अन्याय व सत्याग्रह..! वर्तमान परिप्रेक्ष्य को मध्य नजर रखते हुए सामाजिक दृष्टिकोण से यदि अन्याय के खिलाफ व सत्याग्रह के यथार्थ विचारधारा की बात की जाए तो हमारे अंदर काफी विरोधाभास पैदा होता है । एक ओर तो हम गांधीवादी दर्शन और गांधी के विचार धाराओं को मानकर उन्हें अपने जीवन में अनुकरण करने के लिए ढोल पीटते हैं, तो वहीं दूसरी ओर समाज में हो रहे अन्याय, अपराध व व्यभिचार जैसी समस्याओं पर गांधी के दर्शन के साथ समझौता करने की कोशिश करते हैं।
यदि हम किसी भी सामाजिक समस्या, अपराध या शोषण के खिलाफ मुखर होकर आवाज बुलंद करते हैं तो हम अपराधियों के लिए भी वैसी ही दंड की अपेक्षा रखते हैं, जैसे घृणित अपराध उसने किए और मानवता के खिलाफ उसने जो कुकृत्कय अपनाया। एक ओर आक्रोशित हृदय अपराधियों को सामाजिक दंड देने की बात करता है, तो वहीं दूसरी ओर जब गांधी के दर्शन की बात आती है तो हम सत्याग्रह अहिंसा की नीति अपनाने की बात करते हुए अपनी यथार्थ मानसिक विचार से ही समझौता करते हैं।
यह उदाहरण तो हम सभी जानते ही होंगे कि" यदि कोई आपके एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरी गाल बढ़ा देना चाहिए" दरअसल सत्याग्रही की जो छवि हमारे मन पर उभरती है वह इस प्रकार है "सत्याग्रही सत्य की निष्ठा पर चलता है और उसी सत्य की निष्ठा पर चलते हुए वह अन्याय के हृदय को झकझोर देता है।तब तक वह अपने सत्य पर अटल रहता अन्याय, अत्याचारों को सहन करता रहता है , जब तक कि खुद अन्याययी की अंतरात्मा उसे ना धिक्कार दें। वहीं दूसरी ओर हम इस विचार को भी सुनते हैं कि जो जैसा है उसके साथ वैसा ही व्यवहार होना चाहिए।
अब इस विचारधारात्मक अंतर्द्वंद और ऊहापोह की मन: स्थिति को व्यक्ति सहन किस प्रकार कर सकता है? इस स्थिति में पड़े व्यक्ति यदि बाहुबल से कमजोर हो परंतु सहनशक्ति से बलिष्ठ हो, तो वह गांधीवादी नीति को अपनाते हैं । वहीं दूसरी ओर यदि व्यक्ति बाहुबल से मजबूत हो परंतु वह सहन शक्ति से बलिष्ठ ना हो तो वह व्यक्ति जैसे को तैसा यानी ब्रह्मास्त्र निकालकर एक ही बार में मसला हल करने पर उतारू हो जाते हैं। फिर भी इस विषय में विभिन्न लोगों की अपनी अपनी निजी राय हैं।
दरअसल अन्यायी और अन्याय के प्रति प्रतिकार का प्रश्न सनातन है। अपनी सभ्यता के विकासक्रम में मनुष्य ने प्रतिकार के लिए प्रमुखत: चार पद्धतियों का अवलंबन किया है-
पहली पद्धति है बुराई के बदले अधिक बुराई। इस पद्धति से दंडनीति का जन्म हुआ जब इससे समाज और राष्ट्र की समस्याओं के निराकरण का प्रयास हुआ तो युद्ध की संस्था का विकास हुआ।
दूसरी पद्धति है, बुराई के बदले समान बुराई अर्थात् अपराध का उचित दंड दिया जाए, अधि नहीं। यह अमर्यादित प्रतिकार को सीमित करने का प्रयास है।
तीसरी पद्धति है, बुराई के बदले भलाई। यह बुद्ध, ईसा, गांधी आदि संतों का मार्ग है। इसमें हिंसा के बदले अहिंसा का तत्व अंतर्निहित है।
चौथी पद्धति है बुराई की उपेक्षा।
गांधी विचार धाराओं के अनुसार सत्याग्रह' का मूल अर्थ है सत्य के प्रति आग्रह (सत्य का आग्रह) सत्य को पकड़े रहना और इसके साथ अहिंषा को मानना । अन्याय का सर्वथा विरोध(अन्याय के प्रति विरोध इसका मुख्या वजह था ) करते हुए अन्यायी के प्रति वैरभाव न रखना, सत्याग्रह का मूल लक्षण है। हमें सत्य का पालन करते हुए निर्भयतापूर्वक मृत्य का वरण करना चाहिए और मरते मरते भी जिसके विरुद्ध सत्याग्रह कर रहे हैं, उसके प्रति वैरभाव या क्रोध नहीं करना चाहिए।'
