18 मार्च 2021

रचनाकार :- रब नवाज़ आलम..!

वबा फिर ला रहे हो, 
क्या अभी सफाई बाकी है।
जान सस्ता है यहां, 
सिर्फ अभी महंगाई बाकी है।

बिछीं हैं बिसातें, 
बंगाल की सर ज़मीं पर।
नेता लेटे हैं यारों, 
अभी अंगड़ाई बाकी है।

आंखें हैं मगर दिखता कहां है, 
क्या हो रहा है।
खुदी को देख कहता हूं, 
अभी बिनाई बाकी है।

लिखता हूँ वक़्त के पन्नों पर 
हालात ए हाजिरा।
शुक्र है मेरे कलम में, 
अभी रोशनाई बाकी है।

सुधारो सभी इख़लाक़, 
बरतो अब भी एहतियात।
कोरोना यहीं है, 
इससे अभी लड़ाई बाकी है।

इंसानियत के पैकरों से 
वजूद ए दुनिया कायम।
इंसान ज़िंदा हैं अब भी, 
अभी पारसाई बाकी है।

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प्रदूषण बनाम तिरपाल..!
ओह्ह हो कहां बांध दिया है ससुरे ने, खुला भी नहीं जाता, रहा भी नहीं जाता, आह, आह दम घुट रहा है साला। कितना प्रदूषण भर दिया है कि सांस नहीं लिया जाता.. ये कहते हुए ललका तिरपाल तांडव करने लगा, फड़-फड़, फड़-फड़। तभी पीछे वाला बुलुक्का तिरपलवा झन्ना उठा, अबे काहे चिल्ला चिल्ला कर आसमान फाड़े रहे हो बे, का बात है। ललका बोला ससुरा ऐसी जगह बांधे दिया है कि दम फूल रहा है। बुलुक्का- ई कौनो नया बात है का, रोजे तोहार नियर नईका के नाटक देखते हैं। घबरावे के कउनो बात नाही, बस  धरती फाड़ के निकल आवे के हिम्मत जुटावा, हो जाई। ललका फिर ज़ोर से फड़फड़ाया...अभी मिर्जाचौकी से निकल पीरपैंती वाला सड़कवा पकड़वे किया था कि चर्र....ललका- हां तब ई देखो बाहर की हवा तरो ताज़ा...बुलुक्का- यहां कोई कुछ नहीं बोलता, प्रदूषण रोके की जवाबदेही हम निर्जीव को ही मिली है। जैसे निर्जीव पत्थर हम निरजीवन के गोतिया है। सजीव लोगन तो मुर्दा हो गइलन, का कहिइन। ससुरा उ लोगन तो खुश है कि साहिबगंज दिल्ली से मुकाबला करे खातिर तैयार है। 
             यही कुछ हो रहा है पत्थर से निकलने वाले प्रदुषण को रोकने के जुगाड़ू तरीका के साथ। आगे पीछे चल रहे दो अलग-अलग पत्थर लदे ट्रकों में निर्जीव तिरपाल की कहानी बहुत कुछ कहती है। 
             दरअसल, ज़िले में पत्थर कारोबार इस क़दर बे-लगाम हो चुका है कि उससे निकलने वाले धूलकण हवा में ज़हर बन कर तैर रहे हैं। ये एक ऐसा कारोबार हो चला है जिसे अपने फायदे के लिए करते कुछ लोग हैं लेकिन इसका नुकसान ज़िल की 12 लाख जनता को दे रहे हैं। इस पर लगाम लगाने वाले सारे तंत्र फेल हैं या तो उन्हें समझ नहीं आ रहा कि प्रदूषण को आखिर कैसे रोकें...तो ऐसे में जुगाड़ू दिमाग का ऐसा आइडिया ठोंक दिया है जो हास्यास्पद है। नए निर्देश के मुताबिक उड़ते धूलकण को रोकने के लिए पत्थर ढ़ोने वाले ट्रकों को तिरपाल से ढंक कर परिवहन किया जाएगा। इससे एक मतलब ये निकलता कि ट्रकों से पत्थर ढ़ोते समय उससे धूलकण बाहर निकल शहर या उस इलाके में फैलता है जहां से ट्रक गुजरता है। इसलिए ट्रक के पत्थर लदे डाला को ही तिरपाल से ढंक दिया जाए। हो सकता है ये कुछ मायने में कुछ क्षण में लिए कारगर हो। लेकिन ज़रा सोंचिये क्या तिरपाल उड़ते धूलकण को रोक पाने में सक्षम है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस तिरपाल को जाने अनजाने में ओवर लोड छुपाने का जरिया बना लिया गया है। ताकि लोग समझें कि प्रदूषण नियंत्रण के तमामतर कवायद आजमाए जा रहे हैं। तिरपाल से धूलकण नियंत्रण या प्रदूषण नियंत्रण किसी शैतानी दिमाग की उपज तो नहीं। क्यूंकि बचपन से सुनते आए हैं, ज़रा पनिया मार दो धूल नए उड़तओ...सब जानते हैं पानी प्यास भी बुझाती है, आग भी बुझाती है और गर्द ओ ग़ुबार को उड़ने से रोकने में भी सक्षम है। आऊंगा इस बात पर लेकिन अब जरा इससे पहले चलते हैं..क्रशरों व पत्थर खदानों से निकलने वाले धूलकण के नियंत्रण के लिए पहले उसके आसपास में इलाकों में पानी छिड़काव, पौधरोपण व घेराबंदी के कवायद चल रहे थे। तमाम तर कोशिशें हो रही थीं प्रदूषण नियंत्रण की। और ये तार्किक भी थीं। लेकिन फिर इनसब पर से ज़ोर हट गया। जैसे सभी क्रशरों व खदान की घेराबंदी हो गयी हो, जैसे सभी जगह पानी के फव्वारे मारने की व्यवस्था हो गयी हो, जैसे सभी ऐसी जगहों पर लगाये गए पौधे वृक्ष बन गए हों। अब इन निर्देशों का सख्ती से पालन करने की कोशिशें नज़र नहीं आ रही हैं। वहीं इस बेहद ज़रूरी कवायदों को छोड़ नया आइडिया देने वाले को खुराफाती सूझी। शायद ईजाद कर्ता ओवर लोडिंग का पक्षधर रहा हो। तो उसने ललका, बुलक्का तिरपाल वाली परंपरा चालने की ज़िद पकड़ ली है। अब इसका भार ट्रक मालिकों को और ट्रकों को उठाना पड़ रहा है। हर एक दो दिन में तिरपाल फट जा रहा है। हालांकि तिरपाल दुकानदारों का धंधा चल निकला है। अब तिरपाल मार्किट से चाहे महंगा वाला लीजिए या सस्ता वाला, अगर आप इस्तेमाल किये हैं तो अच्छे से जानते होंगे कि एक बार कोर में बने एल्युमिनियम के होल में रस्सी फंसा कर खींचिए तुरंत दांत चिहार देगा।
 खैर अब इधर तनिक वैज्ञानिक तथ्यों को खँगाल लेते हैं। कभी नाम सुना है का, एक्यूआई का ? हममें से कितनों ने नहीं सुना होगा। भई इसे एयर क्वालिटी इंडेक्स कहते हैं, यानि ये हवा में प्रदूषण स्तर मापने का पैमाना है। साहिबगंज का एक्यूआई स्तर आय दिन इतना रहता है कि इसके हिसाब से बाहर निकलना बीमारी को दावत देना है। गूगल सलाह देता है कि लोग घरों में दरवाजा खिड़की बंद करके रहें। यानि साहिबगंज की फिजा में इतना प्रदूषण है कि आपकी जान को खतरा है। अब भाई इतना प्रदूषण साहिबगंज में आया कहाँ से। इतना प्रदूषण तो दिल्ली की गलियों में घूमता है। वहां वजह है इसके पीछे कि वहां वाहनों की संख्या व कल-कारखाने ज़्यादा हैं। पर यहां साहिबगंज में क्या है कि यहां का प्रदूषण दिल्ली के मुकाबिल हो चला है। है ना भाई, यहां पत्थर उधोग है। पत्थर व्यवसाय के हम भी पैरोकार हैं, अब यहां सोना तो है नहीं। लेकिन 12 लाख जिंदगियों को दांव पर हम कतई नहीं लगा सकते, ज़रूरत को दोहन में बदलने का पक्ष नहीं ले सकते। अपने आने वाले कल को अपंग नहीं बना सकते। सख्ती के साथ धंधा फले फूले लेकिन प्रदूषण की शर्त पर नहीं। अब आइये काम की बात, प्रदूषण नियंत्रण के लिए बहुत दिमाग लगाकर अजीब ओ गरीब खोज करने की ज़रूरत नहीं। मामूली से बदलाव की ज़रूरत है। जब पूर्व के तार्किक निर्देशों का पालन हो रहा है और सभी क्रशरों में पानी छिड़काव की व्यवस्था है तो क्यों नहीं पत्थरों को लादने से पूर्व क्रशर परिसर में ही उसे पानी से इस तरह भीगा दिया जाए कि लोडिंग, परिवहन व अनलोडिंग में धूलकण उड़ कर पर्यावरण में फैले ही नहीं। इससे बेमतलब के तिरपाल से जहां ट्रक मालिकों, चालकों को छुटकारा मिलेगा वहीं धूलकण उड़ेंगे ही नहीं।

