हिन्दू पंचागानुसारा
चैत्र है प्रथम मासा
फाल्गुन है वर्षान्ता
उत्तर भारत में
छह ऋतुएँ होती
वसंत,ग्रीष्म, वर्षा
शरद, शिशिर व हेमंता
ऋतुओं में वसंता
गीता में श्रीकृष्णा
कहते नहीं थकता
ऋतुओं में एक वसंता
रूप सौन्दर्य के देवता
कामदेव सूत वसंता
वसंतोत्सव नामक
सूत की उत्पत्ति
होते ही प्रकृति
गाती झूम उठती
पेड़ नव पालना डालती
पुष्प नव चीर पहनाती
पवन उसे झुलाती
कोयल गीत सुनाती
आम्र पेड़ भौरों व
पत्ती से लद जाते
सरसों के फूलों से
खेत पीले दिख जाते
वसंत "ऋतु-राज "कहाते
ठूंठ पडे़ पेड़ों पर
लगती खिलने फूल-पत्तियाँ
मंडराती भंवरे मधुमक्खियाँ
ठंड से ठिठुरे विहंगा
उड़ता शिशिर की प्रताड़ना से
मुक्ति की अनुभूति कराता
माघ शुक्ल पंचमी को
प्रथम गुलाल उड़ाया जाता
हो जाता गायन प्रारंभ
धमार और होली का
कामदेव के पंचशर
प्राकृतिक संसार में
करते आमंत्रित
अभिसार को
विवाह योग्य युवक युवतियाँ
चुनती जीवन साथी
अपनी इच्छानुसार को
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विधा - लघु कथा..!
शीर्षक :- सम्मान..!
प्रियांशु ने पहली से पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई प्राइमरी स्कूल में पूरी की|
जब उसे छठी कक्षा में प्रवेश पाने की इच्छा हुई तो मालूम हुआ कि उसके शहर में सभी उच्च विद्यालय कक्षा सातवीं से संचालित की जा रही है | इसलिए उसने अपने निकट के मध्य विद्यालय में दाखिला ले लिया जो कि आठवीं कक्षा तक की थी
वर्ग छठी की वार्षिक परीक्षा को अच्छे अंक से उतीर्ण करने के उपरांत प्रियांशु ने उच्च विद्यालय की प्रवेश परीक्षा पास कर कक्षा सातवीं में दाखिला ले लिया |
यह उच्च विद्यालय शहर के प्रतिष्ठित विद्यालय में से एक है जिसकी प्रशंसा सभी करते हैं | इस विधालय में योग्य एवं अनुभवी शिक्षकों की कोई कमी नहीं है |
अनेक प्रतियोगिताओं में इस विधालय ने अपने नाम के साथ शहर का नाम भी शीर्ष पर रखा है |
एक बार की बात है विद्यालय कीओर से आयोजित एक प्रतियोगिता में प्रियांशु ने भी भाग लिया | प्रतियोगिता का शीर्षक था - " पर्यावरण संरक्षण कैसे करें? "जिसे चित्र के माध्यम से प्रदर्शित करना था |
बाल्यकाल से ही प्रियांशु के मन में इच्छा थी कि वह भी किसी प्रतियोगिता में भाग ले किंतु संसाधन के अभाव में वह पिछड़ जाता था | बहुत मुश्किल से उसने " सुन्दर लाल बहुगुणा " (चिपको आंदोलन) से प्रभावित होकर एक चित्र सफेद मोटे पेपर पर रंग भरकर बनाई |
अब बारी विद्यालय में प्रदर्शनी की थी किंतु पैसे के अभाव में वह उस चित्र को दीवार पर चिपकाने में असमर्थ हुआ|
जब यह बात विद्यालय के वरिष्ठ शिक्षक 'दीनानाथ झा'
को मालूम हुई तो उसने फौरन अपने पाकेट से पैसे निकाल कर प्रियांशु को दे दिया और प्रियांशु ने चित्र को चिपकाने का सामान लाकर अपने द्वारा बनाई चित्र - "पेड़ से चिपके हुए व्यक्ति" का जिसमें लिखा था - ' पेड.को काटने से पहले मुझे काटो ' को प्रदर्शनी हेतु हाॅल के दीवार पर चिपकाया |
जब निर्णायक मंडली ने प्रथम पुरस्कार हेतु प्रियांशु के द्वारा बनाई चित्र की घोषणा की तो प्रियांशु के ऑखों से खुशी के ऑंसू छलक पडे. |
अपने शिक्षक दीनानाथ झा के सम्मान में प्रियांशु का सिर नतमस्तक हुआ और उसने अपने गुरु का चरण स्पर्श करते हुए कहा कि हे गुरु देव आज आप न होते तो मैं आज इस पुरस्कार को पाने में असफल ही रहता |
अतएव गुरु देव मैं आपको कोटि - कोटि नमन करता हूँ | आप हमारे दिल में बसते हैं |
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काक-कोयल..!
कोयल मधुर - रस,
बरसाने वाली ,
काक यह कहाँ ?
कर पाती है ।
कर्कश-कर्कश बोली,
की भी नहीं कोई सानी है,
कोयल भी क्या करती,
माधुर्य रस निकल ही जाती है ।
काक एक काली पंछी,
उङ-उङ आसमान तक जाती है ।
गर्व उसमें आसमान छूने की,
उङ- उङ खूब लहराती है ।
कोयल नहीं कोई काली,
न आसमान तक जाती है ।
आसमान छूने की इच्छा,
कोयल की है एक परीक्षा |
कोयल मधुर रस ,
बरसाने वाली ;
काक यह कहाँ ?
कर पाती है ।
काक तनिक दाना,
चुग-चुग कर;
अपने आप में,
खूब इठलाती है ।
कोयल नहीं कोई काली,
दाना चुग ही जाती है ।
इनके मन में न कोई भाव,
न खुद पे इठलाती है ।
आता जब-जब ,
प्यासा मौसम भी;
काक जमीं पे आती है,
नीर पी उङ जाती है ।
हो सर्द या प्यासा,
मौसम में भी कोयल ;
अपने पंख लहराती है,
दाना-नीर मिल ही जाती है ।
कोयल मधुर रस,
बरसाने वाली ;
काक यह कहाँ?
कर पाती है ।
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किसी शहर के एक मोहल्ले में आंशु अपने मम्मी-पापा के साथ रहता था।अभी वह सात-आठ साल का ही थी | आंशु की रुचि पढ़ाई से अधिक खेल-कूद में ही लगा रहता था।आंशु को क्रिकेट के खेल अधिक पसंद थे।जबकि आंशु के साथ खेलने के लिये कोई मित्र नहीं था।
वहीं समीप मे पिंकू का घर था।पिंकू भी लगभग आंशु के ही उम्र का था।जो अत्यंत गरीब और सरल स्वभाव का लड़का था।पिंकू की माँ दूसरों के घर में जाकर कुछ काम करके अपने बेटे को पालती थी। पिंकू के पिताजी के गुजरे करीब पाँच वर्ष हो चुके थे। पिंकू की माँ अधिक पढी-लिखी थी,जो अपने बेटे को पढ़ाती थी।
पिंकू को भी क्रिकेट खेलना पसंद था।वह पढ़ने में भी तेज था।साथ ही,पेंटिंग्स वर्क भी उसका अच्छा था।
जबकि आंशु की माँ चाहती थी कि उसका बेटा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने।क्युंकि आंशु के पिताजी सरकारी विभाग के ऊचें पद पर हैं। लेकिन उसकी माँ नहीं चाहती थी कि उसका बेटा आंशु गंदे लोगों के साथ रहे और खेले।
जब पिंकू की बनाई पेंटिंग्स स्थानीय समाचार पत्र में प्रकाशित हुई तो आंशु की माँ अपने-आप को रोक नहीं पाई और बधाई देने अपने बेटे के साथ पिंकू के घर पहुंच गई।पिंकू की माँ ने अपने बेटे की बनाई अन्य पेंटिंग्स को आंशु की माँ को दिखाई और अपने बेटे के सुन्दर लेखन कला को भी। जिससे आंशु और उसकी माँ काफी प्रभावित हुए और आंशु तथा पिंकू की दोस्ती भी हुई।
अब आंशु पिंकू से सिखकर पढ़ने लगा तथा पिंकू आंशु के साथ क्रिकेट खेलना शुरु कर दिया।
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प्रेरणा दिवस..!
दिवस है सम्मान का
दिवस है प्रेरणा का
पाने को आशीर्वाद का
बनाने को आदर्श का
सींच बगिया को
फूल खिलाया जिसने
दिवस है उस इंसान का
दिवस है उस भगवान का
गुरुर ब्रह्मा का
गुरुर विष्णु का
गुरुर देवो
महेश्वर का
माली अकेला
रंग बिरंगे
फूल खिलाया जिसने
दिवस है
उस इंसान का
डाक्टर,वकील
इंजीनियर ही नहीं
लेखक, पत्रकार
नवाव बनाया जिसने
चरणों में उनके
नतमस्तक
हाथों में हो जिनके
पुस्तक
दिवस है उस भगवान का
दिव्य ज्ञान ज्योति से
सफलता का
मार्ग बताया जिसने
तवे एकला चलो रे
उदेश्य हो जिनका
दिवस है
उस इंसान का
आत्म ज्ञानी का
आत्म विश्वासी का
अडिग पथ पर
चले हुए से
बाधाओं से
लडे. हुए से
इंसान बनाया जिसने
सम्मान है उनका
सम्मान है उनका
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मेरी ईच्छा..!
जीवन सादा है
अपनी मर्यादा है
मेरा ये वादा है
मैं बनूँ अनमोल
चाहे सीखूं भूगोल
बचपन का है लक्ष्य
मैं बनै दक्ष
बड़ी हो बनूँ शिक्षिका
चाहे मुझे लेनी पड़े दीक्षा
मेरी है यही ईच्छा
शिक्षिका नहीं एक पेशा
बन शिक्षिका करूँ ऐसा
सवार दूं मैं बच्चे
जिससे देश बने अच्छे
बच्चा - बच्चा बने महान
हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान
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निर्भय..!
कौन है..? वो,
जो मुझसे मिला
उससे मिलते ही
मेरा दिल खिला |
ना वो बंधु
ना वो सहोदर
ना वो कृष्ण
ना वो सुदामा
जब वो जिससे मिला
ना ही किसी से डरा
मधुर जिनकी वाणी
ना है निष्ठुर प्राणी
उनकी बातें है अनमाेल
खुलती जब उनकी बोल
एक ही दिशा
एक ही गोल (लक्ष्य)
नीति में नहीं उनका मोल
सबका जो निकाले भूगोल
सभ्य- सभ्यता घाटी है
प्रशंसा का जो थाती है
दीया संग बाती है
जो मेरा साथी है
बातें उनकी सुहाती है
संग मेरा दिन राती है
देश नाम चिट्ठी है
पत्रकारिता भर मुट्ठी है
ना वो कोई नेता है
देश का वो बेटा है
नाम जिनका लेने को डरूँ
भय-भय मैं निर्भय बनूँ....!
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विषय सिद्धांत..!!
जीने की हो कला,
या वस्तु विषेश हो कला...
जाता कुछ एक को छला,
जनरल हो या साधारण |
फिर भी एस०सी०, एस०टी० का बोलबाला |
जीवन की तेज रफ्तार में,
छोड़ केवल साधारण को...
जनजाति एवं जाति को नमस्कार,
मध्ययता ओ०बी०सी० ही मारा जाता |
एडमिशन का हो चक्कर,
या सर्विस में पडे़ चक्कर....
श्री गणेश एस०सी०, एस०टी० ही पुकारा जाता |
गाधींवादी युग में न जात है न पात,
फिर भी राजनीति में इसको बांटा जाता...
जनरल को जनरल पुकारा जाता,
ओ०बी०सी० को भी दुत्कारा जाता |
आरक्षण के मुद्दे पर वोटों का विभाजन,
शिक्षा के मुद्दे पर सीटों का विभाजन.....
अंततः कुछ असाधारण छला जाता,
क्योंकि, राजनीति का है बोलबाला ||
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खामोशी..!
प्यासा बूंद जल-जल से |
खग के कलरव से पहले,
होती खामोशी जगत दल में ||
जीवन निर्मल जल से,
पखारे चरणों को धोती |
होती खामोशी उससे पहले ||
लगता जैसे तूफ़ां आने वाला,
वसंत ऋतु गमन से |
आती पुनः एक खामोशी,
नव जीवन देने से पहले ||
सूखे पेड़, निर्झर नदियाँ,
उमंग अंगड़ाई लेने से पहले,
होती खामोशी उससे पहले ||
वाहिनी में जल-प्लावन से पहले,
नीर कल-कल करते झरने के |
प्यासा बूंद जल-जल से,
होती खामोशी उससे पहले ||
जीवन में नवजीवन भर,
सागर चरणों को पखार|
लगता जैसे तूफां आने वाला,
"वसंत-ऋतु" गमन से,
होती उससे पहले एक खामोशी ||
नीर कल- कल करते सागर के,
प्यासा बूंद जल-जल से|
खग के कलरव से पहले,
होती खामोशी जगत दल में ||
आता लेकर एक नव जीवन,
मानव में रंग भरने से पहले |
उठती एक खामोशी उससे पहले...
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जीवन एक नद् धारा है ..
नहीं इसका कोई किनारा है...
गंगा की जलधारा सी
कल- कल बहती
निर्मल जलधारा सी....
जीवन तो कभी....
बाढ़, कभी सूखा है
मिल जाती दो जून की
रोटी, कोई सूखी.....
नहीं, जनता सोती भूखी
जब मिल जाती
ये सूखी-रूखी रोटी.....
भूखों के लिए रसधारा है....
कभी पहाड़, कभी सुखा है.
कभी पर्वत, कभी मैदाना है.....
जीवन एक नदधारा है
नहीं इसका कोई किनारा है....
मौजों से भरा ये जीवन
हर्षित जीवन, प्रफुल्लित मन...
नहीं जीना है बेमन
जीवन तो है अनमोल
इसको नहीं खोना है....
जीवन कभी आसमां
तो कभी तारा है
जब -जब है "सोनू सूद"
नहीं कोई बेसहारा है.....
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जीवन-निराशा..!
हुए खड़े उठ सवाल दो
जाऊ कहाँ, करूँ मैं क्या,
जीवन भी ये चीज क्या..?
निराशा का आलम है..l
ज़िंदा रहना ही मातम है..ll
सोच न सकता हूँ कुछ,
कर न सकता हूँ कुछ,
प्रश्न है, कैसा ये..?
उत्तर है कहाँ, कैसा ये..?
चलना है कठिन राहों पर,
जीने-मरने की रहे धर,
निराशा है, ना आशा,
जीवन जीना है, फिरा-सा..!
आती है ना मौत कभी,
मरता हूँ न, जीता कभी,
नयनों की समुंद्रों में,
लगाता गोता कभी..!
लक्ष्य है ना, दिशा कोई,
जीने का ना, बीज बोई..!
अपना है ना, पराया कोई,
आशा ना, जीने की धरी..!
हुए खड़े उठ सवाल कई,
जाऊ कहाँ..? करू मैं क्या..?
जीवन भी ये चीज क्या..?
निराशा का आलम है..!
जिन्दा रहा ही मातम है..!!
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अब विकास नहीं.... होगा विनाश..l
देखते ही देखते होगा सत्यानाश..
और होगा नहीं विकास...ll
अब राजमहल की पहाड़ी होगी वीरान...
साहिबगंज की सुंदरता का होगा सत्यानाश..!
मंत्री-सांसद मिल कहेंगे संतालों का हो रहा विकास...l
पहले तो फिरंगियों ने लूटा..l
अब लूटेंगे रंगा सियार..!!
अब विकास नहीं.... होगा विनाश..!
अब काला हीरा होगा काला...!
ब्लैक स्टोन चिप्स को भी मार डालेगा..
साहेबगंज की भोली जनता कुछ समझ ना पाई..l
गंगापुल को छोड़ बंदरगाह तो है पाई..ll
अब विकास नहीं.... होगा विनाश..!
मोती झरना का मोती भी चूर होगा..l
साहिबगंज की जनता का गुरूर भी चूर होगा..ll
अब राजमहल की पहाड़ी ना दिखेंगे वही..!!
अब घर नहीं...
परती जमीं सुनसान होगा..!
चैत्यन की भूमि से कृष्ण भी नाराज़ होंगे..!!
जिलेविया घाटी की सुंदरता भी खंडहर होंगे..!
समदा नाला की...
ऐतिहासिक गाथा का विनाश होगा..!!
अब साइबेरियन पंक्षी...
उड़ ना आएंगे उधवा नाला में..!
अब विकास नहीं.... होगा विनाश..!
अमर शहीद सिद्धू - कान्हू की भूमि...
अपनी अतीत की राह जोहेगी...
अब साहिबगंज की पावन भूमि,
कूड़े का अम्बार होगा..ll
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साहिबगंज:-13/04/2018
" दुबला - पतला छोरा "
गोरा - गोरा चेहरा वाला, लाल पैंट पहनने वाला।
कैसा दौड़ा, कैसा भागा, खाने को चाट पकौड़ा।
लगता मानो जी चटोरा, खाता खूब,चाट पकौड़ा।
गोरा-गोरा चेहरा वाला, लाल पैंट पहनने वाला।
पढता और लिखता थोड़ा, खाने वाला चाट -पकौड़ा।
सोता ज्यादा, जागता थोड़ा।खाता खूब चाट पकौड़ा।
अपनी मस्ती में रहने वाला, कभी न कुछ कहने वाला।
चेहरा गोरा लाल पैंट वाला, कैसा दौड़ा, कैसा भागा।
मुँह से लार टपकानेवाला, मीठा-खट्टा खाने वाला।
थोड़ा -थोड़ा हकलाने वाला, ठंडे से भी नहलावाला।
मेले में ये जानेवाला , ठेले का सबकुछ खानेवाला।
खेल-खिलौने खेलनेवाला, कैसा दौड़ा, कैसा भागा।
खाने को ये चाट पकौड़ा, चाट पकौड़ा भरदम खाया।
और ठंढे से भी नहलाया, अलावा इसके,कुछ न भाया।
लगता है-ये जी छिछोरा, खाता चाट भर कटोरा।
चेहरा उसका गोरा-गोरा, दुबला-पतला है छोरा।
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" जिंदगी जंजाल नहीं "
पता नहीं कौन है वह ?
कहाॅ से आया है ?
पूछने पर उसने
अपना नाम - "जगीरा" बताया है..।
बेसुध - बेजान और अर्धनग्न ।
अपनी ही मस्ती मेँ ।
सभ्य शहर की बस्ती में ।
बीड़ी सुलगाता है।
गर्दन हिलाता है ।
दाँत दिखलाता है ।
"पागल"कहलाता है।
सड़क रूपी बिछावन पर
आकाश ओड़ सोना है ।
न सुख है, न दुःख है ।
न भाग्य पर ही रोना है ।
जिन्दगी जंजाल नहीं ।
खेल है खिलौना है ।
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