? 
निर्देशक-   वास्तव में मित्रो आज हमारे नाटक की स्क्रिप्ट खो गयी है।
दर्शक एक-   चलिये हो गया बंटाधार। जरा अपने को ठीक से देख लीजिये कि आपतो नही खो गए हैं?
दर्शक दो -   यह तो वही हुआ जैसे आजकल सचिवालयों से जरूरी फाइल अक्सर खो जाती हैं या शार्ट सर्किट के हवाले कर दी जाती हैं।
निर्देशक-   बंधुओ, ईश्वर के लिए मेरी मजबूरियों को समझने की कोशिश कीजिये। विपत्तियों का हमला अकेले नही होता है। अफसोस हमारे नाटक की नायिका का भी अपहरण कर लिया गया।
दर्शक दो- चलिये एक और ड्रामा। अमाँ इन हीरोइनों का कोई ठीक नही, यह न सही और सही, और न सही तो कोई और सही।
नेताजी-   अमाँ दर्शकों की आंख में धूल क्यों झोंक रहे हो डायरेक्टर की दुम? यह तो खैरियत मनाओ की इस देश की जनता बहुत भोली है। दूसरी जगह होते तो इस स्टेज से धक्के मार कर बाहर कर देती। ( दर्शको को उकसाते हुए) भाइयो और बहनों देखते क्या हो? बढ़कर चढ़ जाओ स्टेज पर और धक्के मार कर बाहर कर दो इस महाठग को।
दर्शक 2- (हंसते हुए) वाह नेताजी क्या खूब छक्का मारा है।  क्या मिसाल पेश की है?  ठग महाठग मिलकर हम सब को ठग रहे हैं। (सब हंसते हैं)।
दर्शक 1- अरे यार बुरे फंसे। घरवाली चार बात अलग सुनाय गी। उसे भी बच्चों के साथ शॉपिंग करने जाना था।
दर्शक2- इससे बढ़िया तो दीपिका पादुकोण की धांसू फ़िल्म 'छपाक' देख लेते तो यह बोरियत तो न झेलनी पड़ती।
निर्देशक-  जीवन की सच्चाई को आप सेलुलाइड की नकली तस्वीर में देंखना चाहते हैं? जीवन को जीवन्त देंखना है तो रंगमंच पर देखिए।यह बात अलग है कि  दुर्भाग्यवश आज हम मुसीबतों के चक्रव्यूह में फंस गए हैं।
दर्शक 3- ओए काके तो दिखा न। हम यहां झक मारने आये हैं क्या?
( इतने में नेताजी तमतमाते हुए मंच पर चढ़ कर निर्देशक के हाँथ से माइक छीन कर बोलना शुरू करतेहैं)
नेताजी- भाइयों बहनों, बड़ा नाम सुना था। मगर जिसे समझा था खमीरा वह भसाकु निकला। इसने हम सबको धोखा दिया। इस पर तो मान हानि का दावा होना चाहिए। मैं आपसब से प्रार्थना करता हूँ कि इस बार नगरनिगम का अध्यक्ष मुझे बनाइये तो देखिए नगर ही नही बल्कि पूरे जनपद की काया पलट कर रख दूंगा। ऐसा नाटक दिखाऊंगा कि लोग देखते रह जाएंगे।
दर्शक एक- नेताजी हम नाटक देखने आए है आप का भाषण सुनने नहीं। चलो भाई हो गया नाटक।
(पार्श्व से चीखते हुए एक महिला अपने अस्त व्यस्त कपड़ो में आती है।  हाल में सन्नाटा पसर गया।)
महिला-आप नाटक देखने आए है न? मैं ही हूँ इस नाटक की नायिका हूँ। नाटक तो अब शुरू होने जा रहा है,जिसके हीरो और कोई नही बल्कि हमारे आपके यह नेता जी होंगे।यह सही है कि मुझे किडनैप कर लिया गया था। देख रहे हैं मेरी दशा। मौका पा कर मैं पुलिस के पास रपट कराने गई मगर उन लोगो ने झिड़क दिया।
नेताजी- यह तो सरासर गलत है। मैं अभी मुख्यमंत्री जी को फोन लगाता हूँ।
महिला- (हंसते हुए)  नाटक हम करते है लेकिन आप का नाटक लाजवाब है। (दर्शको से) तालियां पीटीए भाइयो और बहनों। ऐसा लाजवाब नाटक आपने कभी नही देखा होगा। जिसमें खलनायक ही नायक का सेहरा अपने सिर पर बांध रहा है ।
नेता जी- मतलब जनता जनार्दन की सेवा करने वाला ही मैं हूँ। नारी उत्थान और स्वच्छता अभियान के लिए कितने कार्य किये। क्यों भाइयो?
महिला- बिल्कुल। उसदिन किसी बहाने अपनी बेटी से मिलाने का बहाना बना कर मुझे अपने बंगले पर बुलाया था। घर मे न आपकी बीवी थी और न बेटी।मुझे एक फ़िल्म में मेन रोल देने का लालच दिया। जब मैंने कहा मैं थियेटर में ही अपना कैरियर बनाना चाहती हूं तो आप और आप के ड्राइवर ने मुझे इस तरह दबोच लिया  जैसे कोई बाज अपने शिकार को दबोच लेता है। उसके बाद….
नेताजी- यह सरासर गलत है। मुझे फँसाने का दुष्चक्र है।
दर्शक एक- तो सही आप ही बता दीजिए नेता जी।
महिला-  सच और सबूत मुझसे लीजिये मित्रों। (कमर से एक रुद्राक्ष की माला दिखाते हुए) इनसे पूछिये की यह किसकी है? 
नेताजी- यह गलत है। माला किसी की हो सकती है?
महिला-  बिल्कुल ठीक। मगर आपकी इन अंगुलियों पर पट्टी क्यों बंधी है?
नेताजी- व..वह..वह दरवाज़े में दब गई थी।
महिला-  यह भी सवाल उठता है कि हर दरवाज़े पर नौकर होता है जो इनके आने जाने पर दरवाज़े खोलता बन्द करता है। फिर अंगुलियों के दबने का सवाल ही नही उठता है।
(दर्शको की ओर से) हाँ हाँ नेता जी सच बताइए न।
महिला- आपके परमप्रिय नेताजी क्या सच बताएंगे? आप लोग पट्टी खोल कर देखिए। मेरे दांत काटने के निशान मिलेंगे। जब यह लोग मुझे भीतरी दरवाज़े की तरफ जबरदस्ती ले जा रहे थे तो मैंने इनकी उंगलियों को चबा ली। फिर इसकी प्रताड़ना जो मुझे सहनी पड़ी उसको बयान नहीं कर सकती। पट्टी खोल कर आपमें से कोई देख सकता है।
दर्शक तीन- अरे तुस्सी को तो थाणे पर रपट लिखाना चाहिए।
महिला- गई थी लेकिन आप लोग जानते है नेता और रसूखदारों के खिलाफ कौन सुनता है? अगर यही होता तो देश में रोज हत्या बलात्कार और किडनैपिंग होती?
दर्शक एक- मगर वह तो कहते हैं कि राज्य में अमन शांति है। हमारा एक ही उद्देश्य है सब का साथ सब का विकास और सब का विश्वास।
दर्शक- यह सरासर गैर इंसाफी है। हम लोग एस एसपी को फोन करते है।
नेताजी - आप लोग समझते क्यो नहीं?यह सब विरोधियों की चाल है। मुझे बदनाम करने की साज़िश है।
(पार्श्व से पकड़ो मारो ,ऐसे व्यभिचारी नेता देश की जनता का भला क्या करेंगे।  पुलिस एक्शन क्यो नही लेती है।  इंकलाब जिंदाबाद। हाल में बैठे तीनो दर्शक भी कूद कर स्टेज पर चढ़ कर नेता की तरफ बढ़ते है।)
दर्शक-  (हाल में नारे लगाते हुए खड़े हो जाते है।)
निर्देशक- प्रिय दर्शको कृपया शांति बनाए रखे। कानून  को अपने हाथ मे न ले।
धीरेधीरे  लाइट मद्धम होती है। अंधेरा होता है।)
( बैकग्राउंड से घोषणा,)
आपलोग किसी तरह अशांति न फैलाये। नेताजी को हिरासत में ले लिया गया है। और महिला को मेडिकल के लिए ले जाने की व्यवस्था की जा रही है। यह घोषणा  जिलाधिकारी की ओर से की जा रही है। बाहर फोर्स लगा दी गई है।
निर्देशक- आप की असुविधा के लिए हमे खेद है। यही था हमारा आज का नाटक । धन्यवाद।

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अफसाना लिख रहा हूँ.........
खाली-खूला बैठे रहने पर सिर्फ खुराफात ही सुझाई देता है। कहते हैं कि डिप्रेसन में एक्स्प्रेशन का कोई ठीक नहीं होता है। शायद इसी तरह की बीमारी में अपना लख्तेजिगर रमफेरवा और उसकी चहारूम पास माई बताते हैं की भय्या अब मुंशी प्रेमचंद, उनकी बूढ़ी काकी और लंगोटिया यार होरी को कोई याद ही नहीं करता है या कोई उन्हे याद ही नहीं करना चाहता है क्योंकि किस्सा बहुत पुराना हो चुका है। ज़माना अब तनिष्क, ट्रैक्टर-ट्राली का हो चुका है तो ऐसे में हीरा-मोती जैसे दो वफादार बैलों की जोड़ी को याद करते रहना अहमकइ ही तो कही जाएगी। अलबत्ता गोदान को भूल कर गबन को लोग खूब याद कर रहें हैं क्योंकि ज़माना आज गबन का चल रहा है। याद करना भी एक तरह से बिलकुल माकूल है क्योंकि छोटा सा नाम लेने का चलन चल निकला है जैसे चिंटू, मींट्टू, बबलू डब्लू वगैरह-वगैरह। उधर बैलों और बैलगाड़ियों को भी आज की एडवांस पीढ़ी भूलती जा रही है। भुला दिया भाई लोगों ने सहगल और देविका रानी को। सुरैया और मधुबाला की यादें यादों की भूलभुलैया में भूल जाना ही बेहतर समझ रहें हैं आज के लोग-बाग। बड़ी बेक़रारी से याद की जा रहीं हैं आजकल वह हाथीनशीन मालिका-ए-आलिया जिन्होने बेजान पत्थरों मे जान डाल कर पूरे खानदान को सदाबहार बनाने के लिए तवारीखी पन्नों पर चार चाँद लगा दिया। जी चाहता है तारीफ करूँ उसकी जिसने तुम्हें बनाया।
सब वक़्त-वक़्त की बात है। कुछ दिनों बाद लोग अपने जेहन-नुमा नुमाइश से उसे भी बाहर कर देंगे जिसने सुरों में पिरो कर बड़ा प्यारा संदेश दिया था‘न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई देखे केवल मन’।मैं भी अपने झोपड़ीनुमा दाएरे में उस आवाज़ को याद कर के रो पड़ा‘वह कागज़ की कश्ती वह बारिश का पानी’कि बारिश के पानी में कागज़ की कश्ती का वजूद कब तक रह सकेगा? फिर मौत के आगोश में सिमटे लोगों को कौन हमेशा याद करने में वक़्त बर्बाद करने की ज़हमत गंवारा करे ?
‘कभी डगमगाई कश्ती कभी खो गया किनारा’को याद करते ही विकास के रास्ते में रोड़ा बने अपने झोपड़ीनुमा दाएरे मे डिप्रेस्ड हो कर सोचता हूँ कि गाँव-गवईं और मर्कुट्टे बैलों के साथ बंधुआ किसान-मजदूरों के सिवा प्रेमचंद ने लिखा ही क्या है ? आज की तरह उन्हे किस चमकते हुए साहित्यकारी तमगे झूलाते साहित्यकार या सियासत की सेज़ पर सत्ता का झुनझुना बजाते किसी महामानव ने विमोचन और अभिनंदन किया ?
‘कारवां गुज़र गया, हम गुबार देखते रहें’। उस गुबार में धुंधली पड़ती चली गईं प्रेमचंद, प्रसाद, शरद जोशी, ख्वाजा अहमद अब्बास, भीष्म साहनी, बेगम अख्तर, साहिर और शकील वगैरह-वगैरह की दिलकश तस्वीरें। अगर मेरे जैसे पुरानी लकीर पीटने वाले फटीचर खूंसट ने किसी बेहाल क़द्रदान के घर की प्लास्टरविहीन मैली-कुचैली दीवारों पर उनकी धूलभरी झूलती हुई तस्वीरें देखने को मिली भी तो बेसाख्ता दिल बोल उठा जो बात तुझमें थी वह तेरी तस्वीर में नहीं, क्योंकि उन पर से धूल झाड़ने की किसी को फुर्सत कहाँ ? अगर फुर्सत है भी तो उड़न- खटोले के ज़माने में रथयात्राओं की। फुर्सत है तो गावों को पत्थर के शहरों मे तब्दील करने की और फुर्सत है तो अपने बेलगाम अफसानों की तारीफ में खुद क़सीदा पढ़ने की। अपने अजीजतर हमराज़ मीरसाहब‘दुखी मन मोरा’के लहजे में प० रामकृष्ण पांडे आमिल की चंद लाइनें यूं सुनाते हैं............. 
कहाँ है लब पे निवाला
गरीब के यारों,
अमीरे शहर तरक़्क़ी
की बात कहते हैं ।
जो करनेवाले हैं वो कर
गुजरते हैं ‘आमिल’
जो कहने वाले हैं वो
सिर्फ बात करते हैं ।
बात तो हंड्रेड परसेंट सही लगती है। मरहूम प्रेमचंद ठहरे गाँव- घर का रोना रोने वाले। भला अमीरेशहर उन्हे याद करके किसी अच्छी-ख़ासी बर्थ-डे पार्टी या किसी शानदार जुलूस का कबाड़ा नहीं बनाना चाहते हैं। अपने मीरसाहब बजा फरमाते हैं कि आज तो मियां मुंशी प्रेमचंद को यादों के झरोखे से झाँकने के बजाय ऐसे लोगों के बुतों से बेपनाह मुहब्बत का इज़हार करते देखा जा रहा है जिन्होने किया कुछ नहीं पर अपना नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज़ करा लिया या ड्रामेबाजी में माहिर उनके चहेतों ने उन्हे स्टेज का सबसे बड़ा डाइरेक्टर करार कर दिया। अपने जिगर के टुकड़े रमफेरवा की माई जनाब मीरसाहब की बात पर तिलमिला उठी। बिन बदरा के बिजुरिया की तरह चमकते हुए बोल उठी ‘चाचा, तनी समझ-बूझ के बोला करो’। बेचारे मीरसाहब सुन कर बिजली मतिन खड़े के खड़े रह गए। कुछ देर सोचने के बाद बोले ‘तुम ठीके कहती हो दुलहिन। झोंक मे हमसे न जाने क्या-क्या निकल गया? एक बात तो काबिलेतारीफ रही कि किसी को फर्श से अर्श पर पहुँचा दिया और किसी को अर्श से फर्श पर पटक दिया। अब ऐसा कोई चमत्कार मुंशीजी ने तो किया नहीं जो आजकल के लोग उन्हे याद रखने में दिलचस्पी लें। उनका होरी बेचारा हमेशा सवा सेर गेहूं का कर्जदार बना रहा। हीरा-मोती बेचारे सूख के कांटा हो गए और बिकाए भी गयें। मुंशीजी बस खाली कलम चलाते रह गए। विकास के लिए उन्होने किया क्या? भला तुम्ही बताओ दुलहिन, कि कहीं कागज़ के फूलों से खुशबू आ सकती है ?
इतने में रमफेरवा किस्मत का मारा न जाने कहाँ से आ टपका? अपनी टुटही सइकिलिया दिखाते हुए बोला, बापू अब स्कूलवा कैसे जाबे? सईकीलिए भ्रष्ट होय गई। रमफेरवा की बतकही सुनकर सबके सब हँस पड़े। मुझे अपने दुलरवा रमफेरवा की पढ़ाई पर बड़ा अफसोस होरहा था कि टायर भ्रष्ट नहीं बर्स्ट होता है। आजकल क्या पढ़ाई होती है? मीरसाहब मेरे गुस्से को समझ कर कहने लगे, अरे मियां वैसे तुम्हारा सपूत ठीक कहता है कि जब पूरा मुल्क भ्रष्ट हो गया है बक़ौल अन्ना भाई के तो टायर कौन बड़ी चीज़ है? हाँ यह भी कहना रमफेरवा का सही है भय्या कि अगर यही हाल रहा तो उसके सइकिलिया का टायर क्या पूरा मुल्क ही बर्स्ट हो सकता है। खुदा न करे वह दिन देखने की बदनसीबी मिले। आई बात समझ मे कुछ? एक शेर सुनाते हुए मीरसाहब ने एक गिलोरी मुँह मे झोंकी और चलते बने...... 
सर छुपाते न बने
अहलेसितम से शायद
हाथ में जब किसी
कमजोर के पत्थर होगा।

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राग दरबारी और मालकोश की युगलबंदी..!
संगीत-प्रेमी जानते हैं कि दोनों रागों का संगीत में अपना अलग-अलग महत्व है। यह ज़रूर है कि बदलते वक्त के मिज़ाज के साथ इनके विलंबित और द्रुत लय में आधुनिक संगीतकारों ने बदलाव लाने की पुरज़ोर कोशिश की है। वैसे पहले विलंबित और बाद में द्रुत गाया जाता रहा है। ज़माना ही कुछ ऐसा आ गया है कि हर चीज़ घासलेटी हो गई है। आज के डुप्लीकेट टेक्निकल संगीतकारों ने दोनों रागों को इस उतरह तोड़-मरोड़ कर पेश करने की जुगत भिड़ाई है कि उन्हे राग दरबारी से दरबार मे सुनहरी कुर्सी हासिल हो सके और फिर राग मालकोश गा कर माल का कोष यानी मालामाल हो सकें।
इसमें कोई शक नहीं कि पहले की गायकी से अधिक रियाज़ आजकल के तथाकथित संगीज्ञ करते हैं पर मक़सद ज़ुदा-ज़ुदा होते हैं। आजकल रिवाज़ यह निकल पड़ा है कि सत्ता के संगमरमरी गलियारे से गुज़रते हुए किसी माननीय को गंडा बांध कर दरबार तक पहुंचने का प्रयास किया जाता है जहाँ वे ‘राग दरबारी’ पर गला साफ करते हुए ‘मालकोश’ पर रियाज़ मारना शुरू कर देते हैं। अब तो भाई ‘झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया’ के बोल के साथ चेलाही करना लोग पहले पसंद करते हैं। आजकल साज़-आवाज़ से ज़्यादा दरबारी होना बहुत ज़रूरी होता है। जिसने भी किसी को उस्ताद मान कर गंडा बांध दिया तो उसके लिए गुंडई भी करना पड़े तो कोई बात नहीं है क्योंकि आजकल गुरु–चेला में सब चलता है। इस राग में महारत हासिल करने के बाद अगर आज सत्ता की गगनचुंबी इमारतों में अवतरित हुए पुराने राजे-महाराजाओं के नए रूप प्रसन्न हुए तो फिर ऐसे दरबारी संगीतज्ञों को अपने नवरत्नों (कैबिनेट) में शामिल करने से कोई रोक नहीं सकता है। बहुत खुश होने पर लाल,नीली, पीली बत्तियों से जगमग करती कीमती गाड़ियों की चमचमाती चाभी थमा देते हैं। मानना पड़ता है कि राग-दरबारी के कद्रदान आज पहले से ज़्यादा हैं।

