6 जून 1995 की रात जगह "साहिबगंज" रेलवे स्टेशन प्लेटफार्म नंबर 1 समय का तो ध्यान नहीं मगर कलकत्ता की गाड़ी जमालपुर हावड़ा एक्सप्रेस का इंतजार साथ ही मेरे नए मालिक का इंतजार उस समय "साहिबगंज" स्टेशन आज की तरह नहीं था पर जो भी था मुझे पसंद था पूछताछ कार्यालय के पास मैं खड़ा अपनी गाड़ी और अपने मालिक दोनों का इंतजार कर रहा था, और मेरे दिमाग में बस कलकत्ता ही चल रहा था और चलता भी क्यों न आखिर पहली बार किसी बड़े नगर.... महानगर जो जा रहा था मैंने अब तक काफी कुछ सुन रक्खा था मैंने कलकत्ता के बारे में जैसे हावड़ा पुल, दक्षिणेश्वर, काली घाट, बेलूर मठ, विक्टोरिया, तारामंडल, वहां का क्रिकेट मैदान "ईडन गार्डेन", बाबा भूत नाथ का मंदिर, ट्राम, जमीन के नीचे चलने वाली रेल "मेट्रो", वहां वो हाथों से चलने वाले रिक्से, चलने वाली सीढियां, बड़ी - बड़ी इमारतें चौड़ी सड़कें, एसी वाले सिनेमा हॉल और भी न जाने कितनी बातें कितनों के मुंह से सुन रक्खी थी और अब वहीं उसी शहर जाना है तो दिमाग के जहन में इस समय कलकत्ता नाम का घूमना अपने आप में कोई आश्चर्य नहीं लग रहा था मुझे।
अब तक मेरे मालिक आ चुके थे प्लेटफार्म पर और हमारी रेल के आने की घोषणा भी स्टेशन मास्टर साहब ने कर दी थी, थोड़ी देर में ही हमारी रेल आई और हम भी अन्य यात्रियों की तरह यू-7 कोच में सवार हो गए पर आरक्षित सिर्फ एक ही बर्थ थी मेरे लिए टिकट तो उन्होंने ही लिया था इस कारण मेरे हिस्से की कोई बर्थ आरक्षित नही थी और टिकट भी उन्होंने मुझे प्लेटफार्म पर देखने के बाद ही लिया था, शायद उन्हें संदेह रहा होगा के मैं ऐन वक्त पर मुकर न जाऊं, खैर उन्होंने मेरे लिए भी चलती रेल में ही टी.टी से एक बर्थ आरक्षित करवाई सफर शुरू हो चुका था मेरे कलकत्ते का सारी रात रेल सीटी बजाती रही और छुक-छुक कर पटरी पर दौड़ती रही, कुछ समय के बाद बाकी यात्रियों की तरह हम दोनों भी सो गए, रास्ते में कब किस स्टेशन पर रेल रुकी ये जानने की मेरी जिज्ञासा मेरे इस पहले सफर में तो पूरी नहीं हुई।
समय सुबह के लगभग 5:30, जगह हावड़ा स्टेशन जब मेरी आंख खुली तो खुद को हावड़ा स्टेशन पर पाया, जीवन में पहली बार इंसानो को कीड़े मकोड़े की तरह देखा मैंने और हम भी इस भीड़ का हिस्सा बनते हुए किसी तरह प्लेटफार्म से बाहर निकले वहां मेरे मालिक ने एक प्री-पेड टैक्सी बुक करवाई और हम चल दिए "बेहाला, बाबू पाड़ा" की तरफ.
