मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
फुदक-फुदक कर इस छत से, उस छत तक चला जाता है।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
कभी शहर की ऊंची मुंडेर पर, कभी दिल्ली की अट्टालिकाओं पर।
कभी कराँची की सड़कों पर, चक्कर खूब लगाता है।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
फुदक-फुदक कर इस छत से, उस छत तक चला जाता है।।
एक दिन मेरा भोला पक्षी, मुझसे रूठा-मुझसे टूटा।
बात मेरी समझ न आई, उसका नाता सरहद से टूटा।।
दूर कराँची में जा उसने, अपना आशियाना नया बनाया।
जब-जब उसकी यादें आई, आँखे रोई-दिल भी रोया।।
एक नहीं कई दशक बीत गए, हमने दिल को खूब बहलाया।
वह भी चैन से रह न पाया, जब वह बंदा होश में आया।
भूल न पाया मोहक खुशबू, गंगा-जमुना के तट की।
लखनऊ की रंगीन रातें, और दिल्ली की दिल्लगी की।।
मस्जिद के अजां से घुलमिल, बजते मंदिर के घंटों की।
सेवईयों की खुशबू की, होली और दीवाली की।।
मेरे मन का भोला पक्षी, तड़प गया हिन्दुस्तां आने को।
जी उसका कुछ यूँ घबराया,
मानो काट रहा कराँची उसको।।
मैंने कहा-- ऐ भोला पक्षी, तू पाक है--पाक मन से आजा।
रांची व कराँची दो है, मन से यह विद्वेष भूला जा।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
फुदक-फुदक कर इस छत से, उस छत तक चला जाता है।।
एक बार मेरा भोला पक्षी, पड़ोस की पेड़ पर नया घोंसला बसाया।
खुली हवा खाने की लत थी, खूब मौज उड़ाया।।
था उसे पता नहीं, अब शहरों में विकास की आँधी चली है।
कट रहे हैं पेड़ सारे, सड़क चौड़ी हो चाहे पतली गली है।
कुल्हाड़ी की चोटों ने, उसका भी पेड़ काट गिराया।
देख मानव की उच्छृंखलता, वह बहुत घबराया।।
मेरे मन का भोला पक्षी, सदा मन में ही रहता है।
बाहर आने से है चिढ़ता, हर आहट से भी डरता है।।
जब कभी मन उबता उसका,आसपास ही फुदकता है।
सुबह निकलता-शाम से पहले, वह दिल में आ जाता है।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
बाहर निकलने से पहले, मैं उसे खूब समझाता हूँ।
जाति-धर्म की पाठ पढ़ाता, हर मुंडेर-छत दिखाता हूँ।
इतनी सी बात मगर, वह समझ नहीं पाता है।
हिन्दू और मुसलमां हो चाहे, हर छत पर चढ़ जाता है।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
फुदक-फुदक कर इस छत से, उस छत तक चला जाता है।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
**************************
मैं टूट कर प्रतिदिन, जाता हूं बिखर
अगली सुबह, खुद को जोड़ता हूँ चुनकर
इकट्ठा करता हूँ अपना हाथ-पैर, सिर-धड़
गतिशील भी होता हूँ, पुनःहो जाता हूँ जड़
इस दिनचर्या से, मैं ही नहीं
हर गरीब गुज़रता है..।
अपनी रोटी के लिये, खुद को ही
चक्की में पीसता है..।
पिसता मजदूर और किसान..।
मध्यम वर्ग की यही पहचान..।।
छीन गए निवाले, कहते हो खाद्य सुरक्षा बिल..।
ऐसे तरकीब निकाले, मानो- हमें जायेंगे लील..।।
विश्वास है अगली पीढ़ी तक, हम टिक पाएंगे..।
भले ही देखकर ही--"चावल-दाल", हम भूख मिटायेंगे..।
सदी के अंत तक GDP ग्रोथ, इस कदर बढ़ जाएगा..।
विश्व-पटल से, गरीब नामक जीव मिट जाएगा..।
पूँजीवाद का ऐसा साम्राज्य छाएगा..।
इनके इशारों से उगेगा सूरज और डूब जाएगा..।।
रात-दिन, स्त्री-पुरूष व जानवर-आदमी का फ़र्क मिट जाएगा..।
मर जायेगी हमारी संस्कृति-परंपराएं और विरासत..।
बचेगा सिर्फ दिशाहीन समाज और विधर्मी सियासत..।।
*************************
ऐ सर्दी..! तुम इतनी ठंडी क्यूँ हो..?
