19 मार्च 2020

आलेख :- डॉ० दीपा संजय दीप..!

उत्तर प्रदेश के उद्योगों में महिलाओं की हालत..!
उत्तर प्रदेश के उद्योगों में यदि हम महिलाओं की हालत की बात करें तो हम देखते हैं कि पिछले कई वर्षों से उत्तर प्रदेश में हम जो भी बड़े श्रमिक आंदोलन देख रहे हैं, उनमें आमतौर पर महिलाओं की अच्छी भागेदारी है। आंगनबाड़ी कार्यकत्री, रसोइया श्रमिक, नर्सेज ,आशा नेत्री आदि के संघर्षों में तो सिर्फ महिलाओं की उपस्थिति है।साथ ही इनके शिक्षा मित्र, वित्तविहीन शिक्षक, निर्माण मजदूर आदि के रूप में उपस्थिति अच्छी है। उत्तर प्रदेश के पुराने उद्योग-कपड़ा मिल, सूती मिल आदि तो समाप्ति की वाट जोह रही हैं लेकिन चमड़ा उद्योग, रेडीमेड गारमेंट उद्योग, आईटी क्षेत्र, काल सेन्टर और मॉल में महिला श्रमिक बड़ी संख्या में हैं
महिला श्रमिक बतौर एक श्रमिक आज उत्पादन के क्षेत्र में काम, पूरा घरेलू काम, बच्चे जनना उन्हें पालना पोसना आदि काम भी स्वयं करती हैं इसके बाद भी हम उनसे उम्मीद करते हैं कि वे ट्रेड यूनियनों या अन्य सामाजिक संगठनों के काम करें ? जबकि एक व्यक्ति का एक साथ इतने सारे काम करना कहां तक जायज़ है।
फिर भी हम ट्रेड यूनियनों से महिलाओं की भागीदारी को अक्सर उनका पिछड़़ापन ही मानते आए हैं। कुछ लोगों का कहना है कि ट्रेड यूनियन कोई राजनीतिक संगठन नहीं कि वह सामाजिक सवालों को भी उठायें। आज यही कारण है कि अधिकांश महिला श्रमिक हाशिये पर दिखाई देती हैं।अमूमन पच्चीस तीस वर्षों में नई तकनीक पर आधारित उत्पादन-वितरण सेवा क्षेत्रों का नया रूप दिखाई दिया है, जिसमें महिला श्रमिकों की संख्या में अच्छी खासी बढ़ोतरी हुई है। कुछ क्षेत्रों में जहां सिर्फ महिलाएं ही कार्यरत हैं, आज रेडीमेट गारमेंट, टूरिज्म ,स्वास्थ्य ,बाल शिक्षा, सेल्स, वित्त ,आईटी, सामाजिक कल्याण की योजनाएं आदि में महिला श्रमिकों की बहुतायत है। इनमें से मूलतः में या तो ट्रेड यूनियने ही नहीं है और जहां हैं भी वहां स्थिति नाजुक है।
संगठित एवं सरकारी क्षेत्रों में लगी हुई पुरानी ट्रेड यूनियनें जो पूरे ट्रेड यूनियनों का आमतौर पर नेतृत्व करती हैं, उनकी सोच अभी पुरानी ही है। एवं महिला श्रमिकों के लिए आज भी जगह नहीं है, और न ही उनके द्वारा इन क्षेत्रो में लगी बहुसंख्यक महिला श्रमिकों को कोई राह सुझाई जाती है।
महिला श्रमिक छोड़िए पिछले दस वर्षों में वेतन आयोगों और वेतन समझौतों ने स्थाई और संविदा श्रमिकों के बीच इतनी गहरी दरार उत्पन्न कर दी है, कि इन यूनियनों का ठोस आधार भी जाता रहा है एवं इनकी मांगे एवं सोच मध्यमवर्गीय हो गयी है ऐसा कहा जा सकता है।
आज उनके स्वप्न श्रमिक वर्गीय नहीं रहे कि पूरे श्रमिक जनता के बीच फैली असमानतओं और अन्याय के विरूद्ध लड़ सकें।