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ज़मीन से निकल कर, 
वो आसमान पहुंचा है।
सुना है, हर गांव से दिल्ली, 
किसान पहुंचा है।

लगाई जा रही है रोक कानून से, 
खुले बाजारों पर।
जहां बालियों से निकल कर गेंहू, 
धान पहुंचा है।

हैरत है कि आंदोलन को 
साजिश करार दिया हैं।
ज़ेर ए आसमाँ हैं, 
कहां कोई सरगोशी को मकान पहुंचा है..?? 

इस क्रांति के ज़िम्मेदार ना वो थे, 
ना तुम हो मगर।
इंसानियत तो दिखाओ कि 
वहां इंसान पहुंचा है।


जज़्बी को है फिक्र 
देश के काश्तकारों की।
लिख कर कागजों पर 
समर्थन का एलान पहुंचा है।

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रात के अंधेरे में 
कुछ जलाया है,
धुआं तो नहीं निकला।
कोई कतार, कोई जुलूस,
कैंडिल मार्च यहां तो नहीं निकला।।
मुहाफ़िज़ ही खामोशी से 
जराइम कर बैठे।
कोई गुनाहगार, 
तारीकियों में वहां तो नहीं निकला।।
छुपाया बहुत होगा, 
चुपके से जलायी होंगी लकड़ियां।
जुर्म खुद चीख पड़ा, 
खामोश जुबां तो नहीं निकला।

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निकली है दिल से 
आह भी इस कसक से।
के तुम्हें कभी 
छुटकारा ना मिले नरक से।।
वो जो चीखे है, 
बेटी बचाव, बेटी बचाव हर सू।
जुबां बंद है, 
आवाज़ निकलती नहीं हलक से।।
तेरी तराजू का बटखरा 
खोटा है तो क्या, ऐ ताजिर।
तासीर दुआओं में है अब भी, 
इंसाफ खींच लाएंगे फलक से।।

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