क्यों कांप रही हो आपादमस्तक..??
बर्फ की चादर से, ढकी तुम..!
ऋणात्मक ताप में दुबकी दुम..!!
थरथराते बदन,कटकटाते दांत..!
हिलते पांव,घूँटनों में फंसी आंत..!
लेकिन है, राहत की एक बात..!
आज नहीं पूछेंगे, तुम्हारा धर्म व जात..!
मैं तुम्हें दूंगा, एक कम्बल,
एक सेल्फी की कीमत पर,
हम हर सर्दी में यह रश्म दुहराते हैं..!
इसी बहाने, हम हमदर्द बन जाते हैं..!
ऐ सर्दी! तुम आ जाओ मेरे पास..!!
मैं अपनी हाथों की गरमी से,
अपने जिस्म के तापमान से,
तुम्हें, तुम्हारी सर्दी से मुक्त कर दूंगा..!
तुम्हारे आबोहवा में गरमी भर दूंगा..!
तुम्हें दूंगा एक जिंदा अहसास,
क्योंकि मैं हूँ बहुत, ख़ास..!!
*******************
मत बरगला और मुझे की
सरकार गिरी है, प्याज से ।
मत भूलो यह, शास्त्री-भूमि है
हमने देश बचाया, उपवास से ।।
हमें पता है हमने, मानव-जन्य नहीं
"प्रकृति-दंश" झेला है ।
विश्व फँसा आर्थिक-संकट में,
भारत नहीं, अकेला है ।।
घुटनों के बल चलकर
लड़खड़ाते कदमों से ही सही
हमने स्वभिमान से जिया है
पुनः बनेंगे विश्व-गुरु एकदिन
ऐसा हमने ठाना है।
अब न होगा, गंगा का सौदा
धर्म का न होगा, अपमान ।
सीना ताने कहेंगे हम
अपना प्यारा, हिंदुस्तान ।।
हम सम्प्रदायों में फँसते नहीं
भाई-भाई लड़ते नहीं।
आपस का विद्वेष मिटा
हमने पड़ोसियों को भी अपनाया है।
दुनिया-भर में, विश्व-बंधुत्व का भाव फैलाया है।।
फुदक-फुदक कर इस छत से, उस छत तक चला जाता है।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
कभी शहर की ऊंची मुंडेर पर, कभी दिल्ली की अट्टालिकाओं पर।
कभी कराँची की सड़कों पर, चक्कर खूब लगाता है।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
फुदक-फुदक कर इस छत से, उस छत तक चला जाता है।।
एक दिन मेरा भोला पक्षी, मुझसे रूठा-मुझसे टूटा।
बात मेरी समझ न आई, उसका नाता सरहद से टूटा।।
दूर कराँची में जा उसने, अपना आशियाना नया बनाया।
जब-जब उसकी यादें आई, आँखे रोई-दिल भी रोया।।
एक नहीं कई दशक बीत गए, हमने दिल को खूब बहलाया।
वह भी चैन से रह न पाया, जब वह बंदा होश में आया।
भूल न पाया मोहक खुशबू, गंगा-जमुना के तट की।
लखनऊ की रंगीन रातें, और दिल्ली की दिल्लगी की।।
मस्जिद के अजां से घुलमिल, बजते मंदिर के घंटों की।
सेवईयों की खुशबू की, होली और दीवाली की।।
मेरे मन का भोला पक्षी, तड़प गया हिन्दुस्तां आने को।
जी उसका कुछ यूँ घबराया,
मानो काट रहा कराँची उसको।।
मैंने कहा-- ऐ भोला पक्षी, तू पाक है--पाक मन से आजा।
रांची व कराँची दो है, मन से यह विद्वेष भूला जा।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
फुदक-फुदक कर इस छत से, उस छत तक चला जाता है।।
एक बार मेरा भोला पक्षी, पड़ोस की पेड़ पर नया घोंसला बसाया।
खुली हवा खाने की लत थी, खूब मौज उड़ाया।।
था उसे पता नहीं, अब शहरों में विकास की आँधी चली है।
कट रहे हैं पेड़ सारे, सड़क चौड़ी हो चाहे पतली गली है।
कुल्हाड़ी की चोटों ने, उसका भी पेड़ काट गिराया।
देख मानव की उच्छृंखलता, वह बहुत घबराया।।
मेरे मन का भोला पक्षी, सदा मन में ही रहता है।
बाहर आने से है चिढ़ता, हर आहट से भी डरता है।।