कहते हैं कि साहित्य और संगीत किसी युग के आईने होते हैं। संगीत सम्राट तानसेन और बैजू रहे होंगे अपने ज़माने के दरबारी और मालकोश के धुरंधर लेकिन अपने किसी भाई-भतीजे को कोई लिफ्ट  नहीं दिया। आज के क्या कहने? किसी को किसी दरबार के किसी कोने में टूटे तार वाले तानपुरे के साथ राग दरबारी सुनाने का मौका मिला नहीं की उसने अपने भाई-भतीजों को किसी माने हुए उस्ताद की चेलाही करने के लिए गंडा बँधवा दिया। सुना है कि तानसेन के गाने पर दीपक जल उठते थे लेकिन आज के संगीतकारों के गाने पर जलते हुए दिये बुझ जाते हैं और जहाँ बैजू के संगीत मधुर से पत्थर भी पिघल कर पानी-पानी कर देते थे वहीं आज पानी जम कर पत्थर बन जाते हैं। वह तानसेन, बैजू और बड़े गुलाम अली खाँ साहब का ज़माना सिर्फ सुनने-सुनाने के लिए रह गया है पर आज तो चस्मदीद गवाह हैं संगमरमरी सत्ता के दिलकश दीवारों के बीच राग दरबारी की तान छेडने वाले। मानना पड़ता है की ज़माना बदलता है तो सबकुछ बदल जाता है, राग-रागनियां बदल जाती हैं और कलाकार बदल जाता है। नमूना हाज़िर है। उस वक्त तबला-सारंगी वगैरह थे पर आज टीन-कनस्टर के बजते ही लोग ठुमके लगाने के लिए मचल उठते हैं। हुज़ूर इसमें कोई हैरत नहीं होना चाहिए। पुराने लोगो को याद होगा कि उधर सारंगी बजी नहीं कि “अख्तरी” की ठुमरी ठुमक उठती थी मगर बदलते वक्त के मिजाज ने जनाब मेहँदी हसन, गुलाम अली और जगजीत सिंह को मजबूर कर दिया कुछ तरमीम करने के लिए। ख्याल कीजिये ज़रा कुछ हट के कि अब्राहम लिंकन ने प्रजातन्त्र का जो राग अपने ज़माने में अलापा था क्या अपने भारत महान मे उसी धुन में गाया जा रहा है? बस वही हाल अपने राग दरबारी और राग मालकोश का है। मतलब यह कि जुगाड़ भिड़ा कर किसी तरह दरबार में पंहुच बनाईये फिर तो अपने-आप माल का कोष बन ही जाएगा। लोगों में रुतबा बढ़ जाएगा। फिर कोष को चाहे दुबई में जमा कीजिये या किसी स्विस बैंक में। इसमें कोई शक नहीं है कि लोगों की काबलियत मे दिन पर दिन इजाफा होता जा रहा है। मौजूदा वक्त के मुताबिक राग दरबारी और राग मालकोश के मतलब भी बदल गए हैं। दरबारियों के तलुए चाटते हुए ही आज राग दरबारी मे महारत हासिल की जाती है और इसके बाद तो जनाब मालकोश आप की थैलियों में बज़ता सुनाई पड़ेगा। अलबत्ता थोड़ी मशक्कत करनी होगी। छोटे- बड़े उस्तादों के आगे-पीछे चक्कर काटना पड़ेगा भाई। हाँ,थोड़ा शीन क़ाफ से ज़ुबान को मांजना पड़ेगा। फिर देखिए अपना जलवा। आप के राग दरबारी से बड़े-बड़े दरबारी खुद ‘वाह-वाह’ कर उठेंगे। उसके बाद तो तिजोरी के ढक्कन के थाप पर अपने-आप राग मालकोश पर वही नामचीन दरबारी साथ देते हुए झूम उठेंगे “मन तरपत मनी दर्शन को आज”। इन रागों पर आधारित आउट आफ डेट बेमतलब गानों को मीरसाहब की ज़ुबानी आज के माहौल मे किनारीदार धोती में बांध कर कहीं खूंटी पर टांग देना चाहिए। हैरत तो मियाँ अंगूठाछाप अपने लख्तेजिगर रमफेरवा को देख कर होती है कि आजकल वह भी राग दरबारी और मालकोश पर खूब रियाज़ मार रहा है। बेलौस कहता है कि आज के ज़माने में जिसने दरबारी बन कर माल का कोष बनाना नहीं सीखा, उसका अगला जन्म श्योर-शाट तिलचट्टे या खनखजूरे का होगा।

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मुझे वे बहुत अच्छे लगते हैं..!
दुनिया यूं ही चलती है चलती रहेगी। सिर्फ गिरगिट की तरह रंग बदला करती है। शायद यही फितरत ऊपर वाले ने बख्शीश मे दुनिया को अता फ़रमा कर अपने दोनों हांथ झाड़ लिए। साथ में एक गाने का मुकम्मल रिहर्सल करा के आदमियों के जंगल में हमें भेज दिया। किसी डाल पर हम ब-आवाज़े बुलंद यूँ गाते हुए जंगल में मंगल मनाने के लिए सुनसान घाटियों को सुनाया करते हैं‘दुनिया का मज़ा लेलो, दुनिया तुम्हारी है’लेकिन हक़ीक़त में दुनिया न तुम्हारी है और न हमारी बल्कि किसी तीसरे की है। अब तो किसी तीसरे की भी नहीं लोग-बाग मानते हैं। अपने जिगर का एक अदद टुकड़ा रमफेरवा कभी-कभी बड़ी दूर की कौड़ी  ढूंढ कर ले आता है। कहता है, ‘बापू असल में अब जिसके पीछे सत्ता की दुम लगी हो और हनुमानजी की तरह सीना चीरने पर सुल्ताना डाकू की झोली से अशर्फ़ियाँ खनकते हुए गिरे, बस समझो दुनिया उसी की है। मुझे तो सच मानों बापू ऐसे लोग बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि कम से कम वे इस दुनिया के संगमरमरी चबूतरे पर चलते-फिरते और धक्का-मुक्की करते दिखायी तो  देते हैं । रही पुराने संस्कारों और ईश्वर से डरने की बात तो वह सब गुज़रे ज़माने की बातें हो चलीं हैं। अब तो बात हो रही है कि ज़माना हमसे है ,हम ज़माने से नहीं। इसलिए सोच कर चुप हो जाना पड़ता है कि जब ज़माना उनसे है तो लामोहाला उनकी मर्ज़ी के म्वाफिक चलने में ही भलाई है। दुनिया भी यही कहती है जैसा देश वैसा भेष। वर्ना लोग देश द्रोह का आरोप लगाने से बाज नहीं आएंगे। भैया अपुन ने तो वसूल बना लिया है कि जिस थाली में  खाएंगे उसमे छेद नहीं करेंगे। सिर्फ पांच साल की तो बात है। हो सकता है थाली बदल दी जाये।

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शौचालय :- एक उद्घाटन..!
इस शीर्षक पर लोग छिः- छिः तो जरूर करते हुए अपनी तोते जैसी नाक पर फटा रुमाल ही सही जरूर रख कर लेखक की लिस्ट से मेरा नाम उड़ाने का डंका पीटेंगे मगर भाइयो और बहनों, दावा तो नहीं करता लेकिन अगर किसी कदरदान की नज़रे-इनायत हुईं तो तमगों से मेरी मटमैली शर्ट को शर्तिया सज़ा देगा। ऐसे मौके पर रविश भैया को बधाई दिये बिना नहीं रह सकता जिन्होने अछूतो को छूते हुए इतना बड़ा तमगा हासिल कर लिया। दुनिया में अभी क़द्रदानों की कमी नहीं है। हाँ मगर हज़ार ढूंढो दो- चार मिलते हैं, भैया पास नहीं दूर मिलते हैं।
वैसे तो जनाब,इस मुल्क में  भाई लोगों ने  अपने नाम को स्वर्णाक्षरों में दर्ज़ कराने के लिए एक सी बढ़ कर एक आलीशान इमारतें तामीर कराईं, शिलालेख खुदवाए, अजीमुश्शान मूर्तियाँ गढ़वाई और न जाने क्या-क्या अजूबे काम कर डाले पर अपनी सीधी-सादी सरकार ने 'शौचालय' पर शोध करके जो करिश्मा कर दिखाया ,उसकी तारीफ में किस बैंक से शब्दों को उधार लूँ , समझ से बाहर है। जो लोग जीएसटी और नोटबंदी पर अपना थूथुन लटकाए 'पनवड़िया-दोकनिया' बहसबाजी मे मशगूल रहते थे आज शौचालय को सोचनालय समझ कर प्रशंसा के प्रकाश मे परवाज़ करते दिख रहे हैं। 
बहरहाल जो भी हो जो काम जंबू द्वीप से लेकर इंडिया तक ने कभी नहीं सोंचा था उसे अपने स्मार्ट इंडिया ने कर दिखाया। बात काबिले-तारीफ है। जहां अपना स्मार्ट इंडिया 'चंदा की चाँदनी में झूमे-झूमे दिल मेरा' गा रहा है वहीं अपने रामफेरवा और उसकी धरती-पकड़ माई ने अपने दुवारे शौचालय के लिए पियरकी ईंट और बालू गिरते ही झूम-झूम कर 'बरखा बहार आई' की तर्ज़ पर गाना शुरू कर दिया। उसी समय पास वाली मस्जिद से मगरिब की   नमाज़ अदा करके लौटे ही थे गाँव भर के हरदिल अज़ीज़ मीर साहब तो रमफेरवा और उसके माई की नौटंकी देख कर रुक गए। लोगों से माजरा पूछा तो हँस पड़े। पास खड़े परधान जी से कहने लगे 'पंडितजी देख रहे है इन गरीब लोगों की खुशी? अभी ईंट-बालू गिरने पर इतनी खुशी तो जब 'शौचालय' बन कर खड़ा हो जाएगा तो अंदाज़ा लगाईए उस वक़्त क्या होगा? इन्हे तो बस 'शौचालय' की खुशी है, इन्हे क्या पता है कि ईंट का रंग लाल है या पीला, बालू महीन है या मोटी। इन्हे तो खुशी के आगे यह भी नहीं मालूम कि बालू की जगह मौरंग से मजबूती आएगी। यह अल्लाह-मियां की गाय की तरह हैं जिसे कोई मतलब नहीं कि ठेकेदार को कैसे यह काम मिला?  किन्तु परंतु करते करते अपने बड़के हाकिम चाय की टॉनिक पीते पिलाते वह काम कर दिखाते है कि भूकंप भी शर्मिंदा पड़ जाता है । चाहे धारा 370 का किस्सा हो या नोटबन्दी अथवा किसी के घर पर छापेमारी। भाई मैं तो तारीफ करता हूँ उसकी जिसने उसे एक अजूबे साँचे में ढाल कर धरती मैया के हवाले कर दिया। अब चाहे लोग सड़क किनारे गोलगप्पे खायें या आलू-चने की घुंघनी का नाश्ता करें। चलिये बात जितनी बढ़ाइएगा उतनी बढ़ती जाएगी। दास मलूका कह गए सबके दाता राम। मैं भी ठहरा पूरा अहमक़। अपनी नाकाबिले-बर्दाश्त अहमहकई मे बेवक्त की पिपीहिरी बजाते हुए आउटडेटेड  भूल-भुलईय्या में  भटकता फिर रहा हूँ। लेकिन यह मानना पड़ेगा कि गरीबो-मज़लूमों के मसीहा बनने वालो ने  कभी यह सोचने की जुगत नहीं भिड़ाई कि इन बेचारों को एक ऐसा ठौर भी चाहिए जहां दो घड़ी बैठ कर अपनी समस्याओं के बारे में सोचें और उनका हल निकाले। मेरी समझ से एवरेस्ट कि ठंडी हवा में बैठ कर बहुत दूर से एक तीर से दो शिकार करने कि कोशिश किया है। एक तो पेट सफा तो सब सफा और दूसरे सोचने की मोहलत देना। एक बात और समझ में आती है कि बहुत जमाने पहले 'सोचनालय' शब्द ही रहा होगा जो जमाने के साथ बिगड़ते-बिगड़ते 'शौचालय' हो गया। अब चंद्रयान की खिड़की से जब देखते होंगे तो खुशी से अपनी पीठ खुद थपथपाते होंगे कि बीते हुए लम्हो को कैसे सजाया है। कितनी दूर की कौड़ी ढूंढ कर लाये हैं हमारे महबूब।     
  चलिये इतिहास के पन्नों मे 'शौचालय' शब्द को सोचनालय की कलम से अंकित तो कर दिया वरना किसी विदेशी की नज़र में 'इंडिया इज़ ए वास्ट लैटरीन' कह कर मज़ाक उड़ाया जाता। अपने लख्तेजिगर रमफेरवा के बाबा कहते थे कि एक बार कोई अंग्रेज़ अपने हिन्दुस्तानी गाइड के साथ रेलगाड़ी से सफर कर रहा था। सुबह-सुबह का वक़्त था। उसने खिड़की से देखा तो जगह-जगह लोटा या डब्बा लिए लोग बैठे नज़र आए। उसके समझ मे आया कि वाकई मे हिन्दुस्तानी चिंतन-मनन करने मे माहिर हैं पर गाइड ने धीरे से उनके बैठने की वजह बता दी। तब अंग्रेज़ ने मज़ाक उड़ाते हुए कह दिया मैन, 'ओह यू आर करेक्ट  'देंन इंडिया इज़ ए वास्ट लैटरीन'। 

 बहरहाल गावों मे जैसे-तैसे शौचालयों का निर्माण कर दिया गया। कुछ आधे-अधूरे भी रह गए। नेताजी लोगों ने शौचालयों को अपने भाषण मे ऐसे अंदाज़ में पिरो कर पेश करना शुरू कर दिया कि लोग ताली पीट-पीट कर खुशी मनाने लगे। बात भी सौ पैसे ठीक है कि इसी  बहाने स्वच्छ भारत अभियान लोगो के दिमागी-दरवाजे मे धँसने लगा। अब परंपरा रही है उदघाटन की। गृह-प्रवेश की तरह 'शौचालय-प्रवेश' की। गाव वालो ने एक मीटिंग की जिसमे पहले प्रधान जी का नाम लिया गया की उनकी देख-रेख में 'शौचालयो' का निर्माण हुआ है  इसलिए उदघाटन करने का हक़ उनही का बनता है पर उन्होने बगली झाँकते हुए इंकार कर दिया। फिर लोगों ने स्वास्थ्य-मंत्री का नाम प्रोपोज किया किन्तु पार्टी वालों ने यह कह कर प्रस्ताव को रद्द कर दिया कि इतने बड़े मंत्री से शौचालय का उदघाटन कराना शोभा नहीं देता है। तमाम जद्दोजहद के बाद तय किया गया कि किसी शिक्षक से उदघाटन कराया जाए क्योंकि जनगणना, मतदाता-सूची और दूसरे तमाम कामों को वही अंजाम देकर प्रशासन को सहयोग करते हैं। वैसे भी शिक्षक बेचारा होते हुए भी समाज का पथ-प्रदर्शक होता है। समय रखा गया सुबह छ्ह बजे। एक शिक्षक को खूब घुट्टी पिलाई गई कि वहाँ उसे सोचने-समझने का मौका मिलेगा जिससे वह कक्षा मे पढ़ाये जाने वाले पाठ पर खूब मनन-चिंतन कर सकता है। सभी ने एकमत से एक शिक्षक को मना लिया। गाँव वालो ने शौचालय को खूब झंडी-पताकाओ से सजाया। शिक्षक ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ नव-निर्मित 'शौचालय' का फीता काटा और रंगा-चुँगा दरवाजा खोल कर अंदर प्रवेश किया और करीब आधे घंटे बाद उसकी आवाज़ बाहर आई कि पानी की तो कोई व्यवस्था नहीं है। तब तक आधी से ज्यादा पब्लिक जा चुकी थी। भला उदघाटन से पानी का क्या संबंध? हैरत की बात तो यह थी कि जिस दिन उदघाटन हुआ उसके दूसरे दिन एक लहरे पानी बरसने से शौचालय की छत भरभरा कर गिर पड़ी। उसके बाद जांच- आयोग बैठा दिया गया । अभी रिपोर्ट का इंतज़ार है।


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चलते जाना, रुकना नही..!
चल पड़ा हूँ, चलता चला जा रहा हूँ
अनजानी डगर है,अनचाहे रास्ते है
क्योंकि कही पढ़ा है, सुना है
चलना ही ज़िन्दगानी है,
रुकना मौत की निशानी है।
घोर अंधेरी रात है,
ख़ौफ़ज़दा रास्ते हैं
ग़नीमत है
चल रहा है साथ-साथ
सरकारी सड़के और उनके अंगरक्षक फुटपाथ,
अगल-बगल दूर तक फैली झाड़ियां है
गुनगुनाती हुई "कहीं दीप जले कहीं दिल"
उनके बीच
किसी की सिसकी भरी आवाज़ सुनकर
सड़क रुकती है, फुटपाथ ठिठकता है
जैसे वे मुझसे कह रहे हैं
"मैंने चांद सितारों की तमन्ना की थी,
मगर मुझे रातों की स्याही के सिवा कुछ न मिला"
सड़क, फुटपाथ को रोक कर बढ़ जाती है
तन्हा पास की पुलिस चौकी की तरफ
मैं खड़ा खड़ा ग़ुबार देखता रहा।
कुछ टारचें मेरी ओर चमकीं
बढ़ती आ रहीं थी मेरी तरफ।
सोचा,
यह कैसा करिश्मा है
तभी एक बुलंद आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया,
लगा हथौड़े ने पसलियों को दुहरा कर दिया।
गनीमत कि सड़क ने थाम लिया मुझको ।
आंख खुली,
घने पेड़ों के झुरमुट से चांद घूर रहा था,
मेरे आसपास आदम की औलादे घूर रहीं थी
सड़क लहूलुहान थी, क्षत-विक्षत पड़ी थीं।
कुछ अधजले सिगरेट के टुकड़े और....
फुटपाथ तक टूटी कांच की बोतलें फैली थी।
कान में आवाज़ पड़ी
कुछ के ठहाके भी टकराये मुझसे
सांसे थम सी गई जहां  की तहां
भले रूकना मौत की निशानी हो।
सोचता हूँ न चलने में सुख
और न ठहरने में आराम
अभी कल ही इस सड़क का उद्घाटन हुआ था
खूब सजी संवरी थी किसी दुल्हन की तरह
और मैं अपने रमफेरवा के साथ 
नारेबाजी कर रहा था "ज़िंदाबाद-ज़िंदाबाद"
ज़िंदाबाद के बीच कोई दिलजला "मुर्दाबाद" बोल उठा।
खून और कानून के दो पाटों के बीच
आखिर सड़क भी सुबक कर बोल उठी
मुर्दाबाद।
सुनकर भी सबने अनसुना कर दिया।