इन संघर्षों से पहले महिलाओं को  अधिकार नहीं था अब ठेका-संविदा स्कीम के कारण उन्हें नौकरियों से वंचित किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश की पूरी श्रमिक आबादी का बहिष्कृत हिस्सा बहुसंख्यक है, यदि इसमें असंगठित, खेतिहर, दिहाड़ी श्रमिकों को जोड़ दिया जाय तो इनका अनुपात 90 परसेंट तक हो जाता है। जिसमें आधे से अधिक महिलाएं हैं। अब प्रश्न यह है कि हम कौन सी राह अपनाएं, इस बहिष्कृत बहुमत को मुख्यधारा की ट्रेड यूनयनों से संगठित करें या इनकी एक नई मुख्यधारा बनाया जाए।एक
देश में हुए महिला श्रमिकों के दो महत्वपूर्ण आंदोलन में मुन्नार, केरल के चाय बगानों की महिला श्रमिकों ने पिछले वर्ष अपनी अगल यूनियन बनाकर लड़ाई लड़ी इनकी लड़ाई ट्रेड यूनियनों के स्थापित ढांचे से काफी बाहर थी जिस कारण इनहें काफी दंश झेलना पड़ा। ये पूरी दृढ़ता से अलग संगठित हुईं एवं आगे बढ़ीं इनके संघर्षों ने इन्हें एक नई दिशा दी है।
श्रमिक आंदोलन में  उत्तर प्रदेश में भी लगातार ऐसी घटनाएं परिलक्षित हो रही हैं इन्हें एक वैचारिक रूप देने की आवश्यकता है जिस प्रकार जीवन एवं समाज निरंतर विकासशील है, तो निश्चित रूप से 19सवी 20वी शताब्दी के  प्रयासों को भी इक्कीसवीं शताब्दी के अनुसार नया अर्थ देना होगा, अपनी कल्पना से नहीं, बल्कि जो हमारे सामने वास्तव में घटित हो रहा है, उससे। उत्पादन के नये-नये क्षेत्र और रूप आज हमारे सामने हैं, यह बदलाव देश की बहुसंख्य आबादी को श्रमिक जनता की श्रेणी में सम्मिलित करने का एक प्रयास है। 
आज हम कह सकते हैं कि आज के ट्रेड यूनियन आंदोलन से महिलाएं अलग हैं।साथ ही एक दूसरा सच भी है कि श्रमिक जनता खुद को नए तरीके से पेश करने की कोशिश कर रही है इसमें महिलाएं भी मौजूद हैं। हमारे पास इस प्रयासों को एकीकृत करने और उसके साथ मिलकर काम करने की दृष्टि कितनी है यह हमें इन सदंर्भों में गांधीजी के आन्दोलनों से जांचने की आवश्यकता है।गांधी जी सदैव आंदोलन का एकीकृत रूप तय करते थे। उसमें आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं शैक्षिक पहलू एक साथ जैविक रूप से एकताबद्घ होते थे। इसी से पूरा समाज उसमें भागीदार होता था और राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित होता था। हमारे ट्रेड यूनियनों और मजदूर आंदोलनों ने इस समझदारी का परिचय नहीं दिया जिस कारण आज हम दयनीय स्थिति पर पहुंच गये हैं।
श्रमिक आन्दोलन, जिसके कंधों पर एक नया समाज, एक वर्ग विहीन समाज बनाने की जिम्मेदारी है, वह अपने को आर्थिक सुधारों के दायरे तक सीमित कैसे रखे यह प्रश्नचिन्ह है एक श्रमिक जो एक कारखाने में काम  करने के साथ ही एक नागरिक भी है, उसका परिवार,गांव,शहर, नाते-निश्तेदार हैं। वह कारखाने की ही नहीं, सामाजिक जीवन की  प्रत्येक घटनाओं से प्रभावित होता है एवं सामाजिक जीवन की हर प्रत्येक वस्तु का उपयोग करता है अथवा उपयोग करने से वंचित कर दिया जाता है। हमारे श्रमिक संघर्षों में क्या यह पहलू शामिल हुआ कि नहीं? यदि शामिल नहीं हुआ, तो महिला श्रमिक कैसे उसका हिस्सा बन सकती हैं।
सामाजिक जीवन की सभी समस्याएं अधिकांशतः महिलाओं के कंधों पर है। अतः हमें महिलाओं का हाथ बंटाने के बारे में सोचना लाज़िमी है।

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