जब कभी मन उबता उसका,आसपास ही फुदकता है।
सुबह निकलता-शाम से पहले, वह दिल में आ जाता है।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
बाहर निकलने से पहले, मैं उसे खूब समझाता हूँ।
जाति-धर्म की पाठ पढ़ाता, हर मुंडेर-छत दिखाता हूँ।
इतनी सी बात मगर, वह समझ नहीं पाता है।
हिन्दू और मुसलमां हो चाहे, हर छत पर चढ़ जाता है।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
फुदक-फुदक कर इस छत से, उस छत तक चला जाता है।।
मेरे मन का भोला पक्षी, मेरे मन में रहता है।
**************************
मैं टूट कर प्रतिदिन, जाता हूं बिखर
अगली सुबह, खुद को जोड़ता हूँ चुनकर
इकट्ठा करता हूँ अपना हाथ-पैर, सिर-धड़
गतिशील भी होता हूँ, पुनःहो जाता हूँ जड़
इस दिनचर्या से, मैं ही नहीं
हर गरीब गुज़रता है..।
अपनी रोटी के लिये, खुद को ही
चक्की में पीसता है..।
पिसता मजदूर और किसान..।
मध्यम वर्ग की यही पहचान..।।
छीन गए निवाले, कहते हो खाद्य सुरक्षा बिल..।
ऐसे तरकीब निकाले, मानो- हमें जायेंगे लील..।।
विश्वास है अगली पीढ़ी तक, हम टिक पाएंगे..।
भले ही देखकर ही--"चावल-दाल", हम भूख मिटायेंगे..।
सदी के अंत तक GDP ग्रोथ, इस कदर बढ़ जाएगा..।
विश्व-पटल से, गरीब नामक जीव मिट जाएगा..।
पूँजीवाद का ऐसा साम्राज्य छाएगा..।
इनके इशारों से उगेगा सूरज और डूब जाएगा..।।
रात-दिन, स्त्री-पुरूष व जानवर-आदमी का फ़र्क मिट जाएगा..।
मर जायेगी हमारी संस्कृति-परंपराएं और विरासत..।
बचेगा सिर्फ दिशाहीन समाज और विधर्मी सियासत..।।
*************************
ऐ सर्दी..! तुम इतनी ठंडी क्यूँ हो..?
क्यों कांप रही हो आपादमस्तक..??
बर्फ की चादर से, ढकी तुम..!
ऋणात्मक ताप में दुबकी दुम..!!
थरथराते बदन,कटकटाते दांत..!
हिलते पांव,घूँटनों में फंसी आंत..!
लेकिन है, राहत की एक बात..!
आज नहीं पूछेंगे, तुम्हारा धर्म व जात..!
मैं तुम्हें दूंगा, एक कम्बल,
एक सेल्फी की कीमत पर,
हम हर सर्दी में यह रश्म दुहराते हैं..!
इसी बहाने, हम हमदर्द बन जाते हैं..!
ऐ सर्दी! तुम आ जाओ मेरे पास..!!
मैं अपनी हाथों की गरमी से,
अपने जिस्म के तापमान से,
तुम्हें, तुम्हारी सर्दी से मुक्त कर दूंगा..!
तुम्हारे आबोहवा में गरमी भर दूंगा..!
तुम्हें दूंगा एक जिंदा अहसास,
क्योंकि मैं हूँ बहुत, ख़ास..!!
*******************
मत बरगला और मुझे की
सरकार गिरी है, प्याज से ।
मत भूलो यह, शास्त्री-भूमि है
हमने देश बचाया, उपवास से ।।
हमें पता है हमने, मानव-जन्य नहीं
"प्रकृति-दंश" झेला है ।
विश्व फँसा आर्थिक-संकट में,
भारत नहीं, अकेला है ।।
घुटनों के बल चलकर
लड़खड़ाते कदमों से ही सही
हमने स्वभिमान से जिया है
पुनः बनेंगे विश्व-गुरु एकदिन
ऐसा हमने ठाना है।
अब न होगा, गंगा का सौदा
धर्म का न होगा, अपमान ।
सीना ताने कहेंगे हम
अपना प्यारा, हिंदुस्तान ।।
हम सम्प्रदायों में फँसते नहीं
भाई-भाई लड़ते नहीं।
आपस का विद्वेष मिटा
हमने पड़ोसियों को भी अपनाया है।
दुनिया-भर में, विश्व-बंधुत्व का भाव फैलाया है।।
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