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जलेबी का चक्कर..!
जनाब, यह गप्प नही, अफसाना नही,किसी फिल्मी स्क्रिप्ट की पट कथा नही और न किसी ख्वाब का फलसफा है बल्कि हक़ीक़त से लबरेज़ मेरी यादें हैं जो अपने साथियों को बांटने बैठा हूँ।
आदत से लाचार हूँ। खुले दिल का हूँ, अपने दिल का दरवाजा भी खुला रखना चाहता हूं। अकेले में वही मशहूर गीत बेसुरेपन से ही सही गुनगुनाया करता हूँ," चाहे कोई खुश हो या गालियां हज़ार दे, मस्तराम बन के 
ज़िन्दगी के दिन गुज़ार दे।" जी हां ज़िन्दगी की भूल भुलैया में ही दिन कटे हैं तो आदत पड़ गई है आपको भी सीधे रास्ते पर न ले जाकर गड्ढा युक्त गलियों में भटकाया करता हूँ जैसे कि अपने ज़माने के मशहूर लेखक देवकी नन्दन खत्री 'चंद्रकांता संतति' में ऐय्यारी की दूरबीन दे कर भटकाया करते थे।  
संदर्भ के लिये बता दूं कि इसी फैज़ाबाद में उन दिनों पिताजी लोको शेड में कार्यरत थे।निवास रेलवे क्वार्टर था । मैं इंटर पास करके साकेत महाविद्यालय ( नया खुला था) में बी ए में पढ़ता था। मेरे क्वार्टर के सामने वाले दोनों क्वार्टरों में शिया परिवार रहता था। वे  भी लखनऊ के होने के कारण हम दोनों परिवारों में काफी आत्मीयता थी। दूसरा कारण लखनऊ के जिस मोहल्ले में मेरा जन्म हुआ था वह शिया बाहुल्य इलाका था। हर ईद और नौरोज को मेरे लिए चिकन का कुर्ता और पायजामा आता था। मेरे यहाँ से भी उनकी बहू के लिये साड़ी ब्लाउज दिया जाता था। उस ज़माने में आज की तरह कोई भेद भाव नही था।मैंने उर्दू नही पढ़ी लेकिन उन्ही लोगो की शोहबत में ज़ुबान साफ होती चली गयी। शीन क़ाफ़ में फर्क समझने लगा। किसी ने ठीक ही कहा है, 'संगत से गुण होत है, संगत से गुन जात।' बात आगे बढ़ाऊंगा तो बोरियत महसूस होने लगेगी। बस मुख्तसर में जानिए कि कुछ वर्षो के बाद उन लोगो का तबादला लखनऊ हो गया और में भी कई तजुर्बे हासिल करते हुए स्व पृथ्वीराज कपूर और ख्वाजा अहमद अब्बास की सरपरस्ती में एन एस डी से स्क्रिप्ट राइटिंग तथा अभिनय की तालीम लेने दिल्ली चला गया। मगर उसके बाद किस्मत ने रेल में ढकेल दिया। यू ही दिन, महीने और साल दर साल गुज़रते चले गए। 1997 में रिटायर हो कर फैज़ाबाद चला आया अपने आशियाने में। लेकिन ज़माने की रवायत बदलती चली गई। वह मुहब्बत वह अपनापन सब बिखरते चले गए जैसे एक दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहां गिरा कोई  वहां गिरा। नजदीकियां दूरियों में बदल गईं।
 साल 2009 की बात है मेरी पुत्री अचानक डिप्रेशन की मरीज हो गयी। बड़े बड़े मनो चिकित्सको से इलाज कराया। कोई लाभ नही हुआ। फिर मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराना पड़ा। उस समय मैं दैनिक जागरण में बतौर स्तम्भ लेखक "रामबोला"के नाम से लिखा करता था। देखिये में फिर बहक गया।
हाँ तो एक दिन बच्ची ने जलेबी की फरमाइश कर दी। सोच में पड़ गया क्योंकि अब मेरे बचपन का लखनऊ तो रहा नही। वह पुराना चौक, नख्खास भी बदल चुका था। मुसाहब गंज, ठाकुरगंज और कैसरबाग सब बदल गया । जिस शिया फैमिली की बात मैंने शुरू किया था लगभग 1955-56 की उनका आशियाना मुसहिबगंज यानी हुसैनाबाद के करीब पुराने लखनऊ में हुआ करता था।समय के अंतराल ने सब करीबी रिश्ते किसी अफसाने की कड़ी बन चुके थे। जिनकी बात मैंने शुरू की उनके करीबी रिश्तेदार का होटल अपने हाल पर बेहाल नख्खास में हुआ करता था जहाँ हर शाम शेरो-शायरी के दीवाने इकट्ठे होकर लंबी लंबी छोड़ा करते थे। किसी के तंग क़ाफिये पर देर तक बहसें चला करती थी। एक प्याली चाय की गहराई में जोश ग़ालिब उमर खय्याम की रूहें सब तैरती दिखाई पड़ती थी। मरहूम जनाब यूसुफ़ साहब अपनी गद्दी( काउंटर) पर बैठ कर मुस्कुराया करते थे और कान में ठुंसी मुश्के अम्बर की फुरेरी की दिलकश खुशबू बतौर इनाम इकराम फिजां में लुटाया करते थे। शाम को नौकरों ने दिन भर का हिसाब जो देदिया लेलिया और अगर मूड अच्छा रहा तो पान की गिलौरी अपनी बत्तीसी की बारादरी के भीतर ढकेलते हुए बोल पड़े, " अमा रखो भी। बच्चों के लिए अनरसे की गोलियां लेते जाना।" आज मुझे वह मंज़र याद आता है । आजकल के      हज़रतगंजी स्मार्ट लोगो को उस नवाबी ज़माने की दरियादिली सुनाता हूँ तो वे मज़ाक समझते है। मगर मैने तो उस ज़माने को फटेहाली में भी तरन्नुम में तराना छेड़ते देखा है। नवाबो के शहर में भी शतरंजी शह मात की  सुरी बेसुरी शहनाई सुनी है। आज गो कि एक से बढ़ कर एक होटल तंदूरी चिकन से लेकर चाइनीज़ फ़ूड के लिए साहब  मेमसाहब की भीड़ के लिए मशहूर हैं मगर वह बात कहां? उस ज़माने में मेरा बचपना ही था। अपने दोस्त रज़ी भाई के साथ मैं भी कभी कभी पहुंच कर उन लोगो की नोंक झोंक सुना करता था। कुछ अल्फ़ाज़ दिलो दिमाग मे उतर भी जाता था।

हां तो अफीमचियों की तरह बहकने की लत पड़ गई है मुझे। जी हां याद पड़ा बीमार अपनी बेटी ने जलेबी की फरमाइश की थी। आप याद रखियेगा 1955 और 2009 का अंतराल। दूसरे दिन सुबह सुबह निकल पड़ा  जलेबी की तलाश में। आस पास कोई दुकान नही मिली। जो मिली भी वहां सिर्फ समोसे, पूरी सब्ज़ी या ब्रेड पकौड़े बनते मिले मरीजो के तीमारदारों के लिए। जलेबी की खोज में चलता  हुआ करीब दो किलोमीटर चला गया। अब कोई हनुमानजी तो था नही की संजीवन बूटी के लिए पूरा पुराने नवाबों के शहर को उठा लाता। बहरहाल कहा गया न कि कोशिश करने वालो की कभी हार नही होती। इत्तिफाक से एक दुकान दिखी। उससे पूछा," भाई साहब आप  के यहां सुना है जलेबी मिलती है।" उसने भी लखनवी तहजीब को बरकरार रखते हुए जवाब दिया, " हुज़ूर जरा सब्र करना पड़ेगा। चूल्हे का कोयला कुछ धधक जाए तो जलेबी पेशे खिदमत करता हूँ। करीब एक घंटा तो मान कर चलिये। मरता क्या न करता। फिर डिप्रेशन के मरीज की बात थी। इतने में उसने कहा, बाबूजी कब तक इंतजार कीजियेगा? जबसे कही चाय वाय पी कर आइए। उसने ही बताया वह देखिये सामने उस पट्टी पर होटल है। देखा होटल नुचा खुचा। दीवारें धुंवे से काली पड़ी थीं। बेंचे बे तरतीब पड़ी हुई थी। काउंटर पर तहमद लपेटे एक नौजवान खड़ा हुआ था। एक दो मज़दूर टाइप लोग चाय पी रहे थे। तबियत तो बिचकी फिर भी मन मार के किसी तरह चाय का ऑर्डर दिया। मैला कुचैला एक लड़का मेरी मेज़ पर एक शीशे के गिलास में चाय रख गया। चाय पीते हुए मैंने पूरे होटल का जायजा लेना शुरू किया। अतीत धीरे  धीरे किसी फिल्म के फ्लैशबैक की तरह आने लगा। चाय किसी तरह खत्म करके काउंटर पर पेमेंट के लिए पहुंचा। उस दरम्यान उस नव जवान से जानकारी भी लेता रहा। मैंने उस युवक से पूछा, " भाई यहाँ कहीं बहुत पहले जनाब यूसुफ हुसैन साहब का होटल हुआ करता था जहां हर शाम से रात तक शेरो शायरी के उस्ताद जमे रहते थे। यूसुफ साहब तो उसी ज़माने में साठ सत्तर के हो चुके थे। उनकी एक बेटी थी जो जनाब ताहिर हुसैन साहब को ब्याही गई थीं। ताहिर साहब तीन भाई थे  वह खुद और मंझले तक़ी और सबसे छोटे रज़ी भाई। जनाब ताहिर साहब की बीवी को हम लोग भाभी न कहकर अनारकली कहा करते थे क्योंकि उसी ज़माने में 'अनारकली' फ़िल्म आई थी। वह लोग उस वक़्त  फैज़ाबाद में हमारे रेलवे क्वार्टर के सामने रहा करते थे। बाद में उनका तबादला लखनउ हो गया था । बहुत अरसा हो गया। इस तरह मैंने पूरा शिजरा बयान किया तो वह नवजवान भी बड़ी खामोशी से सुनता रहा। फिर अचानक बोल पड़ा ," चचा जान आप वहीं उसी होटल में तो खड़े है। मरहूम यूसुफ साहब का मैं भतीजा हूँ। ताहिर क़ैसर और बाजी सब अल्लाह को प्यारे हो गए। मुसाहब गंज वाला मकान भी बिक गया। रज़ी भाई अपनी सुसराल मौलवीगंज में माशाल्लाह अपने बच्चों के साथ रहते है।"मैंने होटल की हालत को पूछना अच्छा नही समझा लेकिन खुशी के साथ हैरत भी हुई कि न जलेबी का चक्कर होता और न बीते दिनों के इतिहास से अपने को जोड़ पाता। तभी लोग कहते है कि दुनिया गोल है। इतने में जलेबी वाले ने पुकारा बाबूजी जलेबी तैयार है। मैं बीते दिनों की यादे ताज़ा करते हुए उस ज़माने के प्रगाढ़ रिश्ते को माध्यम मान रहा था। बस सब से अनुरोध है कि यह कोई मन गढ़न्त कहानी नही है। अनुभव है। बीते दिनों की हसीन यादे है जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। ख़ुदा के करम से फैज़ाबाद के एक मामूली से होमियोपैथ से बच्ची ठीक हो गई। इत्तिफाक से वह भी शिया ही थे। अब वह भी इन्तिक़ाल फरमा गए।

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खुशी है कि आज हम नारी सशक्तीकरण के प्रति इतने जागरूक हैं। जितने ही हम जागरूक होने की तरफ बढ़ रहें हैं उतनी ही हाय..! नारी बेचारी बनती जा रही है। ज़रा उन अतीत की व्यथा सुनाते चित्रों को भी पढ़िये --'अहिल्या','सीता', 'द्रोपदी', सरस्वती  आदि अनेक । पर उन के साथ हुए अत्याचार को पुराण-पंथियों ने धार्मिक-जामा पहना कर आरोपियों को देवता या लीलाधारी कह दिया गया क्योंकि उनपर बड़े-बड़े देवी-देवताओं वरद-हस्त था। आज भी जो कुछ हो रहा है वे अकेले नहीं हैं, उनके सिर पर भी दिग्गजों का हाथ हैं जो आज के देवता हैं। ज़रूरत है गहराई मे उतर कर जांच करने की। पर फुर्सत किसको है ? यह कलियुग है कहने से काम नहीं चलेगा। आज एक नारी के सतीत्व की कीमत आश्वासनों का पुलिंदा है या छापे हुए कागजों का खूबसूरत बंडल। अतीत को नज़ीर नहीं बनाया जा सकता। कुछ बड़े घराने की महिलाओं को जोड़ कर एक संगठन बनाया गया है जो सुरक्षा घेरे मे नाक पर रुमाल रख कर जांच करने सरकारी गाड़ी पर चलती हैं..! आज की नारी अबला है और अबला रहेगी शायद........

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      ( रेडियो नाटक )
साल नया , रेल पुरानी..!
(ट्रेन चली जा रही है। कम्पार्टमेंट में कुछ लड़के-लड़कियां गाते रहते हैं, 'चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजड़े वाली मुनिया...
मीर साहब- बेटा रमफेरवा, यही है किस्सा ज़िंदगी की गाड़ी का जिसे कहते हैं भैया चलती का नाम गाड़ी। जहां रुक गई समझ लो स्टेशन आ गया।
रमफेरवा- चच्चा बतिया तो आप लाख टका की कह रहे हो। अब देखिये न अपने गाड़ी केतना टेशन पीछे छोड़त भै आए रही है और आगे न जाने केतना टेशन आवेंगे। 
मीरसाहब- (हँसते हुए) अरे, वैसे जैसे किसी ने गाया था, 'एक दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा'।
रमफेरवा- (साथ मे कई लोग) वाह रे चचा जान आज भी जवानी जिंदाबाद। (रमफेरवा कहता है) 
ठीकये लोग कहते हैं की ई देश मतिन कोई देश नहीं है। उ गवनवा बिलकुल सही गावा गवा रहा,' "यह देश है वीर जवानों का  अलबेले मस्तानों का, इस देश का यारों क्या कहना, यह देश है वीरों का गहना"।
मीरसाहब- देखिये आप सब कि शरीर भले बूढ़ा हो जाये मगर दिल हमेशा जवान रहना चाहिए, लेकिन एक बात हमेशा याद रखें कि कहीं जवानी-दीवानी न हो जाये। दीवानगी भी हो तो मुल्क के लिए। गरीबों मज़लूमों के लिए जो हमारे बाप-दादों ने बताया है। अपने रमफेरवा की तरह दीवाना न हो जाये कि चप्पलों और सेंडिलों से स्वागत किया जाए।
अगल-बगल के कुछ यात्री- "अरे रामफेरवा तो देखे मे बड़ा सीधा दिखाई पड़ता है"।
मीर साहब- यही तो रोना है भाई लोगों कि (अचानक गाड़ी बीच मे रुक जाती है) आजकल जिसे खमीरा समझो वही भसाकू निकल जाता है। वह तो खुदा ने खैर किया वरना हम-सब का चौखटा देखने लाएक भी न होता। 
रमफेरवा- बाबू लोगों बात कुछ नहीं थी। बस बात इतनी सी थी कि हमरे मोहल्ला की भौजी लागत गेटवा की तरफ जात रहीं, हम मज़ाक के मारे कह दिये, 'चलत बेरिया तनी नजर भर के देख लेव मोर भौजी'। भौजी बिना कुछ बोले आपन अँचरा संभालत भए अपने रास्ता चली गईं। वही का अपने मीर चच्चा बात के बतंगड़ बनाए दिहीन। 
एक आदमी- "अरे भैया मजाको मौका-महल देख के किया जाता है"।
रमफेरवा- "देखिये आप लोग समझने की कोशिश कीजिये। ई तो जनबे करत हैं कि कुछ ही पल में साल 2017 फुर्र से उड़े वाला है। हम चाहित है कि जात-जात हमरे सब बरस 2017 के भौजी मतिन काहे न देख लेई? उगते सूरज के तो सबही बड़ी चाह से जल धारत हैं मुला डूबते सूरज के कोई नहीं देखे चाहत है। हम गलत कहीं तो कहो"।
मीरसाहब- वाह बेटा रमफेरवा निकला अरस्तू की औलाद। क्या सफाई पेश की है। (सब हँस पड़े। गाड़ी सीटी बजाते हुए चल पड़ी)
चलत मुसाफिर मोह लियो रे... (लड़के-लड़कियां मिल कर गाने लगे)
(गाड़ी एक झटके साथ फिर रुक गई।)
चायवाला- (कम्पार्टमेंट मे प्रवेश करते हुए) चाय गरम। चाय गरम। गरमा-गरम मसालेदार चाय पीजिए। पसंद न आवे तो पैसा मत दीजिएगा। 
रमफेरवा- अरे भैया ई गड़िया फिर काहे रुक गई?
चायवाला- "आउटर पर खड़ी है। सिंगल हो गया है बस चले वाली है। (इतने मे सीटी मारते हुए गाड़ी रेंगने लगी। (गाना फिर उभरा, 'उडी-उडी बैठी हलवइया दोकनिया बर्फी के सब रस ले लियो रे पिंजड़े वाली मुनिया… चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजड़े वाली मुनिया)
मीरसाहब-  स्टेशन आते-आते सचमुच पुराने साल की मुनिया फुर्र से उड़ जाएगी। फिर नये साल की नई गाड़ी से सफर शुरू होगा, मतलब 2017 विदा और नया साल 2018 की चमकती हुई सुबह से बिस्मिल्लाह। 
रमफेरवा- "यानि सबेरे वाली गाड़ी से चले जाएँगे। न कुछ ले के जाएंगे, न कुछ दे के जाएँगे"।
(स्टेशन पर गाड़ी पहुँचते ही दूर से बम-पटाखे दगने की आवाजें। उधर यात्री उतर रहे थे। इधर स्टेशन पर मधुर आवाज़ में उद्घोषणा होती रही। नये वर्ष में सभी रेल-यात्रियों का स्वागत। नया साल मुबारक। स्टेशन-मास्टर अपने स्टाफ के साथ यात्रियों का स्वागत करने के लिए खड़े दिखाई दिये। हर एक स्टेशन-स्टाफ को नये-वर्ष की बधाई देता दिखाई पड़ा।)
मीरसाहब- "देखा भैया रमफेरवा साल न हिन्दू होता है न मुसलमान न सिक्ख और न ईसाई। हम तो अल्लाह से दुआ करते हैं कि नया साल इसी तरह मोहब्बत और भाईचारे का तोहफा लेके आवे"।
रमफेरवा- चच्चा हमार तो जीउ चाहत है कि वही गवनही गाई, "न हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा"।
मीरसाहब- "अभी तुम्हारे अकल का ताला जा के खुला पुत्तर रमफेरवा। ऐसे ही अगर सब के दिमाग का दरवज्जा खुल जाये तो बाबू तो न कोई चमन उजड़ेगा और न आशियाँ बर्बाद होगा।
(ढोलक मजीरे के साथ ताली पीटते हुए कुछ किन्नरों का प्रवेश) 
एक किन्नर- अरे टेशन- मास्टर बाबू बधाई हो बधाई। जियो-जियो... (ललना की धुन पर सोहर गाने लगे।) सुनो बड़े-बाबू दुई हज़ार के कडक नोट से कम न नेग-चार लेंगे। (ताली बजाते हुए) और सुनो मुसाफिर भैया-बहिन लोगों अपनों टेंट हल्की करो। अइसन शुभ-घड़ी बार-बार नहीं आती है।
स्टेशन-मास्टर- "अरे भाई ये सब क्या हो रहा है? यहाँ कोई ललना-वलना नहीं हुआ है। काहे का नेग?"
दूसरा किन्नर- "नया साल किसी नये जन्मे बच्चे से कम होता है क्या? हमारा तो हक़ बनता है क्यों भाई लोगों? (सबने एक स्वर में हाँ में हाँ मिलाई।)
स्टेशन-मास्टर- (एक कर्मचारी को पुकारा) अरे भगेलू घंटी बजाओ सबेरे वाली गाड़ी का लाइन क्लियर हो गया है। (उद्घोषणा होती है ‘फ़ैज़ाबाद इलाहाबाद पैसेंजर गाड़ी प्लेटफार्म नंबर तीन से अपने निश्चित समय से छूटेगी। यात्रियों से अनुरोध है कि अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लें। आपकी यात्रा मंगलमय हो।)
किन्नर - (सब मिल कर गाना-बजाना) अरे ओ बड़ा बाबू हमलोग बिना नेग लिए जाने वाले नहीं हैं। नए साल के पहले दिन ऐसे पीछा न छुड़ाओ साहब। नवा साल में फूलो-फलो, इससे भी ऊंची कुर्सी पाओ। (गाते हैं 'जियो जियो रे लला')।
(तभी गाड़ी सीटी देती है और चल देती है)
(ढ़ोल-मंजीरे के साथ दूर जाती हुई ट्रेन से वही गाने के स्वर सुनाई पड़ते है, 'चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजड़ेवाली मुनिया... दूर जाती ट्रेन से आवाज मद्धम होती जाती है।)


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एक मुट्ठी दर्द..!
किसी फिल्म का कभी एक गीत सुना था जो आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर उमड़-घुमड़ रहा है लेकिन कुछ इस तरह, 'नन्हें-मुन्ने बच्चों तेरी मुट्ठी में क्या है'...!, मुट्ठी में है मौत हमारी, हमने उनको बेदर्द किया है। इतना सुन कर बिलख पड़ा। बिलखता भी क्यों नहीं क्योंकि कभी हम ही ने कहा था, 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की'। मगर झांकी देखने के पहले उन्होने अपनी आँखें सदा-सदा के लिए बंद कर ली। झांकी दिखाने वाले अभी भी दुकान सजाते हुए झांकी दिखाने की रट लगाए हुए है और कोई योगी अपने राजनैतिक योग-निद्रा मे जैसे अखंड समाधि में लीन  है। बात दूर की नहीं है उनके आस-पास की है। यह कैसा योग है कि जन-कल्याण के नाम पर उन अन बोलते नन्हें-मुन्नो की बलि दे दी गई और लोग चिल्लाते रह गए कि जीवों पर दया करो। बाबा गोरखनाथ और पाटन की माई ने उफ तक नहीं किया। यह कौन सा नियम है कि करे हम और भरे वे मासूम जिन्हें भगवान का रूप कहा जाता है। हैरत की बात है कि जिस भगवान के रूपों को अपने सामने देख रहे है उनकी हिफाज़त कर नहीं सके लेकिन किसी पत्थर पर अपनी कलाबाज़ी दिखाने के लिए जद्दोजहद में मरे  जा रहे हैं। उनकी समाधि हम भंग नहीं कर सकते है। कहते हैं कि यह महापाप हो सकता है। वह तो जनकल्याण की धूनी रमाए समाधिस्थ हैं। जब उन्हें सीजन से मतलब नहीं तो ऑक्सीज़न से क्या लेना-देना? चेला-चपड़ियों से क्या मतलब? उनके लिए तो जीवन सदाबहार है। उन्हे तो गली-गली घूम कर चाँदी का पात्र लिए 'भिक्छाम देहि' के नाम पर पत्र-पुष्प लाना है जिससे उनका भी भला हो और गुरुजी की समाधि भी न टूटने पाये। जब फटीचर जीवन से कोई मोह नहीं तो उनके लिए सीजन और ऑक्सीज़न की क्या दरकार? भले आज के वैज्ञानिकों के अनुसार जीवन के लिए दोनों अति आवश्यक हों पर स्वनाम-धन्य योगी-राज और उनके शिष्यो के लिए तो 'पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात' फिर इस जीवन के प्रति इतनी मोह-माया क्यों?' भाड़ में जाये जीवन,  सीजन और ऑक्सीज़न। उन्हे मुल्क के मुस्तक्बिलों के बारे मे सोचने समझने से क्या मतलब? उन्होने तो कहीं सुन रखा है, ' जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहा?' इसलिए कोई शोक नहीं, कोई दुख नहीं। जानते हैं कि आत्मा अजर-अमर है। अपने रमफेरवा के आँख से आँसू थम नहीं रहे हैं। बार बार वही दुहराते हुए कहता है 'जीवन, सीजन और ऑक्सीज़न' कोई बगल मे सफेदी कि चमक मे मुसकुराते हुए समझाता है अरे इसमें रोने की क्या बात? वैसे भी अगस्त के महीने में बच्चे मरते ही हैं।