"सत्याग्रह' में अपने विरोधी के प्रति हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। वे अहिंषा वादी थे । धैर्य एवं सहानुभूति से विरोधी को उसकी गलती से मुक्त करना चाहिए, क्योंकि जो एक को सत्य प्रतीत होता है, वहीं दूसरे को गलत दिखाई दे सकता है। धैर्य का तात्पर्य कष्टसहन से है। इसलिए इस सिद्धांत का अर्थ हो गया, "विरोधी को कष्ट अथवा पीड़ा देकर नहीं, बल्कि स्वयं कष्ट उठाकर सत्य का रक्षण।'
महात्मा गांधी ने कहा था कि सत्याग्रह में एक पद "प्रेम' अध्याहत है। सत्याग्रह मध्यमपदलोपी संधि है। सत्याग्रह यानी सत्य के लिए प्रेम द्वारा आग्रह।(सत्य + प्रेम + आग्रह = सत्याग्रह)
गांधी जी ने लार्ड इंटर के सामने सत्याग्रह की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार की थी-"यह ऐसा आंदोलन है जो पूरी तरह सच्चाई पर कायम है और हिंसा के उपायों के एवज में चलाया जा रहा।' अहिंसा सत्याग्रह दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि सत्य तक पहुँचने और उन पर टिके रहने का एकमात्र उपाय अहिंसा ही है। और गांधी जी के ही शब्दों में "अहिंसा किसी को चोट न पहुँचाने की नकारात्मक (निगेटिव) वृत्तिमात्र नहीं है, बल्कि वह सक्रिय प्रेम की विधायक वृत्ति है।'
सत्याग्रह में स्वयं कष्ट उठाने की बात है। सत्य का पालन करते हुए मृत्यु के वरण की बात है। सत्य और अहिंसा के पुजारी के शस्त्रागार में "उपवास' सबसे शक्तिशाली शस्त्र है। जिसे किसी रूप में हिंसा का आश्रय नहीं लेता है, उसके लिए उपवास अनिवार्य है। मृत्यु पर्यंत कष्ट सहन और इसलिए मृत्यु पर्यत उपवास भी, सत्याग्रही का अंतिम अस्त्र है।' परंतु अगर उपवास दूसरों को मजबूर करने के लिए आत्मपीड़न का रूप ग्रहण करे तो वह त्याज्य है : आचार्य विनोबा जिसे सौम्य, सौम्यतर, सौम्यतम सत्याग्रह कहते हैं, उस भूमिका में उपवास का स्थान अंतिम है।
"सत्याग्रह' एक प्रतिकारपद्धति ही नहीं है, एक विशिष्ट जीवनपद्धति भी है जिसके मूल में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, निर्भयता, ब्राहृचर्य, सर्वधर्म समभाव आदि एकादश व्रत हैं। जिसका व्यक्तिगत जीवन इन व्रतों के कारण शुद्ध नहीं है, वह सच्चा सत्याग्रही नहीं हो सकता। इसीलिए विनोबा इन व्रतों को "सत्याग्रह निष्ठा' कहते हैं।
"सत्याग्रह' और "नि:शस्त्र प्रतिकार' में उतना ही अंतर है, जितना उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में। नि:शस्त्र प्रतिकार की कल्पना एक निर्बल के अस्त्र के रूप में की गई है और उसमें अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए हिंसा का उपयोग वर्जित नहीं है, जबकि सत्याग्रह की कल्पना परम शूर के अस्त्र के रूप में की गई है और इसमें किसी भी रूप में हिंसा के प्रयोग के लिए स्थान नहीं है। इस प्रकार सत्याग्रह निष्क्रिय स्थिति नहीं है। वह प्रबल सक्रियता की स्थिति है। सत्याग्रह अहिंसक प्रतिकार है, परंतु वह निष्क्रिय नहीं है।
इस लेख में मैंने अपने निजी विचार व ऐतिहासिक व गांधीवादी विचारधारा के स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर इस लेख का रूपरेखा तैयार किया हूं। यदि किसी को मेरे विचारों से आपत्ति हो तो वह अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र है, स्वतंत्र रूप से विचारों का स्वागत करता हूं।