पहली बार हावड़ा पुल देखा पार्क स्ट्रीट से गुजरते हुए जीवन दीप बिल्डिंग देखी विक्टोरिया और रास्ते में आने वाली न जाने कितनी जगहों को देखा जिसके लिए मेरे दिमाग में कई दिनों से खयाल चल रहे थे, रास्ता पूरा करने के बाद हम अपने गंतव्य पर पहुंच गए।
जिसके बाद मैं अपने नए मालिक के साथ उसके घर गया, जहां नित्यकर्मों से निपटने के बाद हम नास्ते की टेबल पर पहुंचे वहां पहले से ही मेरे मालिक का पूरा परिवार, तीन बेटे तीन बहुएं और पोते पोती मेरा इंतजार करते मिले फिर हमारा आपस में परिचय हुआ आखिर हमे अब आगे साथ में काम भी करना था, पर मैं इस समय अपने मालिक और उसके परिवार के बारे में सोच रहा था "भला कोई अपने नौकर को इस तरह अपने साथ.....अपने पूरे परिवार के साथ बैठा कर नाश्ता करवाता है भला?" थोड़ी देर में नाश्ता समाप्त हो गया इस समय दीवार पर काँटी के सहारे झूलती इस वक़्त घड़ी आठ बजा रही थी, तभी दरवाजे की घंटी बजी और कामवाली काकी ने दरवाजा खोला, जिसके बाद उसने अंदर हॉल में आ के कहा "सुजीत आया है" मेरे मालिक ने अपनी नजर दीवार पर टंगी घड़ी पर डाली जिसमे अब आठ बज कर पांच मिनट हो चुके थे, उसके बाद उन्होंने काकी से सुजीत को अंदर हॉल में भेजने को कहा।
सुजीत मेरे ही शहर "साहिबगंज" का रहने वाला था वो पिछले कई सालों से इनके यहां काम काम कर रहा था, ये बात मुझे बाद में पता चली। सुजीत तुरंत अंदर हॉल में आया और मेरे मालिक के सामने खड़ा हो गया, उसके हाथ में एक "छोटी से डायरी" थी जिसे मेरे मालिक ने उससे लेते हुए एक बार फिर दीवार पर टंगी उस घड़ी की तरफ देखते हुए सुजीत से कहा "क्या जी पांच मिनट लेट हो गए हो आज" जिसका जवाब सुजीत ने अपनी तरफ से कुछ नही दिया, पर मैने ध्यान दिया की जब वो सुजीत को देर से आने की बात कह रहे थे तो मेरी तरफ अपने चश्मे के पीछे से देख रहे थे, मानो मुझे समय का महत्व समझा रहे हो, पर मैंने उनके इस तरह मुझे देखने पर कोई प्रतिक्रिया न देते हुए उनके इस तरह से मुझे देखने जाने को ले कर मैं अनजान बना रहा मानो मैंने कुछ देखा समझा ही न हो पर उनकी पारखी आँखों ने समझ लिया था की वो जो मुझसे कहना और मुझे समझाना चाहते है उसे माइन सुन और समझ लिया है.
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मेरे हक में जो बात इस मामले में आती वो ये के जब मेरी शिकायत की जाती तो मेरे पिता जी कहते "मुझे पता है के मेरा लड़का सिनेमा देखने गया है, उसे मैने ही सिनेमा देखने के पैसे दिए है" इस सब के बीच मजेदार बात ये रहती की दोनो के घर वालों को लगता के सामने वाले का लड़का मेरे लड़के को बिगड़ रहा है, पर असलियत तो हम दोनों लड़कों को ही पता थी अब आपको भी पता है।
खेर स्कूल का पहला साल इसी तरह बीत गया जिसमे हम दोनों स्कूल में कम और स्कूल से भाग कर सिनेमा हॉल में ज्यादा पाए जाते जिसकी चर्चा भी स्कूल में होने लगी, इसके अलावा वही पास में एक जगह थी "मॉल गोदाम" किसी ज़माने में वहां मालगाड़ियों से समान आता जाता था हम वहां सिगरेट फूंकते हुए आवारागर्दी करते हुए भी नजर आते या फिर पास के खेतों से ककड़ी, खीरा, तरबूज, खरबूज चुरा का खाते पकड़े जाते और फिर कान पकड़ कर उठक बैठक भी लगाते, इसी तरह इस स्कूल का पहला साल बीत गया एग्जाम हुए और हम दोनों फेल घोषित कर दिए गए जिससे मेरी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा पड़ता भी कैसे जिसने पहले ही निर्णय ले लिया हो की उसे पढ़ना नहीं है उसे अपने फेल या पास होने से कोई मतलब कैसे हो सकता है, और पास तो तब होते जब कॉपी में कुछ लिखते सिर्फ नाम रोल नंबर और कक्षा लिख देने भर से कोई पास हुआ होता तो देश में सब डा की उपाधि लिए होते।
स्कूल का दूसरा साल प्रारंभ हुआ हमारी हरकतें वही रही पर वो लड़का पढ़ाई को थोड़ी संजीदगी से लेने लगा गंभीरता तो मुझमें भी आई पर स्कूली किताबों की जगह अब उपन्यासों ने ले ली, कॉमिक ने ले ली और अब इसमें मुझे ज्यादा मजा आने लगा अब सिनेमा कम करते हुए मैने उपन्यास पढ़ना शुरू किया उस ज़माने में एक रुपए किराए पर आसानी से मिल जाया करते थे और कॉमिक पचास पैसे के किराए पर और मुझे इतने पैसे भी उससे मांगने पड़ते जिसमे कभी मुझे कोई शर्म भी महसूस नहीं हुई, वो कहावत है न के "जो जैसा होता है उसकी संगती वैसे लोगों से होती है" अब मेरी संगती भी कॉमिक और उपन्यास पढ़ने वालों से हो गई और इस वजह से अब मैं पैसे मांगने की जगह किताबें ही मांग कर पढ़ लिया करता मेरे पसंदीदा लेखक थे "वेद प्रकाश शर्मा" "सुरेंद्र मोहन पाठक" क्राइम थ्रिलर सस्पेंस से भरपूर किताबे लिखते थे। अब मेरे पास मेरी खुद की किताबों की कलेक्शन थी जिसे मैंने अपने घर में खाली पड़े दो बड़े बक्सों में भर कर रखा था बाद में एक दिन पिता जी ने दोनो बक्सों में रखी मेरी सारी किताबों को या यूं कहे मेरे द्वारा अर्जित मेरी पूरी संपत्ति अग्नि देव को समर्पित कर दिया और इसी तरह मेरा स्कूल के एक और साल बीत गया और इस बार भी पिछले साल की तरह ही मैं फिर से फेल ही हुआ जिसका मेरी सेहत पर कोई असर नहीं हुआ, पर इस साल एक फायदा ये हुआ कि साल भर अनगिनत उपन्यासों को पढ़ने के बाद मुझे अपने लिखने वाले शौख को लाइन और लेंथ मिल गई, या ये कहें की बहुत कुछ सीखने को मिला, अब स्कूल के नियम अनुसार मेरा नाम स्कूल से काट दिया गया जिससे मेरे पिता जी मुझसे काफी नाराज थे और फिर एक दिन मैंने कहा।
मुझे काम करना है मुझे काम पर लगा दीजिए" उस वक्त पिता जी कोई जवाब नही दिया मगर कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझसे पूछा "कलकत्ता जाओगे" और मैने हामी भर दी क्योंकि अभी मुझे कही किसी अखबार में कोई काम मिलने वाला तो था नहीं क्योंकि इस समय मेरी उम्र यही कोई 15,16 की रही होगी, मगर पता नही क्या हुआ मेरा कलकत्ता जाना रद्द हो गया और मुझे एक "कोल्ड ड्रिंक" की दुकान पर लगा दिया गया जिसके लिए मुझे तीन सौ रुपए महीने के मिलने थे, ये मेरी जिंदगी की पहली नौकरी थी पर मैं इसे सत्ताइस दिनों से ज्यादा नहीं कर सका और फिर एक और ऑफर आया वो भी कलकत्ते का जिसे मैंने स्वीकार कर लिया और इंटरव्यू के लिए मेरे होने वाले नए मालिक के पास पहुंच गया, उसने मुझे अपने चस्मे के अंदर से ऊपर से नीचे देखा और एक दो सवाल किए जिसका जवाब मैने मेरी समझ के हिसाब से दे दिया, पर उन्होंने मुझे कोई जवाब नही दिया सिर्फ जाने को कहा दूसरे दिन पिताजी ने शाम को मुझसे कहा "कल कलकत्ता जाना है, तैयारी कर लो" अब मेरे दिमाग में कलकत्ता ही घूम रहा था।
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अक्सर नए लोग जब मुझसे मिलते हैं तो वो पूछते हैं "कहां से हो" अब मैं कैसे बताता उन्हे मैं कहां से हूं।
पैदा मैं साहिबगंज में हुआ थोड़ा बड़ा हुआ तो अपने ननिहाल खगड़िया चला गया कुछ दिनों तक वहीं रहा पर मन नहीं लगा तो फिर साहिबगंज आ गया उसके बाद पढ़ने के लिए हवेली खगड़पुर मुंगेर के पास है वहां डी एम इंग्लिश स्कूल में भर्ती करवा दिया गया अब मेरी होली दिवाली इसी स्कूल की चारदीवारियों में ही मनती पता नही अभी वो स्कूल है भी या नहीं पर मुझे अपना पहला स्कूल अच्छी तरह याद है साहिबगंज के तालाब रोड में एक स्कूल हुआ करता था कभी जिसका नाम पन्ना देवी चिल्ड्रन अकादमी था अब वो एक जमाने से बंद है और उस जगह एक दुकान खुल चुकी है।
हॉस्टल में जब मैं पढ़ता था तब ही मैंने अपने लिए प्रोफेशन च्युज कर लिया था, हालांकि था तो उस समय बहुत छोटा ही ये बात 1989 की है उस समय अचानक से मेरे हॉस्टल में कोई घटना हो गई जिसे न तो मैं खुद याद करना चाहता हूं और न लिखना चाहता हूं पर उस घटना से मेरे हॉस्टल का माहोल एकदम से बदल गया वहां आए दिन पुलिस और प्रेस का आना जाना लगा रहता वो बारी बारी से सबसे अकेले में सवाल करते मुझसे भी किए, और तभी मैंने अपनी जिंदगी का सबसे अहम फैसला कर लिया के मुझे पत्रकार बनना है और मेरे बाल मन में ये बात अच्छी तरह से घर कर गई पर समस्या ये थी कि मैं अपने इस निर्णय से किसीको अवगत भी नही करा सकता था जिसके अपने कारण थे।
वहीं हॉस्टल में मेरी दोस्ती मुझसे दुगनी उम्र के लड़कों से हुई जो किसी भी फिल्मी गाने को उसी धून पर भजन में लिखते थे साथ ही शायद उसी शहर से एक मासिक पेज (तृप्ति) पेज इस लिए कह रहा हूं क्योंकि वो एक पेज ही था जिसे फोल्ड कर आठ पेज की शक्ल दे दी गई थी, जिसमे कविताएं छपती थी जिसे पढ़ने का अवसर मिला, और वहीं से मैने भी लिखने की कोशिश शुरू की उसके बाद मेरे उस हॉस्टल में हर सप्ताह होने वाली गोष्ठी में मैं भी हिस्सा लेने लगा और अपने द्वारा लिखी कविताओं का पाठ करने लगा पर मुझे याद नहीं कभी मुझे किसी से कोई एक ताली मिली हो हमेशा गालियां ही मिली ताली तो अब भी नही मिलती मेरी कलम को पर इतना जरूर हुआ है के अब गालियां नही मिलती मुझे जिसके लिए मैने जीवन भर मेहनत की अपनी कलम को खुद निखारा है मैने किसी ने मुझे कुछ सीखाने की कभी कोई कोशिश नहीं की ऐसा नहीं है के मैं सीखने के लिए किसी के पास गया नहीं पर सीखाने के एवज में जिस धन की चाह वो रखते वो धन देने में मैं असमर्थ था और अब भी मेरे पास धन की कमी ही रहती है।
जिसका बचपन ही कमियों के सहारे गुजरा हो भला उसके जीवन में इतनी पूर्णता आ भी कैसे सकती है के वो सामने वाले को कुछ दे सके और बात जब धन की हो तो ये एक बड़ी समस्या बन जाता है उसके लिए जिसके पास आमदनी का कोई श्रोत ही न हो, वैसे कहने को तो जो भी मिलता मुझसे कहता "कुछ भी कर लो कोई छोटा मोटा काम ही कर लो, कब तक बोझ बने रहोगे अपने परिवार पर" पर जब उनसे पूछता "छोटा मोटा क्या बताओ कोई सही रास्ता बताओ" तब वो जवाब देने की जगह ज्ञानी बन जाते और दूसरों का उदहारण देने लगते उन्हे शायद पता नही था के ये सातवीं फेल "सचिन" उनकी मंशा अच्छी तरह समझता था वो जनता था के ये मेरे झूठे शुभ चिंतक हैं इनमे से किसी को मेरी सच में कोई परवाह नहीं है अगर होती तो वो मेरी उंगली पकड़ कर सही जगह पहुंचाते।
खैर जब मैंने निर्णय ले लिया के मुझे करना क्या है जीवन में उसके बाद सबसे पहले उस समय के मेरे कच्ची उम्र के अपरिपक्व दिमाग में एक बात आई आई क्या अच्छी तरह से घर कर गई के इसके लिए ज्यादा पढ़ने लिखने की जरूरत नहीं है, और जब जरूरत नहीं है तो फिर काहे अपने पिता जी का पैसा फालतू मे कॉपी किताब और स्कूल फि में बर्बाद करना, हालांकि बाद में मुझे अपने इस निर्णय पर पछताने के अलावा और कुछ नही करना पड़ा, मुश्किल से तीन साल में होस्ट में रहा होऊंगा उसके बाद वापस अपने शहर साहिबगंज लौट आया उसके बाद फिर से पिता जी ने स्कूल में दाखिला करवा दिया मगर इस बार स्कूल सरकारी था जिसे गुरुजी का स्कूल कहते थे हम उस समय वो स्कूल अब भी है वहां पढ़ाई में मन तो ज्यादा नहीं लगता पर संतोष इस बात का रहता के स्कूल सरकारी है तो कम से कम पिता जी का खर्च कम हो रहा है, विधि का विधान देखिए इस स्कूल में एक अध्यापक थे जिनका नाम जहां तक मुझे याद है "सुरेश सर" था और वो पास के गांव "सकरी" से पढ़ाने आते थे वो पढ़ते किस विषय को थे वो याद नही पर सप्ताह में एक घंटे अपने सारे इच्छुक विद्यार्थियों को गाने बजाने का मौका ज़रूर दिया करते थे "अंधे को क्या चाहिए" मैं भी शामिल रहता उनकी कक्षा में और अपनी लिखी कविताओं को सुनाता पर शबासी अब भी नही मिली किसी से इसके अलावा मुझे संस्कृति का विषय पसंद था जिसमे में अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर रहता, समस्या ये थी कि इस स्कूल में सिर्फ कक्षा पांच तक की ही पढ़ाई संभव थी उस समय अभी तो आगे की पढ़ाई भी होती है, उसके बाद पोखरिया स्कूल में भर्ती करवा दिया गया मेरा जहां मेरे मन लायक कुछ नही था पर एक साल की पढ़ाई करने के बाद राजस्थान में कक्षा सात में एक बार मेरा दाखिला फिर से हुआ।
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