           वैसे हम भी जानते है कि कब किस पर अपने यमराज जी खुश हो जाएँ और अपने साथ ले जाएँ? अब की उन्हे बाबा गोरख धाम का वह शानदार अस्पताल ही अच्छा लगा होगा और गरीबी हटाओ के पालने मे झूलते बच्चे ही अच्छे लगे होंगे। बस मौका पाकर उन्होने वहाँ के हुक्मरानों की आँख मे धूल झोंक कर ऑक्सीज़न के सिलिंडरों मे बाढ़ का पानी भर दिया होगा, बस कहानी का दि-एंड। रोना चिल्लाना कोई नई बात तो नहीं है। यह तो आदमी का दस्तूर पुराना है। सब जानते हैं कि धीरे-धीरे आँसू सूख जाएंगे जैसे बाढ़ का पानी धीरे-धीरे घटता जाता है। जन्म से ही एक हैरतअंगेज घुट्टी पिला दी जाती है कि 'का करबों भय्या जीवन-मरण पे केहके बस चला है?' अपने यमराज जी ने जिम्मेदार लोगों को बचने-बचाने का गज़ब का नुस्खा दे दिया है। दूसरा नुस्खा गद्दीनशीनों ने ईजाद कर दिया है, 'जांच-कमेटी'। एक और नुस्खा बड़ा कारगर साबित हो रहा है 'घड़ियाली-आँसू बहाते हुए नोटों की गड्डी से नाव बना कर दुख से पार उतारना। किसी ने कभी ठीक कहा था, "कहीं बजती है शहनाई, कहीं मातम भी होते हैं। मातम इधर हो रहे हैं और वोट का ओवरकोट पहन कर उधर शहनाई बजाने की तैयारी हो रही है। फूँक मारी जा रही है आज और शहनाई बजेगी 2019 मे। तब तक उन नौनिहालों की रूहें भटकती रहेगी। मगर आज ऐसे-ऐसे काबिल ओझा-सोखा पैदा हो गए हैं जो उन मासूमों की भटकती आत्माओं को वश में करने की तरकीब में खूब माहिर हैं। जिंदा लाशों के रुतबे के सामने वे भटकती रूहे कर भी क्या सकती हैं? रमफेरवा जैसों को कुछ दिन बाद सीने पर पत्थर रखकर 'स्वच्छता' की डगर पर निकलने के लिए उनकी चौखट पर जमा भीड़ के साथ हांथ में झाड़ू थामने को मजबूर होना पड़ेगा। बड़े-बड़े लोगों के साथ फोटू खिचाने का लालच सब भुला देगा । अगर किसी बेसहारा माई को वह दिन याद भी आएगा और गोद सूनी लगेगी तो उस भीड़ में से कोई भावुकता का नाटक करते हुए समझा देगा कि तक़दीर के आगे तदबीर फेल हो जाती है। अब देखो न मुल्क मे कितने बच्चे खतरनाक बीमारी से जूझ रहे है पर सोचने वाली बात है कि समाधिस्थ योगिराज के प्रभा-मण्डल के पास ही सीजन, ऑक्सीज़न और जीवन खत्म होना था। कहते हैं रोम जलता रहा और नीरो वंशी बजाता रहा। यह कोई नई बात नहीं है। सिर्फ इसी हुकूमत कि बात नहीं है सब यही करते चले आ रहे हैं। मौत का सर्कस सभी ने किया है और सीधा सा फार्मूला अपनाया है 'कभी डगमगाई कश्ती, कभी खो गया किनारा' जैसे आजकल नदियां किनारा खो रही हैं और अब उन्हे नए आशियाने का रास्ता दिखाया जा रहा है। यह आशियाने कि बात, मौत पर जांच और मुअत्तली के ड्रामों पर अपने मीरसाहब ठीक ही चचा ग़ालिब को याद करके कहते हैं, 'दिल के बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है।' मुझे तो बाप-दादों के जमाने से चली आ रही कहावत याद आ रही है, 'जाके न फटे बेवाई ऊ का जाने पीर पराई।' पर मैं उन लाइनों को नहीं भूल पा रहा हूँ जिन्हे हमारे लाडले बड़ी शान से गाया करते थे, "नन्हें मुन्ने बच्चों तेरी मुट्ठी में क्या है?" जवाब मिलता था, "मुट्ठी में है तदबीर हमारी हमने किस्मत को वश में किया है"। कहाँ है वह तदबीर और तक़दीर। तदबीर दूसरों ने छीन लिया और किस्मत को अल्लाह मियां के सन्दूक में बंद करके समझाना शुरू कर दिया।

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नम्रता से सीखिए..!
आज मेरा दिल पौराणिक कथाओं की ओर चल पड़ा है। सामने दृश्य है लंकाधपति रावण मृत्यु शय्या पर पड़ा है। श्री राम ने लक्ष्मण से कहा कि महाज्ञानी रावण से जा कर शिक्षा प्राप्त करो। लक्ष्मण ने आज्ञा पालन करने हेतु जा कर लंकेश के सिर की ओर खड़े हो गए। रावण खामोश रहा।श्री राम संमझ गए। उन्होंने लक्ष्मण को आदेश किया कि उसके चरणों की ओर खड़े हो। यही गलती महाभारत काल मे दुर्योधन ने किया था। यद्यपि वह पहले पहुंचा था लेकिन कृष्ण के सिरहाने बैठ गया। अर्जुन जो बाद में पहुंचे वह कृष्ण के पैताने खड़े हो गए। कृष्ण की जब निद्रा टूटी तो उन्होंने सबसे पहले अर्जुन को देखा। निष्कर्ष यही है कि किसी से ज्ञान प्राप्त करने के लिए नम्रता अति आवश्यक है। जीवन में उतारने वाली बात। अहम विनाश का कारण होता है।


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दायरा....!
‘बेटा जम्बूरे’… बेटा जम्बूरे’… 
‘यार उस्ताद ! कित्ती बार कहा की डिस्टर्ब मत किया करो। एक तो किसी तरह गाने का मूड भी बना तो तुमने सब कबाड़ा कर दिया’। 
‘अबे आजकल कसम उड़ानझल्ले की तेरा मूड बड़ा आफ-ऑन हो रहा है जैसे अपने बिजली वालों का मूड ऑफ-ऑन हुआ करता है’। 
‘देखो उस्ताद,  भले मैं तुम्हारे लिए जंबूरा हूँ पर मेरा भी एक स्टैंडर्ड है। यह बात अलग है कि मेरे पास फिलहाल चौपाये नहीं हैं पर उस्ताद इरादों में कमी नहीं है’।
‘यह तो मैं जानता हूँ जंबूरे, खंडहर बता रहें कि इमारत बुलंद थी’। 
‘अच्छा उस्ताद, मूड में हूँ ज़रा गाने दे...
‘काशी देखी मथुरा देखी, देखे तीरथ सारे, कहीं न मन का मीत मिला...’।
‘अबे जंबूरे, अभी कुछ बाक़ी है’?
‘हाँ उस्ताद ! अभी नए तीरथ देखना बाक़ी है’। 
‘मतलब’?
‘वाह उस्ताद, बस ज़िंदगी भर तमाशा दिखाते रहोगे और तमाशा बनते  रहोगे’। सिर्फ उस्ताद, यूं ही ‘पापी पेट का सवाल’ चिल्लाते-चिल्लाते मर जाओगे मगर ‘पापी-पेट’ कभी नहीं भरेगा’। अरे कभी तो ‘पेट’ के अलावा ‘माइंड’ से भी काम लिया करो। सुना नहीं उस्ताद, माइंड से काम लेने पर एक मोची का लड़का रूस का प्रेसिडेंट बन गया और अपने यहाँ ‘चाय-गरम’ की हांक लगाते-लगाते कोई पी॰एम॰ पद पर पहुँच गया’। 
‘बेटा जम्बूरे, लगता है सियासतदानों की गली में नैन-मटक्का करते-करते तेरा तीसरा नैन भी खुल गया है’?  
'‘नही उस्ताद, सोचता हूँ कब तक फटीचर जम्बूरा बना ज़िंदगी और मौत का खेल दिखाता रहूँगा? लोग सिर्फ तालियाँ बजाकर वाह-वाही लुटाते चलते बनेंगे और मैं जम्बूरे का जम्बूरा बना दर-दर की ख़ाक छानता रहूँगा। इसीलिए मन कर रहा है कि नये और आला तीरथ 'सैफई', 'रामपुर' होते हुए 'नागपुर' पहुँचकर 'नमस्ते सदा वत्सले' पर रियाज़ मार लूँ । हो सकता है कि 'भागवत-पूजा' कुछ अला-भला कर दें।'' 
‘मान गए बेटा जम्बूरे, लगता है बेटा जब अल्लाह मियाँ के काउंटर से प्लानिंग बांटी जा रही थी तो तू लाइन में सबसे आगे था और अपना बिजली-कार्पोरेशन सबसे पीछे। सच पूछ तो अपना भी इस धंधे से दिल टूट गया है जम्बूरे। अब तो हमारे कमाल के क़द्रदान ही नहीं रहे। गाना पड़ता है ‘ऐ मेरे दिल कहीं और चल, ग़म की दुनिया से दिल भर गया। ढूंढ ले अब कोई घर नया’। 
‘इसीलिए सोचता हूँ उस्ताद कि नए-नए तीरथ में हो सकता है कोई ‘मीत’ मिल जाये और बेड़ा पार करदे। पालिटिक्स में कोई ठीक नहीं है कब सैफई गांधीनगर बन जाये और दिल्ली काशी की राह पकड़ ले क्योकि जब दिल्ली से दौलताबाद हो सकता है तो सुनामी में सबकुछ हो सकता है माई डीयर उस्ताद’। 
‘जम्बूरे तभी नुक्कड़ वाला रमफेरवा ढोल बजाते हुए घूम रहा है ‘अच्छे दिन आने वाले हैं। अच्छे दिन आने वाले हैं’। 
‘अच्छे दिन तो आ जाते, मेरे उस्तादों के उस्ताद मगर चाय की प्याली पर नवाज़ शरीफ भाई की पालतू मक्खियाँ जो भिनभिनाने लगीं...
‘...और बेटा जंबूरे, इधर अपने हरदिल अज़ीज़ शाहजी भाई ‘भामाशाह’ बनने के चक्कर में सब को ‘हिन्दुत्व’ का शीरमाल जो बांटने लगे तो मक्खियों के साथ मधु-मक्खियाँ और हाड़ों ने पूरे का पूरा डिस्टर्ब कर दिया। अबे गरीबी-रेखा से लटके बन्दर, सड़े हुए आलू के साथ गले हुए टमाटर का प्याजरहित  चोखा खाने वाले जंबूरे की दुम ‘पालिटिक्स’ तेरे बस की बात नहीं है।उसे तो बस ‘मोदी-स्क्वायर और लालूभाई’ के लिए रहने दे’। 
‘अरे...रे...उस्ताद क्या हो गया अचानक? अभी तो खासे भले-चंगे दिखाई दे रहे थे? बड़ी-बड़ी छोड़ रहे थे। बार्डर-पार वालों की नेकर ढीली कर रहे थे, नक्सलियों की धरा पर प्यार की गंगा बहा रहे थे और ‘पासवान जी’ के घर बाटी-चोखा का भोग लगाने जा रहे थे, पर अचानक यह क्या हो गया उस्ताद’?
‘ह-ह-ह-ह-ह...,यही तो पालिटिक्स का खेल है बेटा जंबूरे। पल में तोला, पल में माशा। चोबदार के सिर पर बजेगी और बजेगी थोड़ी-थोड़ी। समझा जंबूरा, नहीं समझा। अरे जब हम नहीं समझे तो तू क्या समझेगा बेटा झाऊ लाल’।
‘बात तो तू लाख टके की करे है उस्ताद। आखिर चंदिया ऐसे थोड़े ही चमकने लगी। यहाँ तो तीज-त्यौहार में भी सिवाय पुतले फूंकने के पापड़ बेलने की किसी को फुर्सत ही नहीं है। एक बात बोलूँ उस्ताद, बुरा तो नहीं मानेगा’?
‘अबे एक सौ एक बात बोल, यही तो अपना धंधा है बेटा जंबूरे। अमर सिंह का दिल रखता हूँ आज़म भाई का नहीं जो बुरा मान जाऊँ’। 
‘देखो मेरे उस्तादों के उस्ताद, हक़ीक़त तो यह है कि हम लाख अपना धन्धा बदल डालें, लाख अपना रहन-सहन चेंज कर लें, लाख अपनी आदतों में सुधार कर लें लेकिन कहलायेंगे ‘जम्बूरे का खेल’ दिखानेवाला। नहीं भूलेंगे हमारी बात, ‘मेहरबान क़द्रदान... पापी पेट का सवाल है... और फिर डुग-डुगी बजाना... तो फिर अपना खानदानी पेशा क्यों छोड़े उस्ताद’?
‘बेटा जम्बूरे यही तो मैं भी कह रहा हूँ। वहाँ भी तो वही पापी पेट भरने के लिए झूठ-सच बोल कर बड़े लोग जाना चाहते हैं। सच पूछ जम्बूरे, वो हमसे भी बड़े ‘जम्बूरे का खेल’ दिखाने वाले हैं’। ‘तो फिर उस्ताद उठाएँ डेरा-डंबा? सब का मालिक अलग-अलग’। चल बेटा जंबूरे’ । 

सुदामा सिंह 
9415121202

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"लाल-क़िला" क्या कहता है..?
अफसोस मुझे ‘लाल-क़िले’ की लाल-किताब पढ़ने को नहीं मिली जिससे पूरी तरह उसके भूत और भविष्य के एक-एक लम्हे की जानकारी हासिल करने में क़ामयाब हो पाता। ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव देख कर भी अपने में हमेशा मस्त रहने वाले ऐ हमसफर दोस्त ‘लालकिले’,गुस्ताखी के लिए म्वाफ़ी चाहता हूँ । मुझे अच्छी तरह याद है वह मुबारक दिन जब तेरी चमकती हुई पेशानी पर कई बल पड़े साफ दिखाई पड़ रहे थे। तू सबकुछ भूल कर उन बेशुमार लोगों की बे-इंतहा खुशी मे शरीक़ था जो जश्न-ए-आजादी के एक-एक लम्हे की तस्वीर अपने दिलों के कैमरों में क़ैद करने को बेक़रार हो रहे थे ।
         मुझे अच्छी तरह याद आ रहा है कि एक बार मुक़द्दस जामा-मस्जिद की निहायत पवित्र सीढ़ियों से जश्ने-आज़ादी पर किसी ने कोई तंज़ किया था तब तुमने बड़ी बेबाकी से बतर्जे-गालिब जवाब दिया था ‘ मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ, काश पूछो कि मुददुवा क्या है ?’ ‘बेशक-बेशक’, लालकिले ने एक मुस्कराहट के साथ बयान किया, ‘क़िबला, मुल्क बंटने के बाद जब मिस्टर जिन्ना बताने आए तो मैंने बेलौस उनसे कहा था अमां कम से कम एक चुल्लू  जमुना का पानी भी ले आए होते’। ब-खुदा उस दिन मैं इतना रोया था जितना कि आखिरी मुगल-शहंशाह बहादुरशाह ‘जफर’ के क़ैद होते वक़्त नहीं रोया था। जिन्ना साहब और उनके चमचों के रुखसत होते वक़्त भी मैंने कहा था ‘हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन, खाक हो जाएंगे तुमको खबर होने तक’।
         ‘ भाई, मैंने तो अपने तामीर कराने वाले शहंशाहे-मुगलिया से साफ-साफ बता दिया था कि याद रखिए मैं इस अजीमुश्शान मुल्क की मुक़द्दस मिट्टी में जन्मा हूँ इसलिए इस मुल्क के ज़र्रे-ज़र्रे से मुझे बे-पनाह मुहब्बत है जिनका निगहबान हिमालय खुद है और ‘गंगो-जमन’ जिसके पवित्रता की सौगन्ध है। अब मेरा दिल हिंदुस्तान,मेरी ज़िंदगी हिंदुस्तान और मेरे लहू का एक-एक क़तरा हिंदुस्तान है। ब-खुदा कह रहा हूँ अगर किसी कमअक़्ल ने मेरी वतन-परस्ती पर किसी तरह का शक किया या इस तरफ अपने नापाक कदम बढ़ाने की जुर्रत की तो अल्लाह उसे कभी माफ नहीं करेगा । मेरे भाई तुम्हारे अज़ीज़ इस लालकिले ने बहते हुए लहू के असली रँग को बहुत क़रीब से देखा है ---‘लाल के सिवा मुझे कुछ नहीं दिखाई दिया है’।
         ‘मेरे भाई, जानते हो इस ‘जमुना’ की मैं बहुत इज्ज़त करता हूँ। इसके बड़े एहसानात हैं मुझ पर ।  रोज़ अल्ल-सुबह मुझे बड़े प्यार से उठाती है,मुझे गुसुल कराती है और तब मुअज़्ज़िन की अज़ान पर मुझे फ़ज़ीर की नमाज़ पढ़ने के लिए जामा-मस्जिद भेजती है। क्या किसी माँ से कम रुतबा है उसका? यक़ीन करो जब से इस सरज़मीं पर मेरी आँखें खुलीं हैं मैंने ज़िंदगी के बड़े उतार-चढ़ाव देखे हैं। नादिरशाही कत्लेआम देख कर साँसों का थमना महसूस किया, फरियादियों को इन्साफ पाते देखा, सल्तनत-ए-मुगलिया के शहंशाहों की शानोशौकत देखी, इन्ही बुरजियों से ‘यलगार-हू’ के साथ ‘ऐलाने-जंग’ भी सुनी और जज़िया के नाम पर ज़ुल्म होते हुए भी देखा’।
         ‘ फिर तवारीख के सफ़ों पर कम्पनी-सरकार के गोरे सैनिको की ‘लेफ्ट-राइट’के साथ गोलियों की तड़तड़ाहट सुन कर गुलामी का एहसास किया। मांडले की जेल से एक दर्दभरी आवाज़ ने मुझे क्या मैं समझता हूँ पूरे हिन्दोस्तान को झकझोर कर रख दिया—“कितना है बदनसीब ‘ज़फ़र’ दफ्न के लिए, दो गज़ ज़मीं भी न मिल सकी कूए-यार में”

            तुम्हारे इस ‘लालकिले’ ने अब तक सबकुछ देख लिया। खुदा जाने आगे क्या देखना बाक़ी रह गया है ? नफरत भी मुहब्बत भी। गुलामी भी और आज़ादी भी। तहरीर के साथ तक़रीर भी लेकिन लिल्लाह अब नहीं देखा जा रहा, न सुना जा रहा है। वही पुराने राग पर ढफ़्ली बजाई जा रही है। जब मुल्क ‘यौमे-आज़ादी’ पर रो रहा है तो मैं अपने आँसू कैसे रोकूँ?  

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कविते तू मेरी गली में आ..!

कविता, तू कभी मेरी तंग गली में आ,
मुझे जगा,
झकझोर कर जगा,
तुझे क्या अर्पित करूँ,
मेरे पास कुछ भी नहीं है। 
दोनों हांथ मेरे खाली हैं, 
क्योंकि, लुटेरों ने मुझे खूब लूटा,
आज भी लूट रहे हैं, 
शायद लूटते रहेंगे । 
कविता तुझे पाकर 
संभवतः मेरे दिन बहुरेंगे 
तेरे सृजनहार को पाकर,
मेरी हृदयतंत्री झनझना उठेगी,
सत्यता जीवन की उजागर हो उठेगी,
या, सत्य से साक्षात्कार हो सके, 
और दलित पीड़ितों के प्रति प्यार उमड़ पड़े। 
परवाह अब नहीं कोई मुझे,
कोई कुछ कहता है, कहता रहे,
किन्तु, 
मनुष्य होने का अधिकार तो मिल सकेगा। 
इसीलिए ऐ प्रिये कविते,
विनम्र निवेदन है 
कभी तो मेरी तंग गली में आकार देख ,
जीने के नाम पर मैं कैसी ज़िंदा लाश हूँ,
जिसे कोई जलाने को तैयार नहीं,
और न दो गज़ ज़मीन देने को तैयार है,
क्योंकि मैं एक ज़िंदा लाश हूँ ,
सड़ांध, बदबूदार  लावारिस ,
इसीलिए तो कहता हूँ  हज़ार बार, 
मेरी प्यारी  कविता ,  प्यारी मैना ,
आ...जा...आ...जा... न  मेरी गंदी गली में,
दो घड़ी के लिए ही सही, पर  आ जा …
पर इतनी सी इल्तजा है, 
उसे भी जरूर साथ लाना, 
जिसने तुझे रचा है, गढ़ा है 
जिसने तुझे संवेदना के साँचे में ढाला है ,
विस्मित हूँ ,
साधुवाद किसे दूँ, उस कवि को या तुझे ,
पर एकबार इस तंग गली मे जरूर आ जा॥ 

संपर्क सूत्र :- 9415121202. 
सुदामा सिंह..!

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जश्ने-आज़ादी तुमको मेरा सलाम,
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर, वे कहाँ हैं..??
कभी किसी की ज़ुबानी सुन कर बे-इंतहा खुशी हुई थी “आज हथकड़ी टूट गई, नीच गुलामी छूट गई”। अपना रामबोला एंड परिवार सबेरे से ही चिक्कन बना ढ़ोल-मजीरे के साथ गाते-बजाते निकल पड़ा। उधर मियां मीर साहब अपनी धराऊँ शेरवानी और लट्ठे का पैजामा पहने, हाथ मे मोबाईल-नुमा चाँदी का पंडब्बा थामे अपने कुछ वतनपरस्त दोस्तों के साथ गुनगुनाते हुए ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा’ नुक्कड़ की तरफ बढ़े चले जा रहे थे। सब के हाथ में तिरंगा लहरा रहा था। उस भीड़ में गज़ब की खुशी लहरा रही थी। मगर भीड़ से हट कर कुछ दूरी पर तरो-ताज़ा नवजवानों का एक अलग गुट 'काली टोपी लाल रुमाल' के साथ अपनी अलग धुन मे मस्त दिखाई दे रहा था, उनका तराना था, ‘इतिहास गा रहा है दिन-रात गुण हमारा, दुनिया के लोगो सुन लों यह देश है हमारा’। सोचा भैया, जब पेट में भूख की ज्वाला धधकती है, ‘तो कच्ची-पक्की रोटी खूब सुहाती है। वही बात याद आती है बार-बार कि आधी रोटी बासी दाल, खाले बेटा बाबूलाल’। बहरहाल लब पर बस एक ही खुशी हिलोरें मार रही थी कि मुल्क आज़ाद हो गया। गुलामी गुमनामी के अंधेरे मे कहीं गायब हो गयी। हम आज़ाद भारत के सजे-सजाये अँगने में जश्न मना रहे हैं। उस मुक़द्दस तारीख 15 अगस्त को भला कौन भूल सकता है। उस शुभ समय एक मनोवैज्ञानिक की तरह उस तरफ हुए एक बवाल के बारे में घंटों सोचता रहा। कहीं किनारे पर किसी फिल्म का गाना बज रहा था, ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’...! ‘नई उम्र की नई फसलें’ किसी जान-लेवा तूफान की आहट पाकर जैसे चीखने लगी, ‘बंद करो यह गाना। उस गाने को क्यों नहीं बजाते, ‘जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी, या ‘मेरा रंग दे बसंती चोला...। उधर मीरसाहब सब की तरफ से बे-परवाह हो कर अपना पंडब्बा खाली करने में जुटे हुए थे जैसे कभी कोयले वाले इंजन के फायरबाक्स में करिया-कलूटा फायर- मैन कोयले पर कोयला झोंका करता था। मैंने मीर भाई को झकझोरते हुए कहा ‘अमां, बेवजह का बवाल देख रहे हो?’ गानों पर उठा-पटक, कमाल है। सोचने वाली बात है कि कैसे भी मुल्क आज़ाद हुआ? हुआ तो सही। खुशी के मौके पर हाय-तौबा का अभी यह हाल है तो आगे क्या होगा, राम जाने? मीर साहब खुशी के मारे जवाब नहीं दे सके बस इतना कह कर चुप हो गए, ‘भाई हमें आम खाने से मतलब है, पेड़ गिनने से नहीं?’ इसमें न राम जाने और न रहीम। किसी तरह हमने सात समंदर पार वालों से आज़ादी तो ले लिया और सबने मिलकर उन्हे भागने पर मजबूर कर दिया। अब ज़िम्मेदारी हमारी बनती है कि हम उस आज़ादी को कैसे बरकरार रखे वरना दुनिया मुंह पर तो चिकनी-चुपड़ी और पीठ पीछे हमारी कमजोरी पर खिल्ली उड़ाएगी। सुबह से आधी रात तक लक़दक़ करते शहर को देखकर भूल गया अपना रमफेरवा अपनी टुटही साइकिल, भूल गई उसकी फटहा लुगगा पहने माई की घरा मा पिसान बाटे कि नाही? मीरसाहब पान की पीक निगलते हुए बोले अरे... भाई देश को मिली आज़ादी के जश्न के लिए अगर एक दिन उपवास भी रखना पड़े तो इसमें तकलीफ की क्या बात? अरे आज नहीं तो कल वही गाना गाते फिरोगे, ‘इस देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे मोती’। चलो आज हमारे घर इसी खुशी में दावत हो जाये। समझ लो की इस रोजे के बाद शाम को तुम्हारे दोस्त के गरीबखाने पर एक इफ्तार पार्टी का आगाज किया गया है। आज बेगम भी बहुत खुश हैं। यह सुनकर रमफेरवा की माई रामबोला के कान में मुंह बिचका के कुछ बोली। मीरसाहब हँसते हुए कह पड़े, ‘दुल्हिन यही न कहना चाहती हो कि एक मुसलमान दोस्त के घर खाने से तुम्हारे धरम वाले तुम लोगों को बिरादरी से बाहर कर देंगे? मगर यह भी तो सोचो कि उस आज़ादी पर क्या गुज़रेगी? जिसे सब मिल कर लाये है चाहे वे भगत सिंह हों या अशफाकुल्ला, चाहे मौलाना आज़ाद हों या गांधी जी, चाहे बहादुरशाह ज़फ़र हो या वीर कुँवरसिंह। भैया रामबोला, क्यों भूल जाते हो कि सब लोग एक ही जगह से अपना सफ़र शुरू करके धरती पर आते हैं मगर यहाँ आकर तमाम गुटों में तकसीम हो जाते हैं। धर्म मज़हब के जहाज अपनी अपनी जानलेवा उड़ान के साथ कहीं से कहीं पहुंचा देते हैं और हम बन जाते है वहाँ के हुक्मरान। अपने हुक्म पर सीधे-सादे हम लोगों को अपने इशारे पर एक दूसरे के बीच नफ़रत की दीवार खड़ी कर के अपना उल्लू सीधा करते हैं। लेकिन ज़रा गहराई से सोचो की ‘लव पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी' । चाहे उसे कोई अल्लाह कहे या भगवान। जिस मुक़द्दस आज़ादी के लिए तुम लड़े, हम लड़े, क्या सोचती होगी? भूख और रोटी की कोई ज़ात नहीं होती..! दिन भर की थकावट के बाद रात को घोडा बेंच कर सोया तो जरूर मगर ख्यालों मे वही आज़ादी, वही आज़ादी के लिए जद्दोजहद और आज़ादी के लिए पुरजोर जश्न मनाते आते जाते लोग। नींद की गहराई में न जाने कब तिरंगे के आँचल मे सुबकती हुई एक नाजनीन मेरे पास आकर खड़ी हो गई। मैंने उसकी हालत पर गौर करते हुए तरस खा कर पूछा, ‘अब इसमें सुबकने की क्या बात? क्या आज के जश्न से तुम खुश नहीं हो? उसने अपनी भर्राई आवाज में कहना शुरू किया, ‘शायद तुम लोगों को वक़्त बीतने का अंदाज़ा नहीं है। जिसे तुम आज कह रहे हो उसे बीते हुए सत्तर साल हो चुके हैं। उस दिन मैं बे-इंतहा खुश थी पर, आज सत्तर सालों बाद ज्यादा न कह कर बस इतना कहना चाहती हूँ कि- "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान"! "कहीं पे झगड़ा कहीं पे दंगा, आज आदमी बना लफंगा"। क्योंकि अब नाच रहा नर होकर नंगा’। बार-बार अपने से सवाल करती हूँ, ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वे कहाँ हैं, कहाँ हैं?' समझ सको तो समझ लो मेरे सुबकने का राज़। फिर जश्न मनाया जाएगा, नारेबाजी होगी, वायदे किए जाएँगे और रंग-बिरंगी रोशनी से मुल्क जगमगाएगा पर "चिराग तले अंधेरा ही होगा"।


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संक्षिप्त परिचय..!

जन्म 01 जुलाई 1937 जन्म स्थान-छितवापुर लखनऊ। पिता- स्व दुली चंद्र सिंह माता- स्व कौशिल्या सिंह मूल निवासी- डूंगर गढ़ जैसलमेर राजस्थान। शिक्षा- एम०ए० द्वय (समाजशास्त्र एवं राजनीति शास्त्र), बी०एड० । लेखन की विधा- नाटक एवं व्यंग्य । छात्र जीवन में सर्वप्रथम ‘भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ’ एंव कहानी ‘मालिक की राह पर’ प्रकाशित हुई। पहली बार ‘दो कलाकार’ नाटक में अभिनय किया। रंगमंच की ओर रुझान होने के कारण संगीत नाटक अकादमी से स्व॰ पृथ्वीराज कपूर एंव ख़्वाजा अहमद अब्बास के संरक्षकत्व में नाट्य लेखन एंव अभिनय का प्रशिक्षण (डिप्लोमा) प्राप्त किया। सन् 1964 में दो लघु नाटिका ‘जवानों की सिस्टर’ और ‘भूत का चक्कर’ आकाशवाणी से प्रसारित किया गया। रंगमंच के प्रति अभिरुचि बढ़ने पर कई नाटक ‘मीर मुंशी’, ‘आदमी और आदमी’, ‘चंबल का पागल’, ‘चीख’ ‘परछाइयाँ’ और ‘एक बेनाम नाटक’ लिखा और मंचित किया गया। किरन मित्रा द्वारा लिखित बांग्ला नाटक ‘नाम नेई’ का ‘नाम नहीं’ के नाम से अनूदित किया एंव अभिनय के साथ मंचन किया। इसके बाद पत्रकारिता में प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद समाचार पत्रों में व्यंग स्तभ लिखने लगा। कलकत्ता से प्रकाशित ‘दैनिक विश्वामित्र’, वाराणसी से प्रकाशित ‘दैनिक जनवार्ता’ एंव ‘गाण्डीव’ में मस्तकलम के नाम से लिखता रहा। सेवानिवृत के बाद लखनऊ व फ़ैज़ाबाद से प्रकाशित ‘दैनिक जागरण’ में सरयूतीरे स्तम्भ में रामबोला के नाम से लिखता रहा। फिलहाल फ़ैज़ाबाद से प्रकाशित ‘दैनिक जनमोर्चा’ में ‘दायरा’ और ‘अपना शहर अपनी नज़र’ के साथ ‘डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट’ लखनऊ संस्करण में ‘बतरस’ लिख रहा हूँ।और आकाशवाणी फ़ैज़ाबाद से जुड़ा हूँ। प्रसिद्धि से दूर रहने के कारण गुमनामी के अंधेरे में रहना अच्छा लगता है। प्रथम पुस्तक ' बतरस ' का प्रकाशन प विश्वनाथ शोध संस्थान अयोध्या के सौजन्य से वर्ष 2017 में हुआ। दूसरी व्यंग्य विधा की पुस्तक 'दायरा' प्रकाशनाधीन है। रेलसेवा के दौरान अधिकांशतः समय मुगलसराय से कोलकाता के बीच बिहार, झारखंड और बंगाल में ही बीता (1964 से 1997)। रेलसेवा के साथ साहित्य और कला की सेवा में ही बीता। इसके लिए अधिकारियों का सहयोग भी खूब मिला जिसके लिये मैं सदा रेल विभाग का आभारी रहूंगा। विक्रमशिला हिंदी विद्द्या पीठ झारखंड के 15 वें वार्षिक साहित्य सम्मेलन ने विद्यापीठ के उपकुलपति द्वारा साहित्य सेवा के लिए 'भाषारत्न' एवं 'व्यंग्यविद्या शिरोमणि' के स्वर्ण पदक से अभिनंदन किया। 2018 में आसनसोल पश्चिम बंगाल की संस्था आस्था द्वारा सम्मानित सम्मानित किया गया। स्थानीय कबीर संस्थान द्वारा 'शब्द श्री'सम्मान से सम्मानित किया गया।


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" माँ "

माँ, माई, मैय्या, माता के साथ जुड़ी ‘ममता’। अर्थात सम्पूर्ण जगत। ममता का महासागर। स्नेह की सहस्त्रधारा। कदमों में जन्नत की बेपनाह खुशी। अनगिनत सिंहासनो का असीमित सुख उसकी गोद। ऐसी माँ के रूप का वर्णन करने के लिए यदि तमाम आकाशगंगाओ को शब्द-रूप में लिख दिया जाय तो भी नहीं किया जा सकता है। नहीं भूल सकता हूँ उस परम-पवित्र ‘माँ’ के लिए लिखी गई इन पंक्तियों को :-
वह आंखें क्या आंखें हैं, जिसमे आँसू की धार नहीं, वह दिल पत्थर है, जिस दिल में माँ का प्यार नहीं। आज अपने जीवन के 82वें बसंत को पार करते हुए जब कभी बड़ी शिद्दत से अपनी माई या माँ को याद करता हूँ तो आज भी अपने को ‘घुटुरन चलत रेनु तनु मंडित’ अनुभव करके आल्हादित हो उठता हूँ। जैसा उनका नाम कौशिल्या था। उसी प्रकार उनका स्वभाव भी था। उनमें मेरी समझ से यशोदा और कौशिल्या का मिला-जुला रूप था। यद्द्पि शिक्षा तो न के बराबर थी किन्तु मेरी तालीम पर जितना पिताजी का ध्यान होता था उससे कहीं अधिक माँ का हुआ करता था। कहने को तो मैं इकलौता पुत्र था और तीन बच्चों की मौत के बाद बदकिस्मती के साये में मेरा जन्म हुआ था। अपनी पवित्र माँ के अमृत समान दूध में जहां मुझे प्रेम और सद-व्यवहार की पौष्टिकता भरी मिठास मिली वहीं उनके मार्गदर्शन से जीने की एक नई राह मिली। कहते हैं कि अक्सर इकलौता बेटा अधिक दुलार-प्यार पा कर नालायक हो जाता है किन्तु धन्य हूँ मैं, कि ऐसी महान माता की पवित्र कोख से जन्म लिया जिसने मुझे कलियुग में सत्ययुग, त्रेता और द्वापर का मिला-जुला संस्कार दिया। इस संबंध में बता दूँ कि प्रात:काल माँ मुझे साथ लेकर पूजा करती थीं और सायंकाल पिताश्री के साथ संध्योपासना में बैठना पड़ता था। बस छूट इतनी होती थी कि भले मैं दस मिनट बैठूँ किन्तु उनके साथ बैठना अनिवार्य था। उसी संस्कार ने मेरे मन में अनुशासन आस्था और अपनत्व की भावना जाग्रत की। मेरे एहसास ने यक़ीन की आँखें खोल दीं कि बालक के चरित्र-निर्माण में माता की भूमिका अहम होती है। मुझे बताया गया कि मै बचपन में बहुत जिद्दी स्वभाव का था। मई-जून की तपती दुपहरिया में, कटकटाती सर्दी तथा झमाझम बरसते पानी में माँ से कहता था मुझे बाहर लेकर बैठो। मरती क्या न करती एकमात्र जिगर के टुकड़े के लिए धूप-बतास सब हँसते-हँसते सहन करने को तैयार रहती। तब तो नहीं, क्योंकि ‘लड़कपन खेल में बीता, जवानी नींद भर सोया, बुढ़ापा देख के रोया’ अब ज़िंदगी कि आखिरी दहलीज़ पर पहुँचने के बाद माँ के उस अगाध प्यार और बेपनाह त्याग को याद कर-कर के सोचता हूँ ‘कितनी होती है प्यारी, कितनी होती है भोली माँ’। ऐसी त्याग-तपस्या की प्रतिमूर्ति माँ का बदला कोई किसी जन्म में नहीं चुका सकता है। हाय, वह मंज़र। भूखे-प्यासे दरवाज़े पर घंटों खड़े रह कर अपने लाडले का स्कूल से लौटने का इंतज़ार करना। मेरे इम्तिहान के समय मेरे साथ रात के दो-दो बजे तक जागना और सुबह फिर पाँच-छ बजे तक उठा कर खुद घरेलू काम में जुट जाना कम बात नहीं थी। उनकी दयालुता के चर्चे मोहल्ले भर में प्रसिद्ध थे। घर में झाड़ू-पोंछा लगाने वाली से लेकर दर्ज़ी-धोबी तक को बिना चाय-पान कराये जाने नहीं देतीं थीं। आज माँ के उस कठिन परिश्रम को याद करते हुए इन पंक्तियों में उत्तर पाता हूँ। ‘जान लिया मैंने रहस्य अब क्यों जप करती रहती हो ! मुझे ‘शतायु’ बनाने को ही यह दुख प्रतिफल सहती हो !! सचमुच, इसीलिए सभी धर्मों और सभ्यताओं में ‘माँ’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। कभी-कभी ख़्याल आता है कि जब परिवार की पालनहार एक ‘माँ’ इतनी ममतामयी है तो अखिल ब्रह्मांड की पालनहार ‘माँ’ कैसी होगी? दया की श्रोत और ममतारूपी मानसरोवर। आज मैं जब अतीत की गहराइयों में झाँकता हूँ तो आश्चर्य होता है की एक अनपढ़ माँ के दिल में साहित्य के प्रति इतनी रुझान कैसे आई कि उसने अपने बेटे को कुछ लिखने की प्रेरणा दी। मैं तो यही सोचता हूँ कि उस रूप में माँ सरस्वती स्वयं मेरे गरीब परिवार में अवतरित हुई थीं। लोग भले इस पर यक़ीन न करें किन्तु विनम्र निवेदन है कि इसे कोई अतिशयोक्ति न समझे। यक़ीन मानिए ! उन दिनों मैं क्लास सात-आठ का छात्र था। मुझे पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस (प्रथम स्वतन्त्रता दिवस) के सुअवसर पर विद्यालय-पत्रिका के लिए लेख लिखने को दिया गया था ‘भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ’। पिताजी की नज़र में वह फालतू काम था जबकि पिताजी खुद अपने समय के एक अच्छे लेखक एवं नौटंकी शैली के बेहतरीन कलाकार रह चुके थे। पर उनका कहना था कि पहले तालीम पूरी करने के बाद दूसरी तरफ ध्यान देना है। माँ की जानदार दलील होती थी कि बालपन से ही किताबी तालिम के साथ रुचि के अनुसार रियाज़ भी चलना चाहिये वरना बालक की प्रतिभा अवरुद्ध हो जाती है। मुझे याद है कि सन उनीस सौ बासठ में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया था। नेशनल कैडेट कोर के ‘सी’ सर्टिफिकेट पास कैडेटों को वरीयता के साथ ‘इमरजेंसी कमीशन’ देने के लिए डिफेंस अकादमी देहरादून भेजा जाने लगा। उनमें मैं भी माँ के आशीर्वाद से एक था। किन्तु सेना मे जाने की बात सुन कर अपनी माता जी के आँख से आँसू नहीं थम रहे थे। सकुशल पास आउट होने के बाद जब पोस्टिंग होने लगी तो आर्मी हेड-क्वार्टर से सूचना दी गई कि मेरी आयु 13 दिन ओवर है इसलिए पोस्टिंग नहीं दी जा सकती। देश-सेवा का जज़्बा रखने वाले एक युवा के लिए तो सामने से परोसी गई भोजन की थाली खींच लेना जैसा हुआ। मेरे बैच के पास-आउट हुए साथियो को भी बहुत दुख हुआ। किन्तु मेरी माता-श्री को तो जैसे मांगी मुराद मिल गई हो। मैं यहां एक बात की चर्चा करना भूल गया। उन दिनों किसी फिल्म का एक गीत ‘मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे’ बहुत प्रसिद्ध हुआ था। जब भी माँ वह गीत रेडियो पर सुनती और मुझे फुल सैनिक-यूनिफ़ार्म मे देखती तो बस फूट-फूट कर रोना शुरू कर देती। कभी-कभी तो मेरा भी दिल भर आता। बहुत मंथन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एक माँ का रोना दूसरी माँ से देखा नहीं गया होगा। उस जगत-जननी माँ ने एक ओर मेरी भी साध पूरी कर दी और दूसरी ओर एक माँ की ममता का भी ध्यान रखा। अनुशासन में परिपक्वता का श्रेय मैं अपनी माता को ही देता हूँ। कोटिश: धन्यवाद माँ। वास्तव में तुम एक महान शिक्षिका थी। प्यार-प्यार में मुझे जीने के काबिल बना दिया। सब को सब कुछ नसीब नहीं होता पर मुझे हुआ। मुझे यह कबूल करने में तनिक संकोच नहीं होता कि उस माँ ने एक अबोध बालक का सर्वोमुखी विकास किया। लिखने को तो बहुत कुछ है पर मेरे पास शब्दों का अभाव है। बस एक ही बात है कि ‘माँ’ बस ‘माँ’ होती है ‘दूजों न कोई’। नास्तिक मैं इसलिए हूँ कि मैं भगवान को नहीं मानता किन्तु आस्तिक इसलिए हूँ कि ‘माँ’ ही मेरे लिए सर्वोपरि हैं जिसे मैंने देखा, सुना और समझा। जिसने मुझे शक्ति दी, प्रेरणा दी और जीने की कला सिखलाई। बस कसक इतनी सी है कि उस माँ की अर्थी में कंधा नहीं लगा सका था, परंपरानुसार मुखाग्नि नहीं दे सका था। उन दिनों मैं साहिबगंज (अब झारखंड में) रेल-सेवा में था। वहाँ से उस समय कोई सीधी ट्रेन नहीं थी। पश्चाताप की आग में अपनी बदनसीबी को लेकर झुलसता रहा। उस समय भी माँ ने अपना चमत्कार दिखाया। उनके दिवंगत होने के लगभग एक-दो महीने बाद मालदा-टाऊन से फ़ैज़ाबाद होकर फरक्का एक्सप्रेस का संचालन शुरू हुआ जिससे मेरे जैसे दूसरे बेटे अपने माँ-बाप के जनाज़े में समय पर शामिल हो सकें। धन्य है माँ !


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आज रात मेरे सपने में वह आई थी जिसको मैं हमेशा अपनी यादों के दायरे में सिमेटे रहना चाहता हूँ। याद करते करते वही घिसा पिटा शेर दुहराता हूँ "तसव्वुर में ही आ जाओ तो तेरा क्या बिगड़ जाय तेरा पर्दा भी रह जाये और मेरा दीदार हो जाये।" आज की रात मेरे लिए बड़ी खुशनसीब रात थी जब वह मेरे सिरहाने खडी मुसकुरा रही थी । हौले हौले मेरे उलझे बालों को सहला रही थी । मैं रोमांचित हो कर उठ बैठा। देखा तो वह और कोई नहीं बस मेरे खवाबो ख्यालों में रची बसी मेरी एकमात्र ' पत्रकारिता'थी जो उम्र के इस पड़ाव पर भी बेपनाह हुस्न की मलिका लग रही थी। अगर कोई रीति कालीन कवि होता तो उसका नख शिख वर्णन अपने इर्द गिर्द परवाज करते शब्दों को किसी तरह एक लड़ी में पिरो कर उसकी सुराही दार गर्दन में पिन्हा देता। आज उसका निहायत हसींन रूप और पहनावा देख कर सोचने लगा की वह अचानक मेनका कैसे बन गई ? बड़े बड़े महंगे विज्ञापनों के बेलबूटों से छपी उसकी बेमिसाल साड़ी को देखा तो एकटक देखता रह गया। उस डिज़ायनर की तारीफ करने को जी चाहा जिसने उसके रूप को निखार कर चार चाँद लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी होगी। उससे पास बैठने का अनुरोध किया तो बड़ी बेरुखी से इंकार करते हुए जवाब दिया " यहाँ इस बदबूदार दायरे में? न न न । वह भी इस शिद्दत की गर्मी में ?" आज तो मेरा बर्थ डे है। वहां बड़े घराने वालो द्वारा आयोजित कार्यक्रमो में बड़े बड़े लोग मेरा बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहें होंगे। मेरी प्रतिष्ठा में चुन चुन कर शब्दों कोएक नौलखा हार में पिरोया जा रहा होगा। फिर एक आलीशान हॉल में मेंरे बर्थ-डे का केक काटा जायेगा। कोई माननीय मेरे सामने चमचे बजा कर मुझे रिझायेगा जिससे मैं उसके अंदर के इब्लीस का पर्दाफास न कर दू। मै देखता रह गया और वह बड़ी शोख अदा के साथ चली गयी। मायूसी के मजमे से मेरे भीतर का फटीचर पत्रकार झांकते हुए मेरी अशिकमिजाज़ी पर हँस रहा था। कहने लगा तुम्हे ग़लतफ़हमी हो गई है। अभी जो बड़े घरानों की शान शौकत पर इठला रही थी सचमुच मेनका का प्रतिरूप थी। तुम्हारी हमदम हमनवां हमराज़ निर्भीक निष्पक्ष निश्छल 'पत्र करिता'जिसका जनम कभी गुलाम भारत के गैरहिन्दी भाषी राज्य बंगाल में हुआ था, वह थी।उसने जागरण मन्त्र फूंकते हुए बा आवाज़े बुलंद एलान किया था ' स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है'और अंग्रेज़ो भारत छोड़ों का नारा दिया था। उसने कभी दौलत और शोहरत की लालच में नीलामी के स्टेज पर कदम नहीं रखा था। उव्ह फटे आंचलों के बीच भी अपार सौंदर्य का प्रतीक प्रतीत होती थी। उसके एक एक अंदाज़ पर करोड़ो लोग जान छिड़का करते थे। अफ़्सोंस तुम्हारी वह महबूबा आज़ादी के जश्न के साथ तुमसे हमेशा के लिए विदा हो गई। फिर भी आओ उस मेहबूब पत्रकारिता के जन्म दिन पर दो घडी बैठ कर अपने दर्देदिल के साथ इस तंग दायरे में याद तो कर ले और प्रार्थना करे कि उसी गरीब किन्तु निर्भीक निष्पक्ष महबूब पत्रकारिता का हमारे बीच पुनर्जन्म हो।उसकी आत्मा अमर है। (पत्रकारिता दिवस पर शुभकामनाओं के साथ)

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अतीत के अक्षर....!
ज़िंदगी भर न भूलेगी वह सुहानी तारीख 17 दिसंबर 2017 अतीत में अपने नादान नन्हें -नटखट बच्चों के सामने अपनी फटी झोली से एक-एक अक्षर बिखरा कर खेलने के लिए कहा था मगर उन्होने अपनी लगन, मेहनत और मोहब्बत से एक ऐसी सुंदर आकृति स्थापित कर दी कि जैसे झाझा (बिहार) की  चट्टानों पर किसी उमर ख़ैयाम ने बेशकीमती रुबाईया लिख दीं हों । अतीत मे बिखेरे गए अक्षरों से खेलते-खेलते उम्रदराजी की दहलीज़ पर कदम रखते ही झाझा रेलवे स्कूल के बच्चों ने तालीम की टकसाल से ऐसी  नायाब अशर्फ़ियाँ  निकाली कि जाते-जाते वर्ष 2017 कुछ देर के लिए ठहर सा गया। इतिहास के पन्ने फड़फड़ाते हुए ब-आवाज़े बुलंद  " गुरु-शिष्य मिलन समारोह" के गीत गुनगुनाने लगे। अदब और आदाब  की झील में मचलती लहरें जैसे नापाक जलकुंभियों को हटाते हुए बरबस 'बच्चन' की 'मधुशाला' की हाला  का रूप रख कर सुना रहीं थीं, 'बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, प्रेम बढाती मधुशाला' । जैसे चारों ओर से ऊंची-नीची ।पहाड़ियों के आगोश मे सिमट गई रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियाँ अपनी दिलकश महक से देश-विदेश से आए तालिबे-इल्म अपनी मुक़द्दस माटी और अपने रहनुमाओं के सम्मान मे पलक-पांवड़े बिछाने के लिए बेक़रार हुए जारहे थे । सचमुच वह कभी न भूलने वाले क्षण थे । मैने उन्हे अक्षर जरूर दिये मगर उन्होने उन बिखरे हुए अक्षरों को जोड़कर इतना अजीमुश्शान महल खड़ा कर दिया जिस पर गुरुजनों को तो गर्व  होना स्वाभाविक है ही साथ ही झाझा वासियों को भी जिनके दिलों में आज भी इस   ऊहापोह युग में  गंगा-जमुनी तहज़ीब की निर्मल धारा प्रवाहित हो रही है। कौन जानता था  कि अतीत के वे शब्द कभी वाक्य ही नहीं महावाक्य बन कर "गुरु-शिष्य परंपरा" को जीवंत बना देंगे।  इस अवसर पर अपने पूर्ववर्ती  छात्र-छात्राओं को विशेष आशीर्वाद और अपनी टीम के प्रति आभार न व्यक्त करना ग़ैर-इंसाफ़ी होगी। 
संपर्क सूत्र :- 9415121202
मेल आई०डी० :- singhsudama@gmail.com.

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आत्मावलोकन..!
साहिबगंज के जिस रेलवे स्कूल के अनुशासन का सेहरा मेरे सिर पर रखा जा रहा है, वास्तव में मेरी अंतरात्मा उसे कबूल नही कर रही है। वैसे स्कूल की स्थापना 1868 में हुई थी एक प्राइमरी स्कूल के रूप में। जब हाईस्कूल बना तो अब्दुल सलाम साहब पहले हेड मास्टर बने। उनके रिटायर होने के बाद श्री जे एन त्यागी मुग़लसराय से प्रोमोशन पाकर यहां हेडमास्टर बने। आदरणीय त्यागी जी  जब मुग़लसराय रेलवे इंटर कॉलेज में जीव विज्ञान के प्रवक्ता थे तब मैं वहां प्राइमरी टीचर था। श्री त्यागी जी वहां एन सी सी अफसर भी थे। नाटकों के कारण मुझे प्रसिद्धि मिलने में देर नही लगी। जब उन्होंने सहिबगज के पद को सम्हाला तो उसी समय स्कूल का शताब्दी वर्ष पूरा हो रहा था। स्कूल में प्रशाल और पुस्तकालय के साथ जीव विज्ञान कक्ष की स्थापना उन्ही के समय मे हुई थी। उनके अनुशासन की लोग काफी तारीफ करते थे।पर्सनालिटी भी ईश्वर ने अच्छी दे रखी थी। उन्ही के समय मे स्कूल में एन सीसी ( जूनियर डिवीजन) लाई गई जिसके पहले अफसर जॉन अग्रवाल बनाये गए। बाद में श्री एल बी चौधरी (अब सेवानिवृत) जीव विज्ञान शिक्षक को कमान दी गई। बहुत दिनों तक त्यागी जी के प्रशासन की चर्चा होती रही। उनके बाद श्री बी पी मेहता ने हेडमास्टर का कार्यभार संभाला। यद्यपि उनके प्रयास से स्कूल इंटरमीडिएट में तब्दील किया गया। वह भी मुग़लसराय में अंग्रेज़ी प्रवक्ता रह चुके थे। तब मेरी कार्य शैली को देख कर रेल प्रशासन ने मेरा प्रोमोशन हेड मास्टर के पद पर करके मुझे झाझा भेज दिया था। इसकी एकमात्र वजह मेरी कार्य शैली, सांस्कृतिक कार्यक्रमो में रुचि के कारण रेलमंत्री प कमलापति त्रिपाठी और सांसद श्याम लाल यादव से निकटता भी थी क्योंकि उनके प्रत्येक कार्यक्रमो का संचालन का उत्तरदायित्व मुझे दिया जाता था। उस बीच बहुतों ने संचालन का प्रयास किया किन्तु वही होता है जो मंजूरे ख़ुदा होता है। हा तो सहिबगज की बात कर रहा था। जिस तमन्ना से श्री त्यागी जी ने प्रशाल बनवाया था  वह उनके जाने के बाद बेहाल हो कर आठ आठ आंसू रोने लगा। कबाड़ घर बना दिया गया। यह तो मैं भूल गया था कि त्यागी जी ने एक फ़िल्म प्रोजेक्टर मंगवाया था जिस पर हर महीने छात्रों को फ़िल्म दिखाई जाती थी। मेहता साहब के बाद श्री भट्टाचार्य आसनसोल से  प्रिंसिपल के रूप में आये। उन्हें भी सांस्कृतिक क्रियाकलापो में कोई रुचि नही दिखी। इंटरमीडिएट होने के बाद स्कूल दो भागों में बंट गया  मिडिल स्कूल सुबह की पाली में और क्लास 9 से 12 तक दिन की पाली में चलाया जाने लगा। तभी रेलवे हायर स्कूल आसनसोल से तबादला साहबगंज और भट्टाचार्यजी का आसनसोल कर दिया गया। मेरी एक अच्छी या बुरी आदत कहिये मैं जहां जाता था वहां चार्ज लेने देने के बाद पूर्व प्रधानाध्यापकों की कार्य शैली जानने की कोशिश करता फिर कालोनी में रहने वाले बच्चों  के आवास पर बिना बताए पहुंच कर परिवार से संपर्क करता अपने चैम्बर में बहुत कम बैठता। क्लास क्लास घूमता रहता। यदि क्लास में किसी कारण से शिक्षक को जाने में देर हो जाती तो स्वयम पढ़ाने लगता। साइंस के क्लास में दिक़्क़त होती तो ग्रामर पढ़ाने लगता।  शिक्षक से बड़ी मधुर वाणी में समझाता कि कोई बात नही। आखिर मेरा भी तो अभ्यास बना रहना चाहिए। सीधी सी बात की कमांडर को ही नही मालूम कि राइफल्स के कितने पार्ट होते है तो सैनिक से क्या आशा की जा सकती है। तो मैंने खाली समय में पूरी बिल्डिंग का जायजा लिया। फिर रेलवे बिजली घर, आई ओ डब्लू आदि से संपर्क करना शुरू  कर दिया। सबसे पहले प्रशाल की साफ सफाई की व्यवस्था की । पुस्तकालय को मीटिंग रूम बनाया। रेल प्रशासन और स्थानीय प्रशासन का मैं बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे उत्साह को देख कर पूरा सहयोग किया। स्कूल का समय दिन के 11 बजे से शाम 04.30 तक था लेकिन एक घंटे पहले पहुंच कर हर रूम की सफाई व्यवस्था और बिजली पंखा देखता। उस समय मोबाइल तो था नही। कही गड़बड़ी देखते ही फोन करने लगता। एक बार तो एक दो क्लास का पंखा नही बना तो मैंने भी अपने ऑफिस का पंखा बंद रखा । मैंने कई सांस्कृतिक  कार्यक्रम प्रशाल में कराया। बहुत सफल रहा जबकि लोग कहते थे कि बाहर से लड़के प्रशाल की छत पर ढेले चलाते हैं। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अधिक तो लोग मेरी कार्य शैली के बारे में जानते ही है।उस समय के छात्र भी जानते है। रेल प्रशासन मालदा का आभारी हूँ कि मेरे पद ग्रुप ए केअनुरूप मेटल पास और सैलून मुहैय्या कराया। संभवतः पूर्व रेलवे का मैं ऐसा खुशनसीब प्रिंसिपल था जिसे मेटल पास और सैलून मिला था। एक बार त्यागीजी सेवानिवृत के बाद सहिबगज आये थे तो  आश्चर्यचकित हो गए ये सब सुविधाये देखकर। मैंने दिखाया कि हर रूम में स्पीकर लगे थे। जी के मैं अपने चैम्बर से पढ़ाता था। सभी शिक्षकों को मना कर दिया गया था कि वे जी के  प्रसारण के समय क्लास में नही रहेंगे। बच्चे शान्त भाव से सुन रहे थे और नॉट बुक पर लिख रहे थे। वह सिर्फ एक प्रयोग था। कहा गया न खाली दिमाग शैतान का घर। मैंने कोई अजूबा काम नही किया बल्कि बने बनाये घर को थोड़ा सजाने की कोशिश की। पद की प्रतिष्ठा को कायम रखने का प्रयास किया। इसके लिये अभिभावकों के साथ नगर वासियो का भी खूब सहयोग मिला। कदम बढ़ाइए मंज़िल क़दमो में होगी।

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कांटो में सौंदर्य..!
किसी ने ठीक ही कहा था, " पाप से घृणा करो, किन्तु पापी से नही "। मुग़लसराय ( प० दीन दयाल नगर )  का एक अजीबो-गरीब अनुभव बताने को भूल गया था। बात 1966 या 67 की होगी । पहले बता चुका हूं कि उस समय मेरी पोस्टिंग मुग़लसराय में ही थी। निवास सेंट्रल कालोनी में था। सेन्ट्रल कालोनी के पीछे ही कालोनी से लगा अमोघपुर गांव है। यहाँ यह भी बताना उचित समझता हूं कि उसी सेंट्रल कालोनी के बीच उत्तर दिशा में कभी कूढ़ कला (कूढ़े) गांव हुआ करता था जहां स्व लाल बहादुर शास्त्री का जन्म हुआ था। मेरा दुर्भाग्य ही रहा कि शास्त्रीजी और प० दीन दयाल जी के आकस्मिक निधन के समय मेरी पोस्टिंग मुग़लसराय में ही थी।
छोड़िये, मूल घटना और मेरे अनुभव को शेयर कीजिये। वह गांव अमोघपुर उस ज़माने में रेल और पुलिस के लिए निहायत सिरदर्दबना हुआ था। यह तो सभी जानते हैं कि जब स्टीम इंजन चलते थे तो मुग़लसराय यार्ड कोयला चोरी का बड़ा केन्द्र बना हुआ था साथ ही वैगन ब्रेकर्स का बड़ा अड्डा था। अमोघपुर  में लगभग साठ प्रतिशत लोग इसी लिए बदनाम थे। आये दिन जी०आर०पी० और आर०पी० एफ० के छापे पड़ा करते थे। सब के बावजूद वे लोग रामनवमी का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाते थे। कभी सुप्रसिद्ध लोक गायक बुल्लू और हीरा के बिरहा का कार्यक्रम तो कभी चैता हुआ करता था। एक वर्ष न जाने कहाँ से उनमें बुद्धि जागी कि नाटक खेलने की जिद्द पर आमादा हो गए। कहना अतिश्योक्ति न होगी कि उस समय मुझे शिक्षक कम, नटकिया मास्टर के नाम से ज्यादा लोग जानते थे।  रामनवमी के पहले वे बदनाम बेचारे गुट बना कर मेरे निवास पर आ धमके। इसे मेरा व्यवहार कहिये या नटराज की कृपा वे लोग मेरे प्रति बहुत आदर भाव रखते थे। अपना प्रस्ताव उन लोगो ने बड़ी विनम्रता से रखा। मैंने उन लोगो को बहुत टालने की कोशिश की पर वे अपनी जिद पर अड़े रहे। अंत मे मैंने कहा कि मुझे सोचने-समझने का समय दीजिये। उनके जाने के बाद मैं चिंतन में डूब गया। अपने एक दो रंगमंचीय साथियों से भी मशविरा किया लेकिन बदनामी की वजह से कोई सकारात्मक जवाब देने के बदले मुझे पुलिस का भय दिखा कर मना कर दिया। असमंजस में पड़ा मैं भी सोचने लगा कि हाँ करता हूँ तो लोग उनका मास्टर माइंड कहेंगे और अगर नही करता हूँ तो इनके आक्रोश का शिकार हो सकता हूँ। अंत मे फैसला अपनी अंतरात्मा पर छोड़ दिया।
दो दिनों बाद मेरा निर्णय जानने के लिए फिर आ गए। न जाने किस अदृश्य शक्ति ने मेरा मनोबल बढ़ा दिया। मैंने तुरंत बड़ी बेबाकी से "हाँ"कर दिया। किन्तु तीन शर्ते रखीं🏛️ 
1- नाटक का अभ्यास पंचायत भवन में ठीक शाम को सात बजे से। समय पर आना है।
2- रिहर्सल के दौरान किसी के मुंह से कोई दुर्गंध नही।
3- नाटक के पात्रों को सभी संवाद एक्शन के साथ कंठस्थ होना चाहिए।
सभी पर वे सहर्ष तैयार हो गए। दूसरे दिनसे अभ्यास  नियमानुसार शुरू हुआ।उनका अनुशासन देख कर मैं हैरत में पड़ गया क्योंकि समर्पित कलाकारों के लिए भी निर्देशकों का यही रोना देखता रहा हूँ कि वे समय का ध्यान नही रखते है।
इधर सुरक्षा बलो के अधिकारियों से भी मिल कर अपने प्रयोग को बताते हुए सहयोग की अपील करता रहा। मुझे विश्वास था कि नाटक के मंचन के बाद उन सब का हृदय परिवर्तन होगा। उनके क्रिया कलाप से मेरा भी मनोबल बढ़ने लगा यद्द्यपि नगर के कलाकारों ने मेरा मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया। नाटक स्वलिखित था "चंबल का पागल"।
अंत मे रामनवमी के एक दिन पूर्व मंचन किया गया। कौतूहल वश भीड़ इकट्ठा हुईं और अधिकारी भी आये। मुझे स्वयम आश्चर्य हुआ देख कर उनकी छुपी हुई प्रतिभा । सबने उनकी भूरि-भूरि प्रसंशा की।
एक अलौकिक आनंद मिला। उन नवोदित और बदनाम बस्ती में रहने वाले लोगो से बहुत कुछ सीखने को मिला।
अंत मे एक बैठक में उनसे पूछा तो पता चला की उन पर कई कई फर्जी केस पुलिस ने लगा रखा है। कभी सुधरना भी चाहा लेकिन पुलिस सुधरने नही देती है। कही भी केस होता है लेकिन सीधे घर खुदा का जान कर हमे नामज़द करके नेकनामी हासिल करती है। एक कटु अनुभव हुआ कि बुराई को भलाई में बदला भी जा सकता है। बशर्ते हमारा इरादा निष्पक्ष और नेक हो। 

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झमकोइया लूटे बाज़ार..! मैं अपना कुसूर क़बूल करता हूँ कि हमेशा आप सबको ट्रेजडी किंग दिलीप की तरह ग़मगीन करता रहा कभी हँसाने के लिए महमूद और जॉनी वाकर के बीच न ही ले गया। वैसे अपने असली जीवन मे रोनी सूरत बना कर सुनाता रहा ,"जाने वह कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला, हमने तो कलियां मांगी कांटो का हार मिला।" पर चिंतन की चौड़ी सड़क पर चहलकदमी करते हुए याद आया कि गुल से खार अच्छे है जो दामन थाम लेते हैं। प्लीज् डोंट बी सीरियस। आइए आप को ले चलते है कौमी एकज़हती की गवाह बनी झाझा की पहाड़ियों के उस पार जहां मैंने बहुत कुछ सीखा। रंगमंच से लेकर क्लासरूम तक।उस समय मेरे हाई स्कूल से कुछ दूर पर रेलवे का मिडिल स्कूल था।वहां के हेडमास्टर थे श्री सी आर पी शर्मा। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी और व्यवहारकुशलता में अग्रणी। उनकी पहचान थी बागबानी और कहीं दावत में भोजन। उनके खाने के पहले अगर कोई बगलगीर उठ गया तो तो समझ लीजिए उसकी शामत आगई।इसी तरह अगर उनके बगीचे का एक भी फूल टूटा तो सारा गुस्सा चपरासी या सफाई कर्मी पर फूट पड़ता। पूजा के लिए बहुत गिड़गिडारते मगर क्या मजाल उनका दिल पसीज जाता। बात अब उनके भोजन की करते हैं। किसी दावत में कम से कम 160 पूरियां उनके लिए मज़ाक था बशर्ते पानी का गिलास उनके सामने न रखा हो। परोसने वाले भी खूब ट्रेंड होते थे। एक एक पूरी खिलाते खिलाते तो कभी 160 के पार हो जाते थे। सब्ज़ी है तो ठीक है वरना एक पाव या आधा किलो चीनी उनके सामने हो। गुड़ हो तो सोने में सुहागा। मगर खाने के दौरान एक क़तरा पानी का नहीं। डकार लेते तो मैने कभी देखा नही। एक बार की घटना है मेरा परिवार था नही। मुझे खाने की उतनी चिंता नही रहती थी। कभी कालोनी में घूम कर बच्चों की जानकारी लेना और कभी नाटक के रिहर्सल का चक्कर। उस दिन मैंने दो रोटी सेंक ली। दूध आधा किलो रखा था। सोंचा रात में दूध रोटी खा लूंगा। उसी शाम बाबू बैजनाथ सिंह, सक्सेना साहब, स्व महेंद्र सिंह और दो चार लोगो का दल आ धमका. शर्मा जी तो दूल्हा ही थे। घूमने का प्रोग्राम बना। सब लोग निकल पड़े। बुकिंग ऑफिस के पास ही मिठाई चाय पकौड़े का होटल था। दुकान मालिक थे राज वल्लभ शर्मा। जलेबी छन रही थी और मोतीचूर के लड्डुओं से थाल भरा था। सब बेंच पर बैठ गए। शर्मा जी की मान मनौवल करने लगे। शर्माजी ने कहा तुम लोग खिलाओ गे नही बस ललचा रहे हों। चैलेंज था। हम लोगों ने दो दो चार चार पीस खा कर बिस्मिल्लाह कर दिया। फिर तो शर्मा जी ने पूरी थाल लड्डुओं की सफाचट करने के बाद जलेबियों को ललचाई नज़र से देखा। हैम लोग संमझ गए। उनको खिलाने के ढंग बैजनाथ बाबू को खूब आता था। नौकर ने पानी से भरा जग और गिलास ला कर रखा ही था कि उसे फटकार सुनने को मिली। हाँ वह दुकान राज वल्लभ शर्मा की थी। वे भी शर्मा जी की आदतों से वाकिफ थे। फिर हमारा दल यक्ष राज स्थान का चक्कर लगाते हुए आगे हाईस्कूल से तालाब के किनारे किनारे वापस होने लगे।बीच मे हमारे छात्र रवींद्र केशरी के पिता जी की मिठाई की दुकान थी चाशनी में पड़े रसगुल्लों को देख कर शर्मा जी ठिठके।हमलोग उनका मंतव्य संमझ गए। जम गई पार्टी वहीं। मिठाई के सभी दुकानदार शर्मा जी की कला को खूब समझते थे। रसगुल्ले का दौर चला। एक दो हम लोगो ने खाये बाकी करीब40 शर्मा जी के जिम्मे रहा। पानी की अब तक एक बूंद नही। न कोई डकार। रविन्द्र अबतो बड़ा हो गया और रेल विभाग में कर्मचारी है पर वही सीधा साधा स्वभाव पाया है जो उस्के पिताजी और दादा जी का था। अब काफिला वहां से रवाना हुआ। पहले चांदमारी मैदान के पास मेरा आवास था। वहां महफ़िल जमी । शर्मा जी ने मेरे मुंह लटकाने का मतलब पूछा। मैंने उन्हें बताया कि मेरे दूध और रोटी का क्या होगा? शर्माजी ने तपाक से जवाब दिया," अरे में किस मर्ज का इलाज हूँ? लाइये आपकी समस्या अभी हल किये देता हूँ। मैं अंदर से दूध और रोटी ले आया। शर्माजी ने रोटियों को आधा किलो दूध मे मिलाया और देखते देखते सफा चट करगये।ऊपर एक पाव गुड़ भी। मगर पानी के नाम पर कहते, पानी रे पानी तेरा रंग कैसा? डकार तो अभी भी नही। लोग शायद यकीन नही करेंगे पर पुराने लोग जानते होंगे। दो लोग अभी भी गवाह है एक तो रविन्द्र केशरी और दूसरे कपिल साह चर्घरा वाले।एक और है बाबू बैजनाथ सिंह जो अब मोकामा में रहते है। ऐसी अलौकिक यादे आज भी मेरे जेहन में बसती है।उन्हें याद कर के आज भी हँस लेता हूँ।

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अनुभव और अभिनय..! 
यह तो सभी जानते है कि अपनी भूमिका निभाने के लिए एक कलाकार को कितना होमवर्क करना होता है..? उन दिनों मेरी पोस्टिंग उस समय के मुग़लसराय यानी आजके प० दीन दयाल नगर के सेंट्रल कालोनी स्थित ए टी पी स्कूल में थी। रेल कर्मचारियों के बच्चों के लिए ऐसे प्राइमरी स्कूल स्व जगजीवन राम ( तत्कालीन रेलमंत्री) की योजना अनुसार खोले गए थे जो देश भर में विभिन्न रेल कालोनियों में खोले गए थे जिनका संचालन रेलवे के कल्याण विभाग के जिम्मे था। एक बड़ा सा हालनुमा भवन जिसकी छत एस्बेस्टस शीट की होती थी। एक शिक्षक और पांच क्लास। शिक्षक ही चपरासी, सफाईकर्मी और घंटी बजाने वाला होता था। जी कोडरमा के बाद मेरी दूसरी पोस्टिंग यही हुई थी। मुझसे पहले के शिक्षक का ट्रांसफर हो गया था।जब मैंने उनसे चार्ज लिया तो सिर्फ एक अदद कुर्सी मेज़ और लगभग 50 छात्र छात्राएं ही मिले। रजिस्टर के नाम पर एक फटा पुराना रजिस्टर और पुरानी फटी कथरी ही मिली। कथरी का राज़ जानना चाहा तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि कोई मेहमान आ जाता है तो स्कुलवे में सुता देता हूँ। पहले तो बहुत पश्चाताप हुआ कि कहां आकर फंस गया पर नौकरी का भी सवाल था। दोपहर में चरवाहों का मजमा लग जाता था।
खैर, किसी अदृश्य शक्ति ने मेरा मनोबल बढ़ाया। अभिनय काम आया। यह तो बताना मैं भूल ही गया कि स्कूल की फर्श कच्ची थी जिसे प्रत्येक शनिवार को बच्चे गोबर से लिपाई करते थे। न जाने क्यों मुझे उन नन्हे मुन्ने बच्चों का यह काम पसन्द नही आया। सोचने लगा अपने बच्चों को तो खूब साफ सुथरा रखना चाहता हु तो ये भी तो किसी के बच्चे है। अधिकारियों को पक्की फर्श और बाथरूम बनवाने के लिए खूब लिखता रहा, मिलता भी रहा। अधिकारियों नेअपने स्तर से सहयोग भी किया। स्कूल मेन रोड के किनारे था इसलिए बाहर दीवार पर एक सीमेंटेड बोर्ड बनवाया जिस पर आज की बात के अंतर्गत नित्य नए नए विचार लिखता रहा। मार्ग से गुजरनेवाले रुक कर पढ़ने में रुचि लेने लगे। धीरे धीरे  चरवाहों का जमावड़ा भी कम होने लगा। अब प्रश्न था कि शिक्षक अकेला मैं और कक्षाएं एक से  पांच तक। रूम भी एक। गर्मी में बैठा नही जाता था। छत एस्बेस्टस की होने के कारण तपा करती थी। बारिश में सड़क के राहगीर भी भींगने से बचने के लिए आ जाते थे। पास में ही ग्राम अमोघपुर था जो काफी चर्चित था।

लेकिन जहाँ चाह है राह मिल ही जाती है। उस समय मेरी आर०एस०एस०, एन०सी०सी० और स्काउटिंग के प्रशिक्षण काम आए। मैंने एक प्रयोग करने की ठानी। हालांकि कुछ लोगो ने मेरा मज़ाक उड़ाया। मैंने प्रत्येक क्लास से तेज़ तर्रार बच्चों को चुना और उन्हें स्कूल के बाद अपने ढंग से ट्रेनिग देने लगा। उन्ही में से दल नायक और टोली नायक चुने। प्रोमोशन पा कर उनका मनोबल काफी बढ़ गया। उन्हें राष्ट्र गान तक नही सिखाया गया था। छात्राओं की टोली का नाम रानी लक्ष्मी बाई टोली, छात्रों की टोलियों के नाम वीर शहीदों के नाम पर रखा। अंदर ही सावधान विश्राम का प्रशिक्षण देना शुरू किया। एक दिन जब यह टोली वाइज बाहर मैदान में निकाला तो लोग आश्चर्य में पड़ गए। हर टोली गिनती कर के अपने टोली नायक को रिपोर्ट करता। टोली नायक दल नायक को रिपार्ट करता। दल नायक सब जोड़ कर और सावधान के साथ हिलो मत कह कर मुझे रिपोर्ट करता। मैं हर टोली के साथ अलग अलग बैठने को कहता और वही टोली नायक उन्हें अलग अलग कक्षाओं को पढ़ाते। उसके पूर्व राष्ट्र गान होता। वह समय नागरिक सुरक्षा का भी था। छुट्टी होने के समय भी वही प्रक्रिया। घर वापस जाते समय कभी कभी मैं रिहर्सल के लिए सीटी बज देता। बस जो बच्चा जहां होता वही बमबारी से बचने के लिए लेट जाता या पोजिशन ले लेता। मेरा प्रयोग सफल हुआ। फिर सभी कालोनी के शिक्षकों ने निर्णय लिया कि परीक्षाएं एक साथ  होंगी और प्रश्नपत्र एक होंगे। कापियां दूसरे स्कूल के शिक्षक जांचेंगे। फिर तो अधिकारी भी उत्साहित होने लगे। फर्श भी पक्की हो गई और बाथरूम भी बना दिये गए। प्रवेश के लिए अधिकारियों तक के बच्चे आने लगे। मुझे सीख मिली कि छात्र छात्राओं में प्रतिभाओ की कमी नही होती है। शिक्षक या शिक्षिकाओं को त्याग करने की जरूरत होती है और चाइल्ड साइक्लोजी पर ध्यान देना होता है।  बच्चे बड़ों की अपेक्षा जल्दी सीखते हैं। टीचर को किसी कुशल अभिनेता की तरह होम वर्क करना पड़ता है।

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कन्हैया धाम में एक शाम..!
वर्ष तो ठीक से याद नही पर कोई पांच-छह वर्षो पहले की बात है। डॉ राम जन्म मिश्र की प्रगति वार्ता और विक्रमशिला विद्द्यापीठ के तत्वावधान में साहबगंज जिले के ‘कन्हैय्या धाम’ में एक भव्य साहित्यिक आयोजन किया गया था। देश विदेश से प्रसिद्ध साहित्यकार पधारे थे। इस नाचीज़ को भी आमंत्रित किया गया था। रमणीक स्थल। कलकल ध्वनि करती हुई परम पवित्र गंगा की धारा बरबस मन मोह रही थी। लोगो ने बताया यहीं पर चैतन्य महाप्रभु को कृष्ण के बाल रूप का दर्शन हुए था। इसी शिला पर वनफूल अपनी लेखनी से खेला करते थे। शब्दों में मुझ जैसा छात्र रचनाकार असमर्थ है वहां की शोभा का वर्णन करने के लिए।फिर भी वहां कुलपति जी एवम प्रगति वार्ता के संयुक्त निर्णय से मुझे “भाषा रत्न”एवम “पत्रकारिता शिरोमणि” से अभिनंदित किया गया यद्द्यपि मैं उन मूर्धन्य साहित्यकारों के बीच अपने को पिछली बेंच पर बैठने वाला एक अधकचरा रचनाकार ही संमझ रहा था। वैसे भी मैं किसी ऐसे समारोह में पीछे की पंक्ति में बैठना पसंद करता हूँ। कार्यक्रम शुरू होते ही मैं साहित्य चर्चा पर कम और चारो ओर के वातावरण पर एक पत्रकार की तरह अधिक ध्यान दे रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ देख कर कि मंच को ओर मात्र दो चार होम गार्ड के जवान तैनात थे जबकि पीछे की ओर करीब एक दर्जन से अधिक ग्रामीण वेशभूषा में निडरता पूर्वक लोग टहल रहे थे। उनके बारे में और बेचारे उन होम गार्डो के बारे में चिंतन करने लगा। उनमें से एक ग्रामीण आदिवासी खैनी मलते हुए दिखा। मुझे मौका मिल गया। मैं धीरे से उठा और उन आदिवासियों की तरफ खैनी के लोभ मे बढ़ गया। मेरा उधर जाना देखकर आपस मे कनफुन्सी करने लगे। तबतक मैं उन लोगो के करीब पहुंच कर खैनी की मांग कर डाली। जो भी हो खैनी में अपनत्व बहुत होता है। बातचीत करते करते अपनी जिज्ञासा प्रकट कर दी कि आपलोग इस वेशभूषा में और उधर खाकी , वह भी सिर्फ दो चार। उनमें से एक हंसते हुए बोला बाबू उ सब सरकारी और हम सब गैर सरकारी। हम को तो खुशी है कि जो प्रोग्राम बड़का बड़का शहर में होखे के चाही उसे आप लोग इस निर्जन में कर रहे हैं। आप लोगन के कौनु तकलीफ नाही होखे के चाही। मैं मुस्कुराता रहा। उसी में से मुझे कोने में झाड़ी के पीछे ले जाकर कमर से कट्टा निकालते हुए बोला सर हम लोग ही नक्सलाइट कहलाते है। लोग हमें जितना बदनाम करें मगर बाबू हमारी मांग है कि अच्छी सड़के और विकास के नाम पर करोड़ो रूपये सिर्फ बड़े शहरों के लिए ही खर्च किये जा सकते है? भोटवा तो है लोग भी देते है। पर आप जिस सड़क से आये है उनकी दशा देख कर आप लोग खुद सोंचे। अब हमारे नाम से दूसरे गुंडा गर्दी या खून खराबा करे तो हम क्या करे।मैं उनकी बात पर रातभर चिंतन करता रहा मगर परिणाम तक नही पहुंच सका। वापसी में डी आर एम की गाड़ी में स्टेशन तक आया। सचमुच कभी कभी तो सिर फूटने से बचा। डी आर एम साहब तो मालदा चले गए और मैं एक पैसेंजर ट्रेन से सहिबगज आगया। मगर इनकी उनकी बातें सोंचता रहा।


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यादें बांटना चाहता हूँ...!
यादें ज़िंदगी की एक हक़ीक़त है। कुछ यादें भुला दी जाती हैं और कुछ ताउम्र याद रहती हैं। यही तो है इंसानी ज़िंदगी की फितरत।  एक लंबा सफर है ज़िंदगी का। कुछ लोग अपनी बेशकीमती यादों को बिना बांटे दुनिया से रुखसत हो जाते हैं और कुछ अपने जीते जी दूसरों को बाँट कर अपना फर्ज़ पूरा करते हैं। जैसे कुछ लोग दूसरों के लिए अपना अंगदान दे कर उन्हे नया जीवन देते हैं, वहीं दूसरी ओर माया-मोह मे फंस कर अपने अच्छे-भले अंगो को श्मशान की जलती चिताओं के हवाले कर देते हैं। ख्याल अपना-अपना, नज़र अपनी-अपनी। यादो के झरोखे से अगर झाँक कर देखा जाय तो ज़िंदगी के पर्दे पर कभी खुशी कभी गम की सीन देखी जा सकती है या कह सकते हैं कि ज़िंदगी कुछ भी नहीं तेरी-मेरी कहानी है जिसे सुनने और सुनाने में ही मज़ा आता है। खुदारा यह क़तई न समझें कि मैं अपनी यादों की रिमिक्स पेश कर के अपनी काबिलियत का परचम लहराना चाहता हूँ। मेरा मक़सद सिर्फ इतना है कि शायद मेरी यादें मेरे यारों की ज़िंदगी के किसी कोने में कहीं काम आ जाएँ। क्योकि बहुत सी बातें सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान से हासिल नहीं की जा सकती है, चाहिए उसके लिए दूसरों के अनुभवों का लाभ उठाना । इसे इसी नजरिये से अगर पढ़ा जाए और मेरे जैसे नाचीज़ लोगों के ‘अहं’ को नजरंदाज़ कर दिया जाए तो मैं समझता हूँ कि जीवन में कहीं न कहीं इनका उपयोग किया जा सकता है । सबसे पहले मैं शुक्रगुज़ार हूँ अपने मोहल्ले (लखनउ) के उस पागल का जिसने सबसे पहले मुझे ‘गुरुजी’ का नाम दिया। उस वक्त मेरी उम्र सिर्फ सात-आठ साल की रही होगी और उसकी आयु लगभग चालीस साल की। उसने मुझमें न जाने क्या पाया क्या देखा कि उसने मुझे गुरुजी का खिताब दे डाला । यही नहीं यह जान कर लोगों को ज़रूर हैरत होगी कि भीषण रूप से पागल मंगरु भले दूसरों को देख कर गाली-गलौज करता रहा हो लेकिन मुझे देख कर बिलकुल शांत हो कर चरण स्पर्श करने झुक जाता था। अब मुझे पूर्व जन्म के सम्बंध का तो पता नहीं है किन्तु लोग यही मानते थे कि ज़रूर उसके साथ मेरा पूर्व जन्म का कोई रिश्ता रहा होगा। आज जब मुझे मुझसे बड़े लोग गुरुजी के नाम से संबोधित करते हैं तो मुझे उसकी याद आ जाती है। शर्म तो ज़रूर महसूस करता हूँ मेरे जैसे अदना इंसान को जिसे अध्यात्म का कोई ज्ञान नहीं, उसे लोग आदर के साथ गुरुजी कहें । यह शायद उसी पागल मंगरु की भविष्यवाणी रही होगी जो मैंने आगे चल कर शिक्षा-जगत से जुड़ कर सच्चे अर्थों में गुरुजी बनने का अथक प्रयास किया।

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मीरसाहब का मुर्ग़ा..!
अपने लाजवाब दोस्त या कहिए " एक जान दो बदन " मीर साहब का शौक भी अजीब है। मुर्ग़े पालने और लड़ाने के बेहद शौकीन। इस बे-इंतहा शौक के लिए अक्सर बेग़म और बच्चों से उनकी झड़प भी हो जाया करती है मगर भई शौक तो शौक, फिर अपने धुन के पक्के मीरसाहब। उनका बस एक ही फलसफ़ा रहा है कि चाहे कोई खुश हो या गालियां हज़ार दे मगर मस्तराम बन के ज़िंदगी गुज़ार दे। आज कल के सियासतदानों की तरह वह किसी की बिना फिक्र किए भरी दोपहरिया में बगल लाडले मुर्ग़े मियां को दबाये मोहल्ले के बाहर किसी बाग़ीचे के घने पेड़ के नीचे बैठ जाते हैं। बड़े प्यार से उसे सहलाते हुए दाने चुगाते दिखते हैं। कभी-कभी वहीं रमफेरवा तमाशा देखने पहुँच जाता है और मीरसाहब के दो-चार पिछलग्गू भी चमचागीरी में उनके दादा मरहूम की बहादुरी के किस्से सुनाने स्टेपनी बने पहुँच जाते हैं जैसे आजकल किसी कद्दावर नेता के मुंह से टपकते लार को चाटने के लिए कुछ लोग हाजिर होने में अपना फख्र समझते हैं। सब अपने-अपने लहजे में जनाब मीर साहब
के मुर्गे की तारीफ मे कसीदे पढ़ना शुरू कर देते हैं। सुनते-सुनते आखिर मीरसाहब झुँझला उठते हैं, "अमां क्या बे-वक़्त शहनाई बजाय चले जा रहे हो? चमचों की खनक भी ऐसी होनी चाहिए की भली लगे। जानते नहीं कि इस मुर्ग़े मियां को मैंने कितने दुलार-प्यार से पोसा है। मुर्ग़े लड़ाने का क़तई शौक नहीं है और न तो मुझे खून-खराबा क़तई पसंद है। मुझे तो अल्ल-सुबह इसका बाग़ देना ज्यादा पसंद था जिससे फ़ज़ीर की नमाज़ के लिए मुहल्ले के सारे नमाज़ियों की नींद अपने आप टूट जाया करती थी और सुबह-सुबह नौकरी पर जाने वाले भी जाग जाया करते थे। पर न जाने किस कमबख्त की नज़र लगी कि यह एकदम चुप हो गया। यह तो शहर के सभी मुहल्लों के मुर्ग़े खामोश हो गए। एक चमचा धीरे से खनकते हुए कहता है, " हुज़ूर मुर्ग़े भी समझ गए कि अब मशीनी आवाज़ के सामने उनके गले फाड़ने से क्या फायदा? हर तरफ तो मशीनी-भोंपू चिल्लाते हैं। इतने में कहीं से रामबोला आते हुए बोलता है, " भाई हमसे आप से ये जानवर कहीं ज्यादा समझदार होते है, आज का
इंसान तो अपनी अकड़ में रहता है। आप का अज़ीज़ मुर्ग़ा भी समझता है कि इस नक्कारखाने में उसकी आवाज़ कौन सुनने वाला है? " इतने में इस स्मार्ट इंडिया का स्मार्ट मुर्ग़ा पैरों में बंधी रस्सी तुड़ा कर भागते हुए पास में चरा रही रमफेरवा की माई के गाय की पीठ पर जा बैठता है। बस सीन ही बदल गया। यह देख कर पास खड़े रमफेरवा ने आग में घी डालने का काम किया। माई से "राम- राम " करते हुए कहने लगा। बस माई "मियां के मुर्ग़े ने तुम्हारी गौमाता को अपवित्र कर दिया। " उसकी बात सुन कर वही रमफेरवा की माई जो कल तक मीर साहब के सामने हाथ भर का घूँघट काढ़ती थी, आज बेशर्मी की हद को पार करती हुई लगी खरी-खोटी सुनाते हुए सामने आ जाती है और पीछे-पीछे रमफेरवा के साथ पंडित जी भी कुछ बुदबुदाते हुए बढ़े। बेचारे रामबोला ने ऐसी सीन की स्वप्न मे भी कभी कल्पना नहीं की थी। एक चुप हज़ार चुप। रामबोला के मामला समझ मे तो
आ गया क्योंकि पंडित जी की नज़र बहुत दिनों से उसके गाय पर लगी थी। इस मामले में पंडित जी ने रमफेरवा से कई बार बात भी की थी। बेचारा रामबोला वह इसी उधेड़-बुन में पड़ा दिखाई देता है कि वह करे भी तो क्या करे? उधर बचपन से दाँत काटी रोटी का सवाल और इधर पत्नी जैसी बिना डोर की पतंग का बवाल। कुछ देर जुगाली करते हुए भाई मीर साहब आखिर मुस्कुराते हुए बोलते है, " दुल्हिन इसमें कौन सी आफत आ गई? अरे जानवर मुर्गा और जानवर गाय। इसमे तो हम लोगो को सीख लेना चाहिए कि जानवर होते हुए उनमें इतनी मुहब्बत और हम् इंसान का चोला पहने हुए कितनी नफरत पाल बैठे हैं। क्यों पंडित जी? पंडित जी कुछ हकलाते हुए बोले, " बा... त... तो ठीक है मगर कहाँ मुर्ग़ा और कहाँ गौमाता? लेकिन रामफेरवा की माई घबरावे की कौनों बात नहीं। हर चीज़ की काट है। आप चिंता न करो। एक तरकीब है। हम गाय को पंद्रह दिनों के लिए अपने साथ ले जा रहे है, हम पूजा-पाठ करके गंगा जल से पवित्र कर देते हैं। बस सब ठीक हो जाएगा। सब चुप रहे मगर रमफेरवा की माई रमफेरवा की बात पर हाँ में हाँ मिलाती रही। पंडित जी ने पूजा-सामग्री की एक लंबी चौड़ी लिस्ट थमा दी। 
मुर्ग़ा उड़ कर अपने मालिक के पास आकर बैठ गया और रंभाती हुई गाय को पंडित जी अपने साथ ले गए। उधर रमफेरवा की माई पूजा की लिस्ट लिए हुई मीर साहब से बेलौस बोली, " अब बतावा ई खर्चा के देई? मीरसाहेब कुछ देर सोचते रहे फिर सौ का एक नोट निकाल के रमफेरवा की माई की तरफ बढ़ाते हुए बोले, "लो दुल्हिन, मुर्ग़ा हमारा तो गाय के भरपाई भी तो हमही को करना चाहिए, क्यों रामबोला भाई है न जायज? रामबोला डबडबाई आँखों से दोनों को देखता रहा और मीर साहब के साथ बचपन से चली आ रही दोस्ती को याद करता रहा। उठ कर किसी तरफ चल दिया। रमफेरवा की माई भी नोट को झपट कर लेते हुए चल दी। मीर साहब मुलुल-मुलुल अपने मुर्ग़े को देखते रहे जैसे मुर्ग़ा अपने मालिक की मजबूरी को समझ रहा था। कई दिन बीत गए अचानक मुर्ग़ा सड़क पर किसी गाड़ी से कुचल कर मर गया और तीसरे-चौथे दिन जब रमफेरवा की माई अपनी गाय को देखने गई तो देख कर दहाड़ मार कर रोने लगी कि उसकी गाय को कुछ लोग ठेला-गाड़ी पर लाद कर ले
जा रहे थे। मीर साहब और रामबोला उसी पेड़ के नीचे गुमसुम बैठे थे वैसे उनके आँसू सूख चुके थे। शायद दोनों जानवरों के अटूट रिश्तो से अपने इंसानी रिश्तो के मिलान करने के क्रासवर्ड को हल करने मे माथापच्ची कर रहे थे।
सुदामा सिंह..! संपर्क सूत्र :- 9415121202. 

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पर दिल है कि मानता नहीं।
निहायत ख़ुशी का मौका होता है जब हर साल प्रदुषण से बचने बचाने के लिए देश भर में पेड़ लगाये जाते हैं, बच्चों को प्रेरित किया जाता है,रैलियां निकाली जाती हैं और माननीयों द्वारा पौधे रोपने पर कैमरे क्लिक किये जाते हैं। एक जश्न की तरह होता है सबकुछ। लेकिन जब दूसरे दिन तम्बू कनात सिमेटे जा रहे होते है और पौधे पानी के बिना आखिरी साँस लेते नज़र आते है तो दिल रो पड़ता है। सवाल अपनेसे ही करता हूँ कि इस देश की पवित्र धरती पर तो प्रकृति खुद रंग बिरंगे परिधानों मे सज संवर कर आई थी पर हममें से कुछ लोगों ने उसे बेगर मेड बना कर रख दिया और उसकी जगह तामीर कराने की ज़िद कर ली बेजान पत्थरो की गगनचुम्बी  अट्टालिकाएं । बुरा न माने आज यह अच्छा कार्य हो रहा है पर कल की भी सोचिये ज़रा। गरीबों के सिर पर एक छत के नाम पर इन्हें बड़ी बेरहमी से तराश  दिया जायेगा। छत के नीचे होगा कोई और , और किसी गरीब को किसी पेड़ की छाँव तक नसीब नहीं होगी। ये भी एक सवाल उठता है जो पहले से अपने शबाब और बुढ़ापे की दहलीज़ पर कदम रख चुके थे उन्हें तरक़्क़ी का आईना दिखा कर धराशायी क्यों कर दिया गया ? बेचारी सड़कों के कलाइयों की रंग बिरंगी चूड़ियाँ तोड़ कर उन्हें किसी बेवा की तरह जीते रहने पर मज़बूर क्यों कर दिया गया। जवाब मिलता है कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। पर दिल है कि मानता नहीं।

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कल मैंने भीगती और बेहाल ज़िंदगी को बहुत क़रीब से देखा..! 
इन दिनों बच्चे इस बसेरे की छत की मरम्मत करा रहें हैं । काम चल रहा है । इस शहर की पहली बारिश (30 जून की रात से सुबह तक ) जो हुई तो सभी कमरे नग्न हो गए । दो कमरे थे गनीमत थे जिनमे बच्चे सो रहे थे । मैंने किसी को डिस्टर्ब करना अच्छा नहीं समझा । श्रीमती जी जो बेटी के साथ सो रहीं थीं उन्हे जगाने की ज़ुर्रत की तो वह लगीं ललिता पवार का रोल प्ले करने । अब मैं जवाब देकर सब की नींद हराम नहीं करना चाहता था । उनका कहना था 'ठीक तो है सब एक साथ तोड़-फोड़ करा दो । अपनी मन वाली किया तो भोगिए । जबकि उन्होने ही हठ किया था जैसे सीता ने सोने के हिरण को देखकर लक्ष्मण से हठ किया था । खैर मेरी हालत देखने वाली थी । होम करते हाथ जलना वाली कहावत सुनी थी किन्तु आज चश्मदीद देख रहा था । ज़िंदगी भर न भूलेगी वह बरसात की रात । अपने स्वभाव के अनुसार सोच रहा था की अपनी छत तो चार-पाँच दिनों में बन ही जाएगी पर दुनिया के तमाम लोग जो हमेशा  मजबूरन खुले आसमान के नीचे सोते हैं और लोगो की ठोकरें खाते हैं उनका क्या होगा..?

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प्रणाम साहिबगंज..!
एक अनुभव साझा कर रहा हूँ..। मैंने एक नियम बनाया था कि जनवरी में जो छात्र रेलवे मिडिल स्कूल से पास होकर हाई स्कूल (उस समय का इंटर मीडिएट) में प्रवेश लेने आता था उसे अपने अभिभावक के साथ आना पड़ता था..। यद्यपि कुछ ने इस नियम पर एतराज भी किया..! पर मैंने उन्हें समझाया कि इसके बाद तो बुलाने पर भी अभिभावकों का आना दुर्लभ हो जाता है..! क्रमवार छात्र और उसके अभिभावक को मिडिल स्कूल के रिजल्ट कार्ड के साथ आना होता था..। एक शिक्षक रिजल्ट में विषयवार अंको को देखता और मैं छात्र से कुछ सरल से दैनिक दिनचर्या के बारे में पूछता..। साथ ही विनम्रता पूर्वक घर परिवार के बारे में जानकारी लेता..। प्रवेश तो सभी का होता था परंतु मेरा मूल उद्देश्य अभिभावक को बताना था कि उसका पाल्य किस स्तर पर है..। आप सब को भी अनुभव होगा कि बहुत से अभिभावक प्रवेश दिलाने के बाद विद्यालय की तरफ झांकते तक नही..। जबकि शिक्षा शास्त्र में बताया गया है कि सिर्फ स्कूल बिल्डिंग ही स्कूल नही है..। स्कूल की परिभाषा में स्कूल भवन+छात्र+परिवार+वातावरण मिलकर आदर्श स्कूल बनाते हैं..।
चलिये एक अभिभावक क्रम में देरी होने के कारण तमतमाते हुए आये और पहले अपने पाल्य का साक्षात्कार करने के लिये दबाव बनाने लगे..। दो चार शिक्षकों से भी सिफारिश कराने लगे..। उन्होंने कहा कि मुझे डियूटी पर जाना है..। मैंने उनसे कहा महाशय आप अपने बच्चे के भविष्य के लिए एक दिन का अवकाश नही ले सकते..? मैं आपके अधिकारी को फोन किये देता हूँ लेकिन क्रम नही तोड़ सकता..। उस अनपढ़ खलासी का नंबर है, मैं उसे क्रॉस कर के आपके केस पर विचार नही कर सकता..। वह अभिभावक थोड़ा प्रभावशाली थे और कामर्शियल ब्रांच के वरिष्ठ कर्मचारी थे..। मैं भी उनकी बातों से कुछ तैश में आ गया था..। 
दूसरे दिन मैंने सुना कि वह अस्वस्थ हैं..। मैं तुरंत उन्हें देखने उनके सरकारी आवास पर पहुंच गया..। फिर तो वे मुरीद हो गये और अपनी गलती स्वीकार की..। जब तक वह अस्वस्थ रहे मैं प्रतिदिन समय निकाल कर उनका कुशलक्षेम पूछने पहुंच जाता था..। मेरे जैसे एक मामूली शिक्षक के लिए एक प्रयोग था..। आज भी उनसे मोबाइल पर समाचार का आदान-प्रदान होता रहता है..। मुझसे दो वर्ष बाद वह भी सेवानिवृत हुए..।

प्रणाम सहिबगज..।

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आत्म चिंतन..!
इस देश मे कई महापुरुषों ने सती प्रथा और बाल विवाह के विरुद्ध आवाज बुलंद की और वे इन कुप्रथाओं को रोकने में सफल भी हुए। परंतु आज जब देखता हूँ कि आत्मा की शांति के लिए बड़े बड़े भोज का आयोजन किया जाता है तो अपने से ही पूछता हूँ कि क्या यह कुप्रथा नही है.?? मरने वाला तो मर गया, किन्तु इस वृहदभोज और मृतक की आत्मा की शांति के चक्कर मे गरीब परिवार का मुखिया भी जीते जी मर जाता है। जबकि आत्मा के बारे में किसी को पता नही। मृतक के रोग का इलाज कराने में लोग कर्जदार हो जाते है फिर मृत्यु उपरांत इन सब कर्मकांडो के कारण अधमरा या मरा हो जाता है। 
मेरे विचार में इसे बजाय वृहद करने के अति सीमित किया जाए। जैसे पशु पंछियों या अनाथालय के बच्चों अथवा कोढ़ी अपाहिजों में अपनी हैसियत के अनुसार वितरित किया जाए। आजकल तो देखा जा रहा है कि जन्मदिन और विवाह आदि की तरह बाकायदा बुफे सिस्टम से मृत्यु भोज आयोजित किया जाता है।
मेरे विचार में जैसे अन्य मांगलिक समारोहों में शामिल होने वाले एक लिफाफा लेकर जाते हैं पर मृत्यु भोज में हाँथ पोछते हुए हम चले आते हैं जबकि उस दुख की घड़ी में उस शोक संतप्त परिवार को आर्थिक सहयोग चाहिए। मुझे संतोष हुआ जान कर कि कुछ राज्यो में इस प्रथा पर ध्यान दिया जाता है।

मैं जानता हूँ कि लोग मेरे विचार पर चिंतन करने के बजाय खिल्ली उड़ाएंगे और अपनी दुकान चलाने के लिए तरह तरह की दलीलें पेश करेंगे पर विश्वास है कि एक दिन लोग इस पर जागरूक होंगे। रोम एक दिन में ही नही बन गया था।

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एक याद साहिबगंज...!
राष्ट्रपति भी ऐसी हरकत करते तो उन्हें यही जवाब मिलता..!
एक दिन मुझे मेरे कार्यालय लिपिक प्रेम बाबू ने फोन कर बताया कि, उपायुक्त महोदय के यहां से कोई उच्चाधिकारी आये है..! मैं उस समय घर में भोजन कर विद्यालय जाने की तैयारी कर रहा था..! मैंने प्रेम बाबू को फोन पर कहा उन्हें बैठाइए मैं आ रहा हूँ..! मेरा नियम था कि चैम्बर में आते ही सर्वप्रथम हनुमान जी के चित्र पर अगरबत्ती जलाने के बाद ही अपनी चेयर पर बैठ कर काम शुरू करता था..! उस दिन चैम्बर में दाखिल होते ही देखा कि वह अधिकारी सिगरेट पर सिगरेट पीते चले जा रहे थे..। मैं अपनी दिनचर्या के अनुसार अगरबत्ती आदि जला कर उन महाशय की तरफ मुखातिब हो कर उनके कुछ हुक्म सुनाने के पहले कहा पहले आप मेरे विद्या मंदिर से बाहर सिगरेट पीकर आइए..। वह तिलमिला उठे..। उन्होंने कहा कि आप नही जानते हैं की मुझे उपायुक्त ने भेजा है..। मैने बड़े विनम्र भाव से कहा कि मुझे इससे मतलब नही की किसने आपको भेजा है..। पहले सिगरेट बुझा कर आइए तो मैं आपकी कोई बात सुनूगा..। उन्होंने अपनी झेंप मिटाने के लिए मुझसे कहा कि ऐसा कोई बोर्ड नही लगा है..। प्रतिउत्तर में मैंने कहा, तब आपने उचित शिक्षा नही पाई है..। इस विद्या मंदिर की एक-एक ईंट कह रही हैं कि, यहां धूम्रपान नही करना चाहिये..! बस वह उठ कर चल दिये..! उनके जाते ही उपायुक्त महोदय को फोन पर सारी बाते बात दीं..। उपायुक्त ने खूब फटकारा..! इधर शिक्षक लोग डर रहे थे..!  मैंने कहा कि अगर राष्ट्रपति भी ऐसी हरकत करते तो उन्हें यही जवाब मिलता..! विद्या मंदिर की गरिमा को मैं किसी कीमत पर जाने नहीं दूंगा, इसे रेल अधिकारी भी जानते हैं